पाकिस्तान के मशहूर शायर फैज़ अहमद फैज़ ( Faiz Ahmad Faiz ) की नज़्म ‘हम देखेंगे’( Hum Dekhenge) मौजूदा दौर में सबसे ज्यादा चर्चा का विषय बनी हुई है। हम देखेंगे कि दो पंक्तियों पर इस वक़्त देशभर में बहस छिड़ गई है। इन पंक्तियों को लेकर IIT कानपुर ने जांच बैठाने की बात कही है।
फैज़ अहमद फैज़ वामपंथी विचारधारा के थे.. और जिन्हें आप वामी और सेक्युलर कह कर गाली देते हैं, ये बेचारे हर दौर में गाली खाते हैं और हर ज़ुल्म के दौर में जेलों में ठूंसे गए हैं.. सोच के देखिये कि जनरल ज़ियाउल हक़ ने फैज़ को क्यूँ जेल में ठूंसा था और आप आज क्यूँ फैज़ को गाली दे रहे हैं.. क्या आप ज़िया उल हक़ की मानसिकता के साथ हैं?
इन पंक्तियों को आधार बनाकर कहा जा रहा है कि फैज़ की ये नज़्म हिंदू विरोधी हैं। फैज़ की गिनती दुनिया के तरक्की पसंद शायरों की जाती हैं। फैज़ ने पाकिस्तान ( Pakistan ) की हुकूमत के खिलाफ हल्ला बोला था, इसलिए आज के कई आंदोलनों ( Movements ) में भी उनकी इस नज़्म को सुना जा सकता है।
फैज़ एक पत्रकार रहे और शायरी से उनका रूहानी राबता था। उन्होंने जब शायरी या गज़ल लिखना शुरू किया तो उनकी कोशिश ये रही कि वो कमजोर औऱ दबे-कुचलों की आवाज बन सकें, यहीं वजह कि उनकी लिखी गई लेखनी तानाशाही ( Dictatorship) हुकूमत की खिलाफत करती है।
भारत-पाकिस्तान बंटवारे के बाद फैज़ पाकिस्तान में रह गए। लेकिन अपनी शायरी की बदौलत फैज़ ने पाकिस्तान की हुकूमत के खिलाफ अपनी आवाज़ बुलंद की। उन्होंने 1951 में ही लियाकत अली खान ( Liaquat Ali Khan ) की सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया।
पाकिस्तान में राजनीतिक उथलपुथल मची हुई थी, तब लियाकत अली खान पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बने। लेकिन कुछ वक़्त बाद ही उनके खिलाफ साजिश भी शुरू हो गई। साल 1951 में उनके तख्तापलट की साजिश का खुलासा हुआ तो काफी नेताओं, पत्रकारों की गिरफ्तारियां हुईं।
इनमें फैज़ अहमद फैज़ भी शामिल थे। फैज़ अहमद फैज़ ( ( Faiz Ahmad Faiz ) को चार साल जेल में रखा गया, 1955 में वह जेल से बाहर आए। इसके बाद उन्हें देश निकाला दे दिया गया, इसके बाद कई साल उन्होंने लंदन में बिताए और करीब 8 साल के बाद पाकिस्तान वापस लौटे।
फैज़ साहब पर आरोप था कि वह कुछ लोगों के साथ मिलकर पाकिस्तान में वामदलों की सरकार लाना चाहते हैं।फैज़ को पाकिस्तान की हुकूमत ने जेल में भेल ही डाल दिया लेकिन उन्होंने वहीं से इंकलाबी शायरी को लिखना जारी रखा।
इसके बाद उनके जेल से लिखने पर रोक लगा दी गई। एक बार तो ये अफवाह फैली कि फैज़ को फांसी हो जाएगी, हालांकि उन पर लगे आरोप साबित नहीं होने की वजह से उन्हें रिहा किया गया। साल1977 में तत्कालीन आर्मी चीफ जिया उल हक ( Muhammad Zia-ul-Haq ) ने पाकिस्तान में तख्ता पलट किया।
इस तानाशाही रवैये से फैज़ अहमद फैज़ काफी दुखी हुए। इसी क्रूर दौर में उन्होंने ‘हम देखेंगे’ नज़्म लिखी, जो जिया उल हक के खिलाफ थी। इस दौरान वह कुछ समय के लिए लेबनान भी गए लेकिन साल 1982 में वापस आ गए। जबकि 1984 में फैज़ अहमद फैज़ का लाहौर में निधन हो गया।
साल 1985 में पाकिस्तान के फौजी डिक्टेटर ( Military Dictator ) ज़िया-उल-हक़ ने मुल्क में कुछ पाबंदियां लगा दी थीं। इनमें औरतों का साड़ी पहनने की अनुमित नहीं थी। इसके साथ ही शायर फैज़ अहमद फैज़ के कलाम पर भी पाबंदी लगा दी गई। इसी दौर में एक गायिका रहीं जिनका नाम इकबाल बानो ( Iqbal Bano ) था।
अब इकबाल बानो ( Iqbal Bano ) ने इस तानाशाही से भिड़ने की ठान ली। उन्होंने इन फैसलों की मुख़ालफ़त करते हुए मुनादी करवा दी कि इक रोज़ वे इन पाबंदियों को तोड़ नए दौर का फलसफ़ा लिखेगी। इसके लिए इकबाल बानो ने लाहौर स्टेडियम का इंतेख़ाब किया।
पाकिस्तानी हुक्मरानों ने इकबाल बानो को रोकने के लिए हर कोशिश की। मगर इसके बावजूद इकबाल बानो का साथ देने के लिए भारी तादाद में लोग स्टेडियम में पहुंचे। एक अनुमान के मुताबिक पचास हज़ार लोगों की भीड़ इस वाक़ये के गवाह बनने के लिए इकठ्ठा हो गई।
इस रोज़ काली काली साड़ी पहने इकबाल बानो बेहद हसीन लग रही थीं। जब उन्होंने स्टेज पर आकर माइक संभाला तो उनके आदाब की आवाज के साथ ही पूरा स्टेडियम गुलजार हो उठा। उन्होंने चहकती भीड़ के बीच फैज़ साहब की नज़्म गाने से पहले जनता से कहा ‘देखिये, हम तो फैज़ का कलाम गायेंगे, हो सकता है कि हमें गिरफ्तार किया जाए।
लेकिन हम जेल में भी फैज़ की नज़्म हुक्मरानों को सुनाएंगे। इस जादुई आवाज़ के सामने हजारों की भीड़ से अटा पड़ा पूरा स्टेडियम सन्न रह गया था। मानों यहां सुई गिरने की आवाज़ भी सुनाई नहीं दे रही हो, फिर अचानक तबले की धमक के साथ यह खामोशी ठूठी और शहनाई गूंज उठी।
इकबाल बानो ने इस माहौल के बीच नज़्म गाना शुरू किया – ‘हम देखेंगे, लाजिम है कि हम भी देखेंगे…’ यह फैज़ अहमद फैज़ की सबसे खूबसूरतों नज्मों में से एक थी। इस नज़्म में जैसे ही सब ताज उछाले जाएंगे सब तख़्त गिराए जाएंगे वाली वाली पंक्ति को पढ़ा गया तो भरी हुई भीड़ ने इतना शोर मचाया कि पूरा स्टेडियम गूंज उठा।
स्टेडियम में तालियों की गडगडाहट का इतना जबरदस्त शोर था कि लोगों का जज्बा देखकर पुलिस हिम्मत नहीं जुटा पाई और वो किसी को गिरफ्तार नहीं कर सकी। इकबाल बानो ने महफिल का समां बांधे रखा और लोग उनके साथ देते रहें।
इकबाल बानो से इस नज़्म को सुनने के बाद देश के युवाओं ने जिया-उल-हक की तानाशाही हुकूमत खिलाफ बगावती तेवर अपना लिए थे। इकबाल बानो ने जिया-उल-हक के फरमान के खिलाफ साड़ी पहनकर फैज़ की नज़्म ‘हम देखेंगे’ गाना गाकर पाकिस्तान की सियासत में भूचाल ला दिया था।
फैज़ की नज़्म ‘हम देखेंगे’ सुनने के लिए यहाँ क्लिक करें
फैज़ की नज़्म ‘हम देखेंगे’ को गाकर इकबाल बानो लोगों के जेहन में हमेशा के लिए कैद हो गई। उनकी इस आवाज में गाई गई ये नज्म फिर से हमेशा के लिए अमर हो उठी। साल 2009 में लाहौर में बानो का इंतेकाल हो गया, मगर उनकी गाई गई इस नज़्म की वजह से फैज़ साहब और खुद इकबाल बानो हमेशा के लिए जिंदा हो गए।.. अगर आप उस रिकॉर्डिंग को सुने तो आपको वो पचास हज़ार लोगों की तालियाँ और इंक़लाब जिंदाबाद के नारे सुनाई देंगे
फैज़ को हमेशा मौलानाओं और आलिमों ने गाली दी.. हमेशा इस्लाम के दुश्मन क़रार दिए गए वो..
आप भी मौलानाओं की राह पर ही हैं क्या ?