….. वैसे तो देहरादून किसी पहचान की मोहताज नहीं है। पर्यटन नगरी के साथ यहां कई ऐसे संस्थान हैं जो दून को देश और दुनिया में एक अलग पहचान दिलाते हैं । लेकिन मॉनसून सीजन के आते ही इसका एक स्याहा रूप भी नजर आने लगता है। शहर का लगभग हर चौराहा तालाब में तब्दील हो जाता है और सड़कें टूट कर नालियों में समा जाती हैं शुक्र है कि यह घाटी क्षेत्र है अन्यथा पूरा शहर ही जलमग्न नजर आता। अगर पूरे उत्तराखंड बात करें तो मॉनसून सीजन के दौरान पूरा प्रदेश ही आपदाग्रस्त हो जाता है । भूस्खलन के चलते कौन सी सड़क कब टूट जाये और कौन सा इलाका कब अपने मुख्यालय से कट जाये यह सब यहाँ आम बात है। 22 सालों से दुर्गम क्षेत्रों में रहने वाले लोग आज भी विकास की राह में राजधानी देहरादून की तरफ टकटकी लगाएं बेठें हैं।

आजकल पूरा आजादी की 75वीं वर्षगांठ के अमृत महोत्सव के रस में डूबा हुआ है, मगर आज भी उत्तराखंड में एक ऐसा क्षेत्र भी है जहां के लोग पूरे साल पानी के तेज बहाव का सामना करते हैं। मॉनसून में तो यहां जिंदगी और भी दुश्वार हो जाती है। न केवल गांव वालों को घर के किसी भी छोटे-मोटे काम के लिए नदी पार करके जाना होता है, बल्कि स्कूली बच्चे भी लोहे की एक छोटी सी ट्रॉली में जान खतरे में डालते हुए हर रोज नदी पार करते हैं। लेकिन जब बात राजधानी से महज 22 किलोमीटर दूर एक गांव की हो, तो ऐसे हालातों में आप क्या कहेंगे ?

भले ही राजधानी देहरादून में सत्ता की चमक-दमक प्रदेश की खुशहाली को लेकर सुखद अनुभव करवाती है और सचिवालय में बैठे आला अधिकारी प्रदेश के हर गांव में विकास के जो बड़े-बड़े दावे करते हैं वह सिर्फ कागजी बातें है। राज्य बनने के बाद प्रदेश में कितना विकास हुआ है, यह हकीकत बयां करने को राजधानी देहरादून से सिर्फ 22 किलोमीटर दूर बसा सौंदणा गांव ही काफी है। इस गांव में पहुंचने के लिए आज भी कोई सड़क तक नहीं है। नदी के किनारे से होकर ही आपको गांव तक पहुंचना होता है। यहां गांव के बीचों बीच से सौंग नदी बहती है। जिसका पानी बरसात में काफी बढ़ जाता है। लेकिन इन गांव वालों की किस्मत में इस नदी को पार करने के लिए कोई पुल भी नहीं है। आलम यह है कि स्कूली बच्चों को भी इस एकमात्र ट्रॉली के सहारे नदी पार करनी पड़ती है।

यहां के बच्चों को स्कूल जाने के लिए 12 किमी से ज्यादा सफर तय करना पड़ता है। सौंदणा, चिफल्डी, गवाली डांडा, तौलिया काटल गांव के बच्चे रगड़गांव के इंटर कॉलेज और द्वारा के इंटर कॉलेज में पढ़ने के लिए जाते हैं। गांव के बच्चों का कहना है कि ” साब बहुत दिक्कत होती है ! पहले तो कई किलोमीटर चल कर स्कूल से आते हैं, उसके बाद इस तरह से जद्दोजहद अपने गांव पहुँचने के लिए करनी पड़ती है। घर में कोई बीमार हो जाए तो उसको अस्पताल ले जाना भी बड़ा मुश्किल होता है उनका कहना है कि देश के आजाद होने के बाद हमारे क्षेत्र में सिर्फ डेढ़ लाख रुपए की ट्रॉली सरकार की ओर से लगाई गई। अगर कोई अकेला हो तो ट्रॉली खींचने वाला कोई नहीं होता जिसके चलते कई बार गांव के बच्चे जल्दी की वजह से नदी से होकर चले जाते हैं। लेकिन नदी का जलस्तर भी बढ़ता रहता है। कई बार नदी पार करना भी खतरे से कम नहीं होता। इसके लिए प्रशासन को जिम्मेदार है।”

असल में सरकार की सौंग नदी पर 1100 करोड़ की लागत से बांध बनाने की योजना है। जिसकी वजह से इस गांव का विस्थापन किया जाना है। इस ग्राम सभा में करीब 90 परिवार हैं, जिनकी आबादी 1200 के करीब है। आसपास के गांव मिलाकर करीब 175 परिवारों का यहां से विस्थापन होना है। इसी प्रस्तावित डैम की वजह से आज तक इस गांव में न तो सड़क नहीं बनी और ना ही कोई पुल। गांव वालों को सिर्फ झुनझुना दिया जाता है कि आपको कहीं और विस्थापित किया जाएगा।

इस योजना के बनने से देहरादून जनपद को 24 घंटे पीने का उपलब्ध होगा। धनौल्टी विधानसभा क्षेत्र के सौंदणा गांव में प्रस्तावित बांध परियोजना के तहत सौंग बांध क्षेत्र पर्यटन घाटी के तौर पर विकसित किया जाएगा। यह प्रस्तावित बांध 128 मीटर ऊंचा और साढ़े चार किलोमीटर लंबा होगा। इस योजना से रायपुर क्षेत्र तक ग्रेविटी के आधार पर पानी की आपूर्ति की जाएगी। इससे 100 करोड़ रुपये का बिजली खर्च बचेगा।

लेकिन सवाल तो यह है कि क्या भविष्य के सुनहरे सपने दिखा कर, वहां रह रहे लोगों की वर्तमान मूलभूत जरूरतों से महरूम रखा जा सकता है ? आखिर वह लोग कौन से जुर्म की सजा इस काले पानी के रूप में भुगत रहे हैं।

डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

आखिर कौन है उत्तराखंड का मूल निवासी ?

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