गैस और बिजली संकट के दौर में गांवों में आजकल गोबर गैस प्लांट लगाये जाने का प्रचलन चल पड़ा है। जबतक गोवंश है, तब तक हमें ये ऊर्जा मिलती रहेगी। एलपीजी गैस की बढ़ी कीमतों को देखते हुए ये प्लांट बहुत उपयोगी है। इसी के तहत गोशाला में एक गोबर गैस प्लांट बहुत उपयोगी है। इसी के तहत गोशाला में एक गोबर गैस प्लांट की स्थापना की है। जहां सभी को इसका प्रशिक्षण दिया जा रहा है। ये प्लांट बहुत सस्ता है, जिसके लिये आपको 200 लीटर के दो ड्रम और ट्रैक्टर की 5 ट्यूब की आवश्यकता पड़ती है। जिसमें आप केवल एक दिन में 15 किलो गोबर को टैंक में डालकर 1 घंटा सुबह और 1 घंटा शाम को बिजली जला सकते हैं। ये गैस वातावरण के लिए भी अनुकूल है। गोबर अमृत समान माना जाता था।इसी अमृत के कारण भारत-भूमि हजारों सालों से सोना उगलती आ रही है। गोबर फसलों के लिए बहुत उपयोगी कीटनाशक सिद्ध हुए हैं। कीटनाशक के रूप में गोबर और गौमूत्र के इस्तेमाल के लिए अनुसंधान केंद्र खोले जा सकते हैं, क्योंकि इनमें रासायनिक उर्वरकों के दुष्प्रभावों के बिना खेतिहर उत्पादन बढ़ाने की अपार क्षमता है। इसके बैक्टीरिया अन्य कई जटिल रोगों में भी फायदेमंद होते हैं। गौमूत्र अपने आस-पास के वातावरण को भी शुद्ध रखता है।
शहर की नदियों, नालों और नालियों में बह रहे डेयरी के गोबर की गंदगी से जनता को निजात दिलाने को नगर निगम ने ख्वाब तो दिखाया, लेकिन आठ साल बाद भी यह ख्वाब परवान नहीं चढ़ सका। लाखों रुपये खर्च कर डीपीआर भी बनाई और निगम से लेकर शासन तक लंबी-चौड़ी बैठकों के दौर भी चले, लेकिन फाइल टस से मस न हुई।शासन ने इसमें कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई और सितंबर-2014 में शुरू हुई यह कसरत केवल डीपीआर और बैठकों में ही खत्म हो गई। नगर निगम बोर्ड ने प्लांट के निर्माण के लिए मंजूरी दी और ओएनजीसी ने दस करोड़ रुपये देने का भरोसा भी दिया, मगर नतीजा सिफर ही रहा। सितंबर 2014 में नगर निगम ने शहर में डेयरियों से गोबर उठाकर इसे ब्राह्मणवाला में एक प्लाट में एकत्र कर वहां मेथेन-गैस ऊर्जा प्लांट लगाने के लिए कसरत शुरू की थी। बिजली बनाकर उसे बेचने की योजना बनाई गई। योजना को अपने दोनों हाथों में ‘लड्डू’ मानकर चल रहे निगम का मानना था कि एक तो वह गोबर उठाने का शुल्क डेयरियों से वसूलेगा, दूसरा बिजली बेचकर भी अलग कमाई होगी।
योजना के प्रस्ताव को तत्कालीन मुख्यमंत्री से सैद्धांतिक मंजूरी भी मिल गई थी। तत्कालीन महापौर विनोद चमोली ने 16 सितंबर 2014 को निगम का प्रस्ताव मंजूर कर डीपीआर बनाने के आदेश दिए। डीपीआर में प्रस्ताव दिया गया था कि 25 फीसद बजट शासन देगा, जबकि बाकी नगर निगम खुद प्रबंध करेगा। ओएनजीसी से भी वार्ता कर बजट की डिमांड रखी गई। दूसरी तरफ डेयरी संचालकों को मनाने का प्रयास आरंभ किया गया। डेयरी संचालकों को समझाया गया कि योजना के बाद कैसे वह हर माह हो रहे चालान से बच सकेंगे। शहर को भी गंदगी से निजात मिलेगी और सड़कों पर गोबर नहीं मिलेगा, न नालियों में बहाया जाएगा, मगर यह कसरत आठ साल बाद भी पूरी नहीं हो सकी। डेयरी से गोबर अनिवार्य तौर पर निगम को देना होगा।
ब्राह्मणवाला में नगर निगम की खाली पड़ी लगभग चार बीघा भूमि पर डेयरी के कचरे व गोबर को जमा कर उससे ऊर्जा गैस प्लांट लगाने के लिए नगर निगम बोर्ड स्वीकृति दे चुका है। पहले जो प्रस्ताव शासन को भेजा गया था, उसे संशोधित किया गया। पहले इसके लिए शासन को 25 फीसद बजट देना था पर नए प्रस्ताव में निगम ने खुद पूरा जिम्मा लेने की बात रखी। नालियों में बहाने के बजाए गोबर को कैरेट में भरकर रखा जाएगा और निगम की गाडिय़ां हर डेयरी से कैरेट उठा बंजारावाला प्लांट ले जाएंगी। संचालकों से यह भी कहा गया कि गोबर उठाने के लिए हर माह प्रति पशु निगम को तीन सौ रुपये देने होंगे। हालांकि, ज्यादातर संचालकों ने इस राशि को ज्यादा बताया था। निगम को गोबर के साथ उसे उठाने का शुल्क देने पर डेयरी संचालक हामी भरेंगे, यह बात महज मजाक लगती है। दरअसल डेयरी वाले गोबर को खाद के लिए बेचते हैं। ये दीगर बात है कि, बचा-कुछा गोबर नाली में बहाया जाता है। ऐसे में वे निगम को मुफ्त में गोबर देने के साथ ही उसका तीन सौ रुपये प्रति पशु शुल्क क्यों देंगे, ये जवाब निगम नहीं दे सका।ओएनजीसी दस करोड़ रुपये खर्च करने को राजी है। इस संबंध में मुख्यमंत्री से वार्ता कर जल्द डीपीआर को मंजूरी दिलाने का प्रयास किया जाएगा।’लेकिन इसके बावजूद उस घोषणा और संबंधित शासनादेश पर अमल नहीं हो पाया है।
ये लेखक के निजी विचार हैं ।
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला (दून विश्वविद्यालय )