डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
नेहरू पर्वतारोहण संस्थान (निम) द्रौपदी का डांडा (डीकेडी) क्षेत्र में वर्ष 1975 यानी 47 साल से पर्वतारोहण का प्रशिक्षण अभियान आयोजित करता आ रहा है। उत्तरकाशी से द्रौपदी का डांडा का यह क्षेत्र करीब 62 किमी दूर है। इस चोटी की तलहटी में जिला मुख्यालय उत्तरकाशी का सबसे निकटवर्ती डोकराणी बामक ग्लेशियर पड़ता है। चारधाम विकास परिषद के पूर्व उपाध्यक्ष मान्यताओं के हवाले से बताते हैं कि स्वर्गारोहणी यात्रा के दौरान पांडव इसी क्षेत्र से होकर आगे बढ़े थे। पूरा हिमालयी क्षेत्र नजर आने से इस पर्वत का नाम द्रौपदी का डांडा रखा गया। निम ने जबसे इस शिखर पर पर्वतारोहण का प्रशिक्षण देना शुरू किया, इसका नाम संक्षेप में डीकेडी कर दिया। आज भी भटवाड़ी क्षेत्र के ग्रामीण इस पर्वत की पूजा करते हैं। वह इसकी तलहाटी में स्थित खेड़ाताल को नाग देवता का ताल मानते हैं। हर वर्ष सावन में ग्रामीण इस ताल में पूजा-अर्चना के लिए जाते हैं।
नेहरू पर्वतारोहण संस्थान के एडवांस पर्वतारोहण प्रशिक्षण दल के मंगलवार को हिमस्खलन की चपेट में आने से दो प्रशिक्षक और 27 प्रशिक्षु पर्वतारोही लापता हो गए थे। अब इनके जीवित होने की उम्मीद न्यून है। इस प्रशिक्षण के दौरान हुई लापरवाही पर कई सवाल उठ रहे हैं, जिनके जवाब अभी अनुतरित हैं। पर्वतारोहण के प्रशिक्षण में किसी चोटी का आरोहण नहीं, बल्कि केवल हाइट गेन करना मुख्य लक्ष्य होता है। इसी में कदम-कदम पर लापरवाही हुई है। यहां तक कि खोज-बचाव और सही सूचना जारी करने में भी निम की ओर से लापरवाही बरती गई। निम में बेसिक और एडवांस पर्वतारोहण प्रशिक्षण के दौरान सुरक्षा को लेकर खास सावधानियां बरतनी होती हैं। सुरक्षा को लेकर किसी तरह का जोखिम नहीं लिया जाता। एडवांस कोर्स के प्रशिक्षुओं को जब हाइट गेन और आरोहण कराया जाता है, तब मुख्य प्रशिक्षक एक दिन पहले ही ट्रैक पर रस्सी बांध देते हैं और ट्रैक की रेकी भी करते हैं। ताकि किसी तरह का खतरा न हो। इसमें लापरवाही का अंदेशा है।
एडवांस पर्वतारोहण प्रशिक्षण के इस अभियान में लापता हुए प्रशिक्षुओं की संख्या को लेकर विरोधाभास की स्थिति बनी हुई है। गुरुवार दोपहर जब प्रशिक्षुओं के पांच शव बरामद हुए तो जिलाधिकारी ने मीडियाकर्मियों को बताया कि 22 अभी लापता हैं। जबकि, निम के अधिकारियों ने बुधवार को मुख्यमंत्री को बताया था कि 27 प्रशिक्षु लापता हैं और दो प्रशिक्षकों सहित चार व्यक्तियों के शव बरामद हुए हैं। ऐसे में लापता और मृतकों की संख्या 31 हो रही थी, लेकिन निम ने गुरुवार को लापता होने वालों का आंकड़ा ही बदल दिया और मृतक व लापता व्यक्तियों की कुल संख्या 29 बताई।
निम दावा करता है कि सर्च एंड रेस्क्यू कोर्स कराने वाला वह एशिया का इकलौता संस्थान है। लेकिन, मंगलवार सुबह जब दो प्रशिक्षक और 27 प्रशिक्षु हिमस्खलन में दबे तो रेस्क्यू करने के लिए वायु सेना, सेना, एनडीआरएफ, आइटीबीपी और हाई एल्टीट्यूड वारफेयर स्कूल गुलमर्ग से मदद मांगी गई। इसके साथ ही निम को संसाधनों की कमी भी झेलनी पड़ी।
द्रौपदी का डांडा क्षेत्र में 23 सितंबर से बेसिक पर्वतारोहण प्रशिक्षण और एडवांस पर्वतारोहण प्रशिक्षण शुरू हुआ। लेकिन, निम का अधिकांश स्टाफ आचार्य बालकृष्ण के अन्वेषण अभियान में व्यस्त रहा। प्रशिक्षण कोर्स में जिम्मेदार अधिकारी की कमी रही और वरिष्ठ अधिकारी के नाम पर बेस कैंप में केवल चिकित्सा अधिकारी ही मौजूद थे। घटना के दिन निम के प्रधानाचार्य भी किसी कार्यक्रम के सिलसिले में पुणे (महाराष्ट्र) गए हुए थे। निम के मुख्य प्रशिक्षक भी बेस कैंप व एडवांस कैंप में नहीं थे।
निम के अनुभवी प्रशिक्षक और जिम्मेदार अधिकारी इस बात को बखूबी जानते हैं कि उच्च हिमालयी क्षेत्र बेहद संवेदनशील है। बावजूद इसके आरोहण के लिए 42-सदस्यीय दल का एक साथ प्रशिक्षण को ले जाने पर भी कई सवाल उठे रहे हैं। अगर ये प्रशिक्षु अलग-अलग टीम बनाकर आरोहण करते तो इतनी बड़ी घटना नहीं होती। प्रशिक्षुओं को एक साथ लेकर जाने का निर्णय किसका था, इस पर प्रश्न उठना लाजिमी है।
जिला प्रशासन खोज-बचाव व लापता प्रशिक्षुओं की जानकारी के लिए पूरी तरह से निम पर निर्भर है। प्रशासन को भी निम से कोई स्पष्ट जानकारी नहीं मिल सकी, जिस कारण लापता हुए प्रशिक्षुओं के स्वजन भी खासे परेशान रहे।
उत्तराखंड के उत्तरकाशी में हुए हिमस्खलन कई जिंदगियां अभी भी बर्फ में दबी हुई हैं. एनआईएम द्वारा जारी सूची के अनुसार, प्रशिक्षु पश्चिम बंगाल, दिल्ली, तेलंगाना, तमिलनाडु, कर्नाटक, असम, हरियाणा, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश से हैं। इस घटना को 5 दिन हो चुके हैं लेकिन अब तक रेस्क्यू ऑपरेशन पूरा नहीं हुआ है।एसईओसी ने कहा कि इस दल को बहुत ऊंचाई पर बचाव अभियान चलाने में विशेषज्ञता हासिल है और यह दल राज्य आपदा मोचन बल (एसडीआरएफ), भारत-तिब्बत सीमा पुलिस (आईटीबीपी) और एनआईएम के पर्वतारोहितयों के साथ मिलकर लापता पर्वतारोहियों की तलाश के काम में मदद करेगा। उत्तराखंड में त्रासदियों के इतिहास पर नज़र डालें तो लगेगा जैसे वर्तमान समाज का एक छोटा वर्ग अपने काम से और बड़ा वर्ग अपनी चुप्पी से विनाश की लीला को बार-बार दोहराने के लिए मज़बूर है।
लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय कार्यरतहैं।