पूर्व भाग को पड़ने के लिए यहाँ क्लिक करें

आइये मानव समाजों की आज की प्रवृत्तियों से मानव सभ्यता के विकास की अवधारणा बनाने का प्रयास करते हैं…जैसा की पिछले अंक में एक सिद्धांत की बात की थी कि: present is the key of past….
मेरा गाँव देवस्थान, जिला चमोली उत्तराखंड के नागनाथ पोखरी ब्लॉक तथा तहसील में पड़ता है..मेरे गाँव के पड़ोस में देवर गाँव है..वहाँ अन्य के अलावा कुछ लोहार जाति के लोग भी रहते हैं. इन लोहार जाति के परिवारों का इष्ट देवता है मुंडा (संभवतः मध्य भारत के मुंडा आदिवासियों के नायक बीरसा मुंडा).हालांकि वे अपने इस इष्ट को मुसलमान देवता कहते हैं..वे इसका बाकायदा जागर लगाते हैं और यह देवता किसी व्यक्ति विशेष पर अवतरित होता है..इसके साथ एक सह-देवता भी आता है जिसको लोचडी कहते हैं..लोचडी भैंसा के खून का पान करता है…हमारे देखते देखते तक जब भैंसा की बलि दी जाती थी तो लोचडी जिस व्यक्ति पर अवतरित होती थी वह सीधे भैंसे का खून पीता था…यह लोक उत्तराखंड में अन्यत्र किसी गाँव में शायद नहीं पूजा जाता..
चौंकिए नहीं हम पहाड़ियों में इष्ट देवता के तौर पर कई मुस्लिम नायकों को पूजे जाने की प्रथा है. सय्यद को हमारे यहां सैद के नाम से पूजा जाता है..और बाकायदा सैद का जागर भी लगता है और वह पुरुष विशेष पर अवतरित भी होता है.
हमारे ही पोखरी में कुछ धौंसिया जाति के परिवार हैं..इनका इष्ट देव है गोरील। शायद पिथौरागढ़ के किसी क्षेत्र विशेष में राज करने वाले गोरील नाम का राजा।।
पहाड़ के हर इलाके में अभी कुछ साल पहले तक अष्टबलि की प्रथा आम थी.

एक और दिलचस्प जानकारी देता हूँ : रुद्रप्रयाग जिले के अगस्त्यमुनि विकासखंड में एक गाँव है डांगी। यह गाँव मुसलामानों का है. बात शायद 1992 अथवा 1993 की होगी। भाजपा के एक तत्कालीन बड़े नेता श्री केदार सिंह फोनिया डाँगी गाँव में चुनाव प्रचार के लिए भ्रमण पर थे. वे यह देख कर हतप्रभ रह गए कि वहाँ किसी मुसलमान परिवार में ऐड़ी (जोकि हम पहाड़ियों की लोकल देवी होती है: वस्तुतः वह वन देवी मानी जाती है) का जागर लग रहा था और रईस आलम की पत्नी रेशमा बानो पर ऐड़ी अवतरित हुई थी…….
पहाड़ में नृसिंह को लोक देवता के रूप में पूजा जाता है..मेरे जिले चमोली में नृसिंह को दूधाधारी के रूप में विष्णु का अवतार के रूप में पूजा और नचाया जाता है जो सात्विक पूजा के रूप में ही पूजा जाता है, और नृसिंह के साथ अंग रक्षक याने की वीर के रूप में भैरव स्थापित रहते हैं.
वहीँ पौड़ी और शायद टेहरी में भी नृसिंह को नागराजा के वीर के रूप में माना जाता है और उसकी पूजा में पशु बलि दी जाती है जो की चमोली में भैरव को प्रदान की जाती है..पौड़ी में विष्णु अथवा श्रीकृष्ण के अवतार के रूप में नागराजा को पूजने की प्रथा है..
उत्तराखंड में अधिकाँश देवी के मंदिर लोक कथाओं के अनुसार स्थानीय नायिकाओं के मृत्युपरांत देवी अवतार के रूप में स्थापित किये गए हैं…तब चाहे वो धारी देवी है हो या हिमालय की अधिष्ठात्री नंदा।।।वाण गाँव में देवी नंदा के मुँह बोले भाई लाटू का मंदिर है..लाटू मतलब बहुत ही सीधा सादा व्यक्ति। देवी के दो भाइयों का भी जिक्र आता है जिनका नाम द्योसिंघ और भौसिंघ है. बल्कि नैनीताल में में तो नंदा- सुनंदा दो बहिनों की पूजा होती है नन्दाष्टमी के दिन..
उत्तराखंड के यमुना घाटी में दुर्योधन की पूजा की जाती है और हिमाचल के लाहौल जिले में सीता को रावण की बेटी माना जाता है…वहाँ राम रावण युद्ध का कारण राम द्वारा रावण की पुत्री से व्याह करना बताया जाता है..
आप उत्तरपूर्व के प्रांतों में चले जाइये, ईसाइयत के प्रभाव में उन्होंने क्रिस्चियनिटी को अपना लिया परन्तु उनके अपने स्थानीय इष्टो को पूजने का सिलसिला बदस्तूर जारी है..हाँ समय के साथ तेजी से वे मैं स्ट्रीम क्रिस्चियनिटी की तरफ तेजी से बढ़ रहे हैं…
पूरे विश्व में प्रभावशाली संस्कृतियों ने अन्य संस्कृतियों को अपनी तरफ लामबंद किया है..ईसाइयत इसमें सबसे आगे रही है..उसके बाद इस्लाम और बुद्धिज़्म का नम्बेर आता है…
हिन्दुइस्म की कहानी दूसरी है….यह अन्य क्षेत्रों में अपना प्रभाव तो नहीं बना पाया। .परन्तु अपने ही मानने वालों को मुख्यधारा में लाने के नाम पर उनकी सांस्कृतिक विशिष्टता को तेजी से विलुप्त कर रहा है. …यह देखना बड़ा दिलचस्प है कि विश्व के सर्वाधिक सांस्कृतिक विविधता वाले देश में किसी दू सरे से कहीं अधिक उसके खुदके क्षत्रप संस्कृति ने समुदायों की विविधता को निगल लिया।।
उपरोक्त तमाम उदाहरणों के साथ मानव सभ्यता के विकास के लिए इस प्रबृत्ति पर चर्चा अगले अंक में…..जारी,,,