‘या तो किसी की जरूरत बनो, या मुसीबत’
दिल्ली को हमेशा ‘मिनी उत्तराखंड’ कहा जाता रहा है। पहाड़ और दिल्ली के रिश्ते नये नहीं हैं। बहुत पुराने हैं। पहाड़ के नजदीक होने की वजह से शायद सबसे ज्यादा लोगों की बसासत यहीं हुई। हमारे पुरखे देश के अन्य हिस्सों में भी बहुत पहले से रहते आये हैं। आजादी से पहले तो हमारा बड़ा ठिकाना क्वेटा और लाहौर रहा। यहीं 1919 में गढ़वाल सभा की स्थापना हुई। बाद में 1923 में गढ़वाल हितैषिणी सभा का गठन दिल्ली में हुआ, जिसने हमें संगठनात्मक समझ दी। सामाजिक-सांस्कृतिक रूप से एक साथ चलने का दर्शन भी दिया। ‘कुमाऊं परिषद’ का गठन भी 1916 में हो गया था। इसने पहाड़ के अलावा लखनऊ को अपनी कर्मभूमि बनाया। आजादी की लड़ाई में इस संगठन का महत्वपूर्ण योगदान रहा। हमारे बहुत सारे लोग लाहौर में पढ़ने गये बाद में वहां नौकरी भी करने लगे। पूर्वोत्तर से लेकर रंगून और सिंगापुर में तक उत्तराखंड के बहुत पुराने परिवार रहते रहे हैं। इन जगहों पर पहाड़ के लोगों की पुरानी कालोनियां तक हैं (इस पर पूरा विवरण मेरी आने वाली पुस्तक में)। हमारे पत्रकार मित्र प्रेम पुनेठा ने इस पर एक कहानी लिखी है- ‘पाकिस्तान की चिट्ठी।’ इस कहानी को सब लोगों को पढ़ना चाहिये। बनारस, इलाहाबाद और लखनऊ तो हमारे ठिकाने थे ही, देश के कई शहर यहां तक कि दक्षिण में भी कई शहरों में पहाड़ की पुरानी पीढ़ियां रहती आई हैं। यहां रहकर उन्होंने अपनी थाती के बचाने और नये समाजों के साथ संवाद का रास्ता तैयार किया। अपनी ईमानदारी, कर्मठता और बौद्धिकता से लोगों को प्रभावित कर नई जगहों पर अपने लिये सम्मानजनक स्थान बनाया। सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्रों में प्रभावी हस्तक्षेप भी करते रहे हैं। आज देश के विभिन्न हिस्सों के अलावा दुनिया के कई देशों में बड़ी संख्या में पहाड़ के लोग न केवल रह रहे हैं, बल्कि उन्होंने वहीं अपने घर भी बना लिये हैं। देश में ही नहीं विदेशों में भी उन्होंने वहां की राजनीतिक पार्टियों में अपना मुकाम बनाया है।
प्रसंगवश दिल्ली में आसन्न विधानसभा चुनाव में इस पूरी इतिहास यात्रा का जिक्र आना स्वाभाविक है। ऐसे समय में जब राजधानी दिल्ली में रहने वाले उत्तराखंड के लोगों की शिकायत है कि उन्हें कोई भी राजनीतिक पार्टी इस लायक नहीं समझती कि उन्हें टिकट दिया जाये। उनका दावा है कि वे बड़ी संख्या में यहां रहते हैं इसलिये पहाड़ के लोगों का उनकी संख्या के अनुपात में टिकट दिया जाना चाहिये। हो सकता है कुछ हद तक यह बात सही भी हो, लेकिन यह बात राजनीतिक गुणा-भाग में न तो व्यावहारिक है और न राजनीतिक पार्टियों की जरूरत। इसे भावनात्मक नहीं, बल्कि राजनीतिक परिपक्वता और सही समझ के साथ उठाया जाना चाहिये। कोई भी राजनीतिक पार्टी किसी क्षेत्र विशेष के आधार पर किसी को टिकट नहीं देती। हां, उस क्षेत्र विशेष के महत्व को अपने तरीके से परिभाषित जरूर करती है। उसकी अहमियत को बहुत तरीके से राजनीति में परिवर्तित भी करती है। यह भी ठीक है कि दिल्ली में उत्तराखंड और पूरब के वोटर का न केवल महत्व है, बल्कि यह निर्णायक भी होता है। लेकिन यह कभी नहीं हुआ कि पार्टियां इसी आधार पर टिकट का बंटवारा करती हों। इस विधानसभा चुनाव में भी लगभग यह तय है कि उत्तराखंड के नाम पर लोगों को टिकट नहीं मिलेंगे। अभी सिर्फ ‘आम आदमी पार्टी’ ने अपने प्रत्याशियों की घोषणा की है। इसमें किसी भी उत्तराखंडी का नाम शामिल नहीं है। भाजपा और कांग्रेस भी हो सकता है एक-दो को टिकट दे, लेकिन इसकी संभावना भी कम ही है।
दिल्ली में नगर निगम से लेकर लोकसभा के चुनाव में उत्तराखंड के लोग अपने लिये टिकट मांगते रहे हैं। उनका तर्क भी बड़ा मजेदार होता है। वह कहते हैं कि किसी भी पहाड़ी को टिकट मिले वे उसका समर्थन करेंगे। ये वे लोग होते हैं, जो किसी न किसी पार्टी के पदाधिकारी होते हैं। उनके पास इस बात का कभी जबाव नहीं होता कि अगर भाजपा, कांग्रेस और आप ने एक ही सीट से पहाड़ी प्रत्याशी उठा दिये तो वह किसका समर्थन करेगें? उनके पास इस बात का जबाव भी नहीं होता है कि जब कई सीटों से अलग-अलग पार्टियां उत्तराखंड के प्रत्याशियों को उतारती हैं तो क्या उनके नेता हर दिन, हर सीट पर दूसरी पार्टी के उत्तराखंड के प्रत्याशी के समर्थन में जायेंगे? यह बात भी चैंकाने वाली है कि इस तरह की मांग हर पार्टी का पदाधिकारी करता है। जब उससे पूछा जाता है कि फलां सीट से आपकी विपक्षी पार्टी के प्रत्याशी को उतार दिया तो क्या आप उसके समर्थन में वोट मागंगें? तो वह बगलें झांकने लगता है। पिछले सालों से कुछ संगठनों से यही मुहिम चलाई है कि हर पार्टी पहाड़ के लोगों को टिकट दे। यह मांग बिल्कुल गैर राजनीतिक और अव्यावहारिक है। होना यह चाहिये कि विभिन्न राजनीतिक दलों में काम करने वाले कार्यकर्ता अपनी पार्टियों के अंदर अपने को मजबूत करें। यह भी समझना चाहिये कि राजनीतिक बातें गैर-राजनीतिक तरीके से नहीं की जाती। उत्तराखंड के लोगों की एकता का एक ही आधार है, वह है सांस्कृतिक। वह राजनीतिक हो ही नहीं सकता। उत्तराखंड में भी जो लोग रहते हैं वे भी किसी न किसी राजनीतिक पार्टी से संबद्ध होते हैं। दिल्ली में भी स्वाभाविक तौर पर हर आदमी अपनी विचारधारा की पार्टी से संबद्ध है। इसलिये उसे पहाड़ी एकता के साथ जोड़ना नासमझी है। यह बात भी बहुत गैर-जिम्मेदारना है कि कोई भी पहाड़ी किसी भी पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ेगा तो हम उसका समर्थन करेंगे। यह बहुत अलोकतांत्रिक है। हास्यास्पद भी। ताज्जुब की बात है कि इस तरह की बातें वे लोग करते हैं जो किसी पार्टी से टिकट भी मांग रहे होते हैं।
दिल्ली में पहाड़ के लोगों को टिकट दिये जाने की मांग को समझने के लिये कुछ पीछे जाना बहुत जरूरी है। यह कहना ठीक नहीं है कि दिल्ली की राजनीति में पहाड़ के लोगों की उपेक्षा होती है। आजादी के बाद से ही यहां पहाड़ के लोग राजनीति में सक्रिय थे और जिन लोगों ने अपनी पार्टियों में राजनीतिक रूप से अपने को मजबूत किया वे नेतृत्वकारी पंक्ति में भी आये। दिल्ली के पहले शिक्षा पार्षद अर्थात शिक्षा मंत्री कुलानंद भारतीय रहे। कुलानंद भारतीय कई बार दिल्ली महानगरपालिका और नगर निगम के लिये चुने जाते रहे। वे ऐसे क्षेत्र शक्तिनगर से चुनाव लड़ते थे जहां पहाड़ का वोट नाममात्र का था। वे दिल्ली नगर निगम के प्रमुख नेताओं में शामिल रहे। डाॅ. खुशालमणि घिल्डियाल पांच बार साउथ दिल्ली के सेवानगर से पार्षद रहे। गूर्जर बाहुल्य इस सीट पर भी पहाड़ी वोट नाममात्र का है। जगदीश ममगाईं दिल्ली के ऐसे क्षेत्र से दो बार चुनाव जीते और नगर निगम में नेता प्रतिपक्ष रहे जहां पहाड़ी वोट नहीं था। हरीश अवस्थी रिठाला सीट से चुनाव जीते जहां बड़ी संख्या में गैर पहाड़ी मतदाता है। अभी पूर्वी दिल्ली की महापौर रही नीमा भगत दो बार गीता कालोनी से जीतीं, वहां सबसे ज्यादा वोट पंजाबी है। पार्टियों ने इन जगहों से भी पहाड़ी लोगों को टिकट दिया। इसकी वजह साफ थी ये सभी नेता पार्टियों के अंदर अपने को मजबूती के साथ खड़ा करने में कामयाब रहे। इस तरह के बहुत से पहाड़ के लोगों को पार्टियां समय-समय पर टिकट देती रही हैं। इनमें उप महापौर रही उषा शास्त्री, सत्या जोशी, लीला बिष्ट, सरला परिहार, दीप्ति जोशी, तुलसी जोशी, वीर सिंह पंवार, कस्तूबानंद बलोदी, दमयंती रावत, गीता रावत, गीता बिष्ट आदि प्रमुख हैं, जिन्हें पार्टियों ने टिकट भी दिया और ये जीते भी। इनके अलावा अनीता भट्ट, इंदु गुसाईं, निशांत रौथाण, कुलदीप भंडारी, भगवत नेगी आदि हैं जिन्हें अलग-अलग पार्टियों ने अलग-अलग समयों पर टिकट दिये हैं।
दिल्ली की विधानसभा में भी जिन पहाड़ के नेताओं ने अपनी प्रभावी उपस्थिति दर्ज कराई उन्हें भी पार्टियों ने टिकट दिये हैं, उनमें कई जीते भी। इनमें भाजपा के मोहन सिंह बिष्ट करावलनगर से चार बार विधायक रहे। मुरारी सिंह पंवार पटपडगंज विधानसभा से भाजपा के टिकट पर चुनाव जीते। भाजपा ने वीरेन्द्र जुयाल को भी टिकट दिया था। कांग्रेस ने दिवान सिंह नयाल को दो बार और कांग्रेस ने पुष्कर सिंह रावत और कांग्रेस से आशुतोष उप्रेती को भी विधानसभा के टिकट दिये। प्रहलाद गुसाईं ने भी जनता दल के टिकट पर चुनाव लड़ा। पिछले दो विधानसभा चुनावों में क्रमशः आम आदमी पार्टी ने हरीश अवस्थी और कांग्रेस ने लीलाधर भट्ट को चुनाव मैदान में उतारा। इतना ही नहीं लोकसभा चुनाव में नई दिल्ली से केसी पंत कांग्रेस के टिकट पर लोकसभा का चुनाव जीते। बहादुर राम टम्टा 1996 में तिवारी कांग्रेस से करोलबाग से चुनाव लडे। तिवारी कांग्रेस से मदन सिंह बिष्ट ने लोकसभा का चुनाव लड़ा। दिल्ली में पहाड़ की राजनीति को समझना हो तो और आगे भी जाया जा सकता है। दिल्ली छात्र संघ के चुनाव में 1985 में मदन सिंह बिष्ट ने अध्यक्ष पद पर जीत दर्ज की थी। देवीसिंह रावत दयाल सिंह कालेज, सुनील नेगी मोतीलाल कालेज और सतीश थपलियाल पीजी डीएवी कालेज के छात्र संघ अध्यक्ष रहे। बाद में दीप्ति रावत दिल्ली छात्र संघ की महासचिव रही हैं। ये सभी पहाड़ी राजनीतिक कार्यकर्ताओं को लोगों ने पहाड़ के नाम पर नहीं, बल्कि उनकी अपनी-अपनी पार्टियों और जनता के सवालों को जानने-समझने की क्षमता के आधार पर चुना है। पार्टियों ने उन्हें टिकट भी उनकी राजनीतिक संभावनाओं को देखते हुये दिये हैं।
अगर दिल्ली विधानसभा चुनाव के आलोक में इसे और गहराई से समझना हो तो हम इसे आजादी से पहले से जोड़कर देख सकते हैं। आजादी के दौर में भी और उसके बाद भी। अगर हम बहुत ईमानदारी से विश्लेषण करेंगे तो पायेंगे कि हमारे बहुत सारे राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने अपनी राजनीतिक सक्रियता से पहाड़ से बाहर अपना राजनीतिक मुकाम बनाया है। आजादी से पहले हमारे लोगों का ठिकाना इलाहाबाद और बनारस में रहा है। वहां उत्तराखंड के बहुत सारे प्रतिभाशाली छात्रों ने अपना परचम लहराया। वे यहां छात्र-युवा चेतना के वाहक बने (मेरी आने वाली पुस्तक में विस्तार से)। बाद में हेमवतीनन्दन बहुगुणा, नारायणदत्त तिवारी और मदनमोहन उपाध्याय इलाहाबाद छात्र संघ के अध्यक्ष रहे। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में 1956 में विद्यासागर नौटियाल छात्र संघ के अध्यक्ष रहे। इन सब लोगों ने बहुत तरीके से अपनी-अपनी पार्टियों में अपने को स्थापित किया। अपनी एक राजनीतिक पहचान बनाई। हेमवतीनन्दन बहुगुणा जी 1952 से लेकर 1969 और 1974 से 1977 तक विधानसभा के सदस्य रहे। वे 1971, 1977 और 1980 में लोकसभा के सांसद रहे। उनका लगभग पूरा राजनीतिक जीवन पहाड़ से बाहर की राजनीति में बीता। वहीं विकसित हुआ। नारायण दत्त तिवारी और मदनमोहन उपाध्याय और विद्यासागर नौटियाल भी गैर पहाड़ी समाज से ही उभरे। उन्हें कभी इस बात पर उपेक्षित नहीं किया गया कि ये पहाड़ी हैं। कामरेड पीसी जोशी जो अविभाजित कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव रहे, वे इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं। डाॅ. मुरली मनोहर जोशी की पूरी राजनीति इलाहाबाद की रही है। वे सिर्फ एक बार 1977 में ही अल्मोड़ा लोकसभा सीट से सांसद रहे। उत्तर प्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की राजनीति भी गोरखपुर की है। रीता बहुगुणा जोशी की पूरी राजनीति इलाहाबाद और लखनऊ में है। मध्य प्रदेश की विधानसभा में भाजपा के रमेश मेंदोला दो बार के विधायक हैं। चंडीगढ़ में पार्षद हीरा नेगी, शक्ति प्रसाद देवसाली और गुरबख्श सिंह रावत पार्षद हैं। पंचकूला से रमेश बत्र्वाल पार्षद रहे हैं। गाजियाबाद मे मीना भंडारी और अनिल राणा पार्षद हैं। राजस्थान के हनुमानगढ में हेम ओली पार्षद हैं। और जगहों पर भी होंगे। विदेशों में भी पहाड़ी मूल के कई लोग पहले से ही राजनीति में हैं। पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री लियाकत अली की पत्नी आइरीन पंत पाकिस्तान में कई महत्वपूर्ण पदों पर रही। कई देशों की राजनयिक भी। अभी दुनिया में उत्तराखंड मूल के कई लोग राजनीति में अपना मुकाम बना रहे हैं। इनमें सुप्रसिद्ध साहित्यकार हिमांशु जोशी के पुत्र अमित जोशी लंबे समय से नार्वे के ओस्लो के नगर पार्षद रहे हैं। अभी कनाडा के बेरामंटन वेस्ट से उत्तराखंड मूल के मुरारीलाल थपलियाल ने चुनाव लड़ा है।
प्रसंगवश, दिल्ली में हो रहे विधानसभा चुनाव के आलोक में यह समझा जाना जरूरी है कि राजनीति में अपने को बनाये रखने या उसमें प्रभावी हस्तक्षेप के लिये हमें इस विचार से बाहर आना होगा कि हमें पहाड़ी होने के नाते कोई टिकट दे। हमारी आबादी के हिसाब से टिकट दे। होना यह चाहिये कि तमाम राजनीतिक कार्यकर्ता अपने को अपनी राजनीतिक विचारधारा के अनुरूप इस तरह स्थापित करें कि उन्हें उनकी पार्टियां इस तरह से देखें कि जिस कार्यकर्ता को वह टिकट दे रहे हैं उसका अपने समाज या राजनीति में कोई असर भी है। राजनीति में दो ही रास्ते होते है- ‘या तो आप किसी की जरूरत बन जाओ, या किसी के लिये मुसीबत।’ अगर इन दोनों में से हम नहीं हैं तो हमारा मूल्यांकन भी उसी तरह से होगा।
लोकतंत्र में अपने लिये टिकट मांगना और राजनीतिक महत्वाकांक्षा का होना गलत नहीं है। यह होनी ही चाहिये। उसमें कई बार क्षेत्र और जनसंख्या की बात भी समाहित हो जाती है। वह भी राजनीति का एक गणित है। यह भी ठीक है कि भारत में जितनी भी राजनीतिक पार्टियां हैं वे इन सब बातों पर भी ध्यान देती हैं। लेकिन मूल बात यही है कि हम राजनीतिक बातों को गैर-राजनीतिक तरीके से सोचना बंद करें। हम अगर इस दिशा में सोच सकें तो शायद ज्यादा सार्थक बात हो सकती है। पहाड़ के लोगों के लिये भी राजनीति की सही दिशा के लिये भी। शेष पहाड़ तो इतना विशाल है कि वह किसी की दया पर तो टिका नहीं है। वह टिका रहेगा अपने वजूद पर। वह जितना ऊंचा है, उतना ही गहरा भी है। उसके लिये मैदान, समुद्र और रेगिस्तान सब समान हैं। इसलिये अपनी जगह पहाड़ सी बनाइये, राजनीतिक दलों में भी।
साभार वरिष्ठ रचनाकार- चारु तिवारी