मानो न मानो मगर यह सच है, देश को आजादी में अपना सर्वस्व कुर्बान करने वाले वीर चंद्र सिंह गढ़वाली के परिजन आज किस हालत में हैं जानिए इस लेख में

चंद्र सिंह गढ़वाली(#Chandra Singh Garhwali) का मूल नाम चंद्र सिंह भंडारी था। उन्होंने बाद में अपने नाम से गढ़वाली जोड़ा था। उनका जन्म 25 दिसंबर 1891 को पौड़ी गढ़वाल जिले की पट्टी चौथन के गांव रोनशेहरा के किसान परिवार में हुआ था। वीर चन्द्र सिंह के पूर्वज चौहान वंश के थे, जो मुरादाबाद में रहते थे लेकिन काफी समय पहले ही वह गढ़वाल की राजधानी चांदपुरगढ़ में आकर बस गये थे और यहां के थोकदारों की सेवा करने लगे थे।

माता-पिता की इच्छा के विपरीत वह 1914 में प्रथम विश्व युद्ध के दौरान लैंसडाउन में गढ़वाल राइफल्स में भ​र्ती हुए। भारतीय सेना के साथ उन्होंने 1915 में मित्र देशों की तरफ से प्रथम विश्व युद्ध में भी हिस्सा लिया प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ही 1917 में चन्द्र सिंह ने अंग्रेजों की ओर से मेसोपोटामिया के युद्ध में भाग लिया। जिसमें अंग्रेजों की जीत हुई थी। 1918 में बगदाद की लड़ाई में भी हिस्सा लिया। प्रथम विश्व युद्ध समाप्त हो जाने के बाद अंग्रेजों ने कई सैनिकों को निकाला और कइयों का पद कम कर दिया। चन्द्र सिंह को हवलदार से सैनिक बना दिया गया था। जिस कारण इन्होंने सेना को छोड़ने का मन बना लिया।इसी दौरान चन्द्र सिंह महात्मा गांधी के सम्पर्क में आये। बटालियन समेत 1920 में बजीरिस्तान भेजा गया। 1930 को वीर चंद्र सिंह को पेशावर भेज दिया गया। 23 अप्रैल 1930 को दुनिया से वीर चंद्र सिंह की असल पहचान हुई। 1930 में चन्द्र सिंह गढ़वाली को 14 साल के कारावास के लिये ऐबटाबाद की जेल में भेज दिया गया। 11 साल के कारावास के बाद इन्हें 26 सितम्बर 1941 को आजाद कर दिया।

23 अप्रैल 1930 का दिन भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौर का ऐतिहासिक दिन रहा है। पेशावर में अंग्रेजी हकूमत के खिलाफ देश की गढ़वाल रेंजीमेंट की बगावत ने अंग्रेजी हुकूमत की चूलें हिलाकर रख दीं। उनकी बगावत हिन्दू-मुस्लिम एकता की अदभुत मिशाल है। अंग्रेजों ने पेशावर में गढ़वाल रेजीमेंट को यह सोचकर तैनात किया था कि हिन्दू सैनिक पेशावर के मुसलमान आंदोलनकारियों पर गोली चलाने में जरा भी नहीं हिचकेंगे, पर ऐसा हुआ नहीं। उस दिन देश के पेशावर शहर में (जो कि अब पाकिस्तान में है) विदेशी कपड़ों व मालों के विरोध में खान अब्दुल गफ्फार खां के नेतृत्व में पठानों का जुलूस व सभा थी। अंग्रेजी हुकूमत इस आंदोलन को कुचलना चाहती थी। इसके लिए उन्होंने गढ़वाल रेंजीमेंट की बटालियनें तैनात की, जिसका नेतृत्व चन्द्र सिंह गढ़वाली कर रहे थे। कैप्टन रिकेट ने गढ़वाली को गोली चलने का आदेश दिया मगर गढ़वाल रेजीमेंट के सैनिक तो कुछ और ही सोचकर आए थे। गढ़वाल रेजीमेंट के सेनानायक वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली ने अपने सैनिकों से कहा- गढ़वाली सीज फायर। उन्होंने कहा कि हम निहत्थों पर गोली नहीं चलाते। रेजीमेंट के सैनिकों ने गोली चलाने से इंकार कर दिया और सभी सैनिकों ने अपनी बंदूकें नीची कर दीं। मौके पर तैनात दूसरी प्लाटूनों भी इसका अनुसरण किया और गोलियां नहीं चलाईं। आनन फानन में आंदोलन को कुचलने के लिए कैप्टन रिकेट द्वारा गोरों की फौज मौके पर बुला ली गयी। उन्होंने पठानों पर गोलियां बरसानी शुरु कर दीं। खून की नदियां बहा दीं गयीं, देखते-देखते पेशावर की सड़कें बहादुर पठानों के खून से रंग दी गयी। मार्शल ला व कर्फ्यू लगा दिया गया। अंग्रेजों से बगावत करने का मतलब था, मौत की सजा। इसके बावजूद गढ़वाल रेजीमेंट के बहादुर सैनिकों ने अपने निहत्थे पठानों पर गोली चलाने के मुकाबले अंग्रेजी हुकूमत का दमन झेलना स्वीकार किया। बगावत करने वाले सैनिकों के हथियार बैरक में जमा करा लिए गये गये। 67 सैनिकों का कोर्ट मार्शल कर, उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया। मुकन्दी लाल व एक अंग्रेज ने उनके मुकदमे की पैरवी की। 7 सैनिकों के सरकारी गवाह बन जाने के कारण उन्हें छोड़ दिया गया। 17 ओहदेदरों समेत 60 सैनिकों को लम्बी-लम्बी सजाएं सुनायी गयीं।

वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गयी। चन्द्र सिंह के हाथ-पैरों में बेड़ियां डालकर डेरा इस्माइल खां जेल की काल कोठरी में डाल दिया गया। जेल में भी चन्द्र सिंह ने अपना संघर्ष जारी रखा। बगावत करने वाले सैनिकों को राजनीतिक कैदी का दर्जा दिये व उन्हें बी क्लास की जेल उपलब्ध कराए जाने की मांग को लेकर 1 जुलाई, 1930 से उन्होंने अपने साथियों के साथ जेल में भूख हड़ताल की, परन्तु उनकी मांगें नहीं मानी गयीं।
1931 में गांधी-इर्विन के बीच हुए समझौते के बाद जेलों में बंद कांग्रेस के नेता रिहा कर दिये गये। सेना में बगावत करने के कारण चन्द्र सिंह व उनके साथियों को रिहा नहीं किया गया। अंग्रेजी हुकूमत ने चन्द्र सिंह से कहा कि तुम माफी मांग लो तो तुम्हें भी रिहा कर दिया जाएगा। चन्द्र सिंह ने जबाब दिया- “आप मुझे बेकसूर समझते हैं तो छोड़ दे, माफी मांगने के लिए तो मैं संसार में पैदा नहीं हुआ।” आदेश न मानने वाले सैनिकों पर अंग्रेजो ने कार्यवाही की। वहीं वीर चंद्र सिंह  को 14 साल के कारावास के लिये ऐबटाबाद की जेल में भेज दिया। इस दौरान इन्हें बरेली, इलाहबाद लखनऊ, अल्मोड़ा समेत कई जेलों में स्थानान्तरित किया जाता रहा। बाद में इनकी सजा कम कर दी गई और 11 साल के कारावास के बाद इन्हें 26 सितम्बर 1941 को चन्द्र सिंह को जेल से रिहा कर दिया गया। परन्तु भयभीत अंग्रेजी सरकार ने उनके गढ़वाल जाने व भाषण देने पर पाबन्दी लगा दी। वीर चंद्र सिंह जेल से तो आजाद हो गये थे। लेकिन उनका गढवाल में प्रवेश प्रतिबंधित रहा। जिस कारण इन्हें जगह-जगह भटकना पडा। इस दौरान यह एक बार फिर गांधी जी के संपर्क में आये और कुछ समय अपनी पत्नी भगीरथी व बेटी माधवी के साथ गांधीजी के साथ वर्धा में रहे। 8 अगस्त 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में इन्होंने इलाहाबाद में रहकर इस आंदोलन में सक्रिय भागीदारी निभाई। जिस कारण उन्हें बनारस में पुनः गिरफ्तार कर तीन साल के लिये जेल भेज दिया गया। इस दौरान उनकी पत्नी व बेटी ने हल्द्वानी अनाथालय की एक कोठरी में रह कर कठिन जीवन व्यतीत किया। 1945 में चन्द्र सिंह को जेल से रिहा कर दिया गया। रिहा हाने के बाद उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता ग्रहण कर मजदूर-किसानों को संगठित कर भुखमरी की शिकार जनता के लिए अनाज, पानी आदि को लेकर संघर्ष किया। इसके बाद 22 दिसम्बर 1946 में कम्युनिस्टों के सहयोग से चन्द्र सिंह से गढ़वाल प्रवेश पर लगा प्रतिबंध हटा लिया गया। जिसके बाद वह फिर से गढ़वाल में प्रवेश कर सके। कांग्रेस के नेताओं ने उनकी रिहाई को लेकर कभी भी गम्भीर प्रयास नहीं किए।

1947 में देश से अंग्रेजों के देश से जाने के बाद टिहरी रियासत को भारत में विलय के लिए जारी आंदोलन का उन्होंने नेतृत्व भी पेशावर विद्रोह के नायक कामरेड चन्द्र सिंह गढ़वाली ने ही किया था ।तत्कालीन टिहरी रियासत में 11 जनवरी 1948 को इसमें उनके दो साथी नागेन्द्र सकलानी व मोलू भरदारी शहीद हो गये। गढ़वाली दोनों शहीदों के जनाजे को कीर्ति नगर से टिहरी ले गए। लगातार तीन दिन पैदल चल कर शव-यात्रा राजा के शमशान घाट पर पहुंची जहाँ उनका अंतिम संस्कार किया गया। चिटा की आग ठंडी होने से पहले ही टिहरी रियासत आजाद भारत का हिस्सा बन चुकी थी। 1 अक्टूबर 1979 को वीर चंद्र सिंह गढ़वाली का लम्बी बीमारी के बाद देहान्त हो गया। 1994 में भारत सरकार द्वारा उनके सम्मान में एक डाक टिकट भी जारी किया गया तथा कई सड़कों के नाम भी इनके नाम पर रखे गये। वीर चंद्र सिंह गढ़वाली की आज जयंती है। राज्य गठन के बाद उनके नाम की कई योजनाएं संचालित हैं। चुनाव के समय उनके नाम पर वोट भी बटोरे जाते हैं, लेकिन सत्ता मिलते ही वीर चंद्रसिंह गढ़वाली कम्युनिस्ट बन जाते हैं। भाजपा-कांग्रेस उन्हें राष्ट्र की विरासत से कहीं अधिक वोट बैंक का जरिया मानते हैं। वो पेशावर कांड के नायक बने थे और आज भी हीरो हैं, लेकिन गढ़वाल रेजीमेंट सेंटर के रिकार्ड में वो आज भी अपराधी हैं। सब जानते हैं कि फौज में देश से बड़ी पलटन होती है। यही कारण है कि जब पेशावर कांड के नायक का निधन हुआ तो गढ़वाल राइफल्स ने उन्हें सलामी देने से इनकार कर दिया। सब जानते हैं कि वीर चंद्र सिंह गढ़वाली की आर्थिक हालत कितनी खराब थी। बैंक ने उनके घर पर कुर्की का नोटिस भी चस्पा दिया था। यदि हेमवती नंदन बहुगुणा उनकी मदद नहीं करते तो मासी सैंणीसेरा का उनका घर कुर्क हो जाता।

वीर चंद्र सिंह गढ़वाली का पैतृक गांव पौड़ी गढ़वाल, थलीसैंण का पीटसैण मासौ है। एक अक्तूबर 1979 को गढ़वाली के निधन के बाद उनके दोनों बेटे आंनद सिंह और कुशलचंद कोटद्वार भाबर क्षेत्र में आ गए थे। यूपी सरकार की ओर से उन्हें 10 एकड़ जमीन कोटद्वार भाभर क्षेत्र के हल्दूखाता में लीज पर दी गई थी। कुछ समय बाद आनंद सिंह और कुशलचंद का भी निधन हो गया। उसके बाद उनके परिजन वहीं रहते हैं। राज्य गठन के बाद सड़क के उस पार का हिस्सा यूपी में चला गया, जिसमें गढ़वाली के परिजन भी यूपी क्षेत्र में आ गए। राज्य गठन के बाद गढ़वाली के परिजनों की किसी ने सुध नहीं ली।

गढ़वाली ने राजा भरत के नाम से उर्तिछा में भरत नगर बसाने का सपना देखा था। पूरे शिवालिक क्षेत्र को मसूरी की तर्ज पर विकसित करने की उन्होंने योजना बनाई थी। गढ़वाली के प्रयासों से सर्वे आफ इंडिया द्वारा इस क्षेत्र को चिह्नित भी करा दिया था, लेकिन यह विडंबना ही है कि उनकी मृत्यु के बाद पूरा मामला ठंडे बस्ते में चला गया। राज्य गठन के बाद भले ही उत्तराखंड में पेशावर कांड के नायक वीर चंद्र सिंह गढ़वाली के नाम पर कई योजनाएं चल रही हो, लेकिन हकीकत यह है कि गढ़वाली के ही परिजनों को ही इस योजनाओं का लाभ नहीं मिल पा रहा है। उत्तराखंड में वीर चंद्र सिंह गढ़वाली पर्यटन स्वरोजगार योजना के अंतर्गत कई प्रकार के स्वरोजगार संबंधी कार्यों हेतु सरकार की ओर से ऋण दिया जाता है, जिससे लोग अपना स्वरोजगार कर सके लेकिन वीर चंद्र सिंह गढ़वाली के परिजन इस योजना के अंतर्गत ऋण नहीं ले सकते। असल में उनके परिजनों का घर वैसे तो कोटद्वार भाबर में है लेकिन वह आता है बिजनौर वन प्रभाग के अन्तर्गत, जिस कारण उन्हें अपने सभी कामों के लिए यूपी जाना पड़ता है। गढ़वाली के नाती देशबंधु गढ़वाली ने बताया कि लीज की जमीन होने के कारण वह स्थाई आवास नहीं बना सकते जिस कारण वह लोग झोपड़ी में ही दिन काटने को मजबूर हैं। ऊपर से घर के पास जंगली जानवरों का खतरा भी बना रहता है। अभी जमीन की लीज का नवीनीकरण भी नहीं हुआ है। उन्होंने कई बार यूपी और उत्तराखंड सरकार से मदद की गुहार लगाई मगर मामला सिफ़र ही रहा। सरकार गढ़वाली की स्मृति भी प्रतिवर्ष 23 अप्रैल को क्रान्ति दिवस तथा 12 जून को उनकी समाधि कोदियाबगड़ ( दूधातोली ) में मुक्ति दिवस एवं मेला आयोजित तो करती है मगर आज तक गढ़वाली के परिजनों को उत्तराखंड में पहचान नहीं दिला पाए।

23 अप्रैल को पेशावर कांड के रूप में गढ़वाली को याद किया जाता है। आज पूरा देश आजादी के अमृत महोत्सव से सराबोर और राज्य गठन को भी 22 साल हो चले हैं इसके बाद भी पेशावर कांड के उस महानायक को इंसाफ नहीं मिला। यदि हम उनको सच्चा सम्मान देना चाहते तो केंद्र /प्रदेश सरकार विधानसभा में उनको दोषमुक्त करने के लिए कोई प्रस्ताव लाये ताकि गढ़वाल रेजीमेंट की रिकार्ड बुक से उन पर लगा अपराधी का ठप्पा हट सके।

डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला (दून विश्वविद्यालय )

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