देहरादून। बूढ़ाकेदार सबसे प्राचीन केदार है। जब सड़क सुविधा नहीं थी, तब केदारनाथ धाम पहुंचने का यही पैदल मार्ग था और केदारनाथ धाम की यात्रा से पहले बूढ़ा केदार के दर्शन जरूरी थे। पुराणों में उल्लिखित है कि गोत्र हत्या से मुक्ति पाने के लिए पांडव जब इस मार्ग से स्वर्गारोहण पर जा रहे थे तो बूढ़ाकेदार में शिव ने उन्हें बूढ़े ब्राहमण के रूप में दर्शन दिए थे। बूढ़ा केदार पर शिवा से आशीर्वाद लेकर ही पांडव स्वर्गारोहण के लिए निकले। शिव के बूढ़े रूप में दर्शन देने के कारण ही इस स्थान का नाम बूढ़ा केदार पड़ा। बूढ़ा केदार धाम बाल गंगा व धर्म गंगा नदी के मध्य स्थित है। बूढ़ा केदार मंदिर के अंदर एक विशाल शिला है, जबकि मंदिर के कुछ दूरी पर ही दोनों नदियों बाल गंगा और धर्म गंगा का संगम है। यहां पर स्नान करना पुण्यदायी माना गया है। यहां इन दोनों नदियों के संगम पर आरती भी की जाती है। बूढ़ाकेदार मंदिर टिहरी गढ़वाल जिले में है। मंदिर की शिला पर उभरी पांडवों की मूर्ति आज भी रहस्य बनी हुई है। वास्तव में उत्तराखंड में पंच केदार मंदिरों के दर्शन का विशेष महत्व है। इनमें से एक यहां एक बूढ़ा केदार मंदिर भी हैं। बूढ़ाकेदार में बालगंगा व धर्मगंगा नदियों की संगमस्थली है। यह मंदिर बालखिल्या पर्वत और वारणावत पर्वत की परिधि में स्थित सिद्धकूट, धर्मकूट, यक्षकूट और अप्सरा गिरी पर्वत श्रेणियों के मध्य सुरम्य बालगंगा और धर्मगंगा के संगम पर स्थित है। प्राचीन समय में यह स्थल पांच नदियों बालगंगा, धर्मगंगा, शिवगंगा, मेनकागंगा व मट्टानगंगा के संगम पर था। पर अब तीन नदियां दिखाई नहीं देतीं।बालगंगा और धर्मगंगा के संगम में स्नान करना पुण्यदायी माना गया है। संगम में आरती भी होती है। आगे बढ़कर यही नदी भिलंगना का रूप धारण कर लेती है। उत्तराखंड के चार पवित्र धामों के बीच में स्थित वृद्ध केदारेश्वर मंदिर की यात्रा आवश्यक मानी गई है। प्राचीन काल में तीर्थाटन पर निकले यात्री बूढ़ा केदारनाथ के दर्शन करने जरूर आते थे। कहते हैं बूढ़ा केदारनाथ के दर्शन से अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है। वृद्ध केदारेश्वर की चर्चा स्कन्द पुराण के केदारखंड में सोमेश्वर महादेव के रुप में मिलती है। भगवान बूढ़ा केदार के बारे में मान्यता है कि गोत्रहत्या के पाप से मुक्ति पाने हेतु पांडव इसी मार्ग से स्वर्गारोहण हेतु हिमालय की ओर गए। यहीं पर भगवान शंकर ने बूढ़े ब्राहमण के रुप में बालगंगा-धर्मगंगा के संगम पर पांडवों को दर्शन दिया था। दर्शन देने के बाद शिव शिला रुप में अन्तर्धान हो गए। वृद्ध ब्राहमण के रुप में दर्शन देने के कारण ही सदाशिव भोलेनाथ वृद्ध केदारेश्वर या बूढ़ा केदारनाथ कहलाए। मान्यता के मुताबिक यही वह स्थान है, जहां कुरुक्षेत्र के युद्ध के बाद पांडवों को गोत्र हत्या के पाप से मुक्ति मिली थी। बूढ़ा केदार के बारे में कहते हैं कि बाबा केदार यहां कुछ समय तक रुके थे। एक रचनाकार ने बूढ़ा केदार को ‘सागरमाथाÓ नाम देकर भी अलंकृत किया है। बूढ़ा केदारनाथ मन्दिर के गर्भगृह में विशाकाय लिंगाकार फैलाव वाले पाषाण पर भगवान शंकर की मूर्ति और लिंग विराजमान है। कहा जाता है इतना बड़ा शिवलिंग शायद देश के किसी भी मंदिर में नहीं दिखाई देता। मंदिर में श्रीगणेश जी एवं पांचो पांडवों सहित द्रौपदी के प्राचीन चित्र उकेरे हुए हैं। मंदिर में ही बगल में भू शक्ति, आकाश शक्ति और पाताल शक्ति के रूप में विशाल त्रिशूल विराजमान है। बूढ़ा केदार मंदिर में पुजारी ब्राह्मण नहीं होते बल्कि नाथ जाति के राजपूत होते हैं। नाथ जाति के सिर्फ वही लोग ही पूजा कर सकते हैं, जिनके कान छिदे हों।

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