‘अल्ला हू अकबर’ और ‘हर हर महादेव’ के युग्म से इतना क्यों डर गए हुक्मरान?
5 सितम्बर के मुज़फ्फरनगर के इतवार की खासियतें इस बार कारपोरेट गोदी मीडिया के एक हिस्से को भी दर्ज करनी पड़ी। लगभग हरेक ने माना कि पिछली 25 वर्षों में — जबसे इस इलाके में किसानों के बड़े-बड़े जमावड़ों की शुरुआत हुयी है — यह सबसे बड़ी रैली थी। संयुक्त किसान मोर्चे ने ठीक ही इसे ‘किसान महापंचायत’ का नाम दिया था। ज्यादातर ने यह भी कबूला कि दोपहर के 2 बजने से पहले करीब 1 लाख गाड़ियां मुज़फ्फरनगर में दाखिल हो चुकी थीं : इनमें बसें, चार पहिया वाहन और ट्रेक्टर-ट्रॉली से लेकर पश्चिमी उत्तरप्रदेश की पहचान बुग्गियों से ई-रिक्शा तक शामिल था। दोपहिया वाहनों की गिनती इनमे शामिल नहीं थी। मुज़फ्फरनगर के जीआईसी मैदान में इकट्ठा हुए जनसमुद्र की हिलोरें मैदान के चारों तरफ 10 किलोमीटर तक थीं। मगर जैसा कि कहा जाता है, सतह से ज्यादा गहरे संदेशे गहराई में होते है। मौसम और जलवायु विज्ञान में समन्दर में दो तरह की धाराओं — अल नीनो और ला नीना — का जिक्र आता है। अल-नीनो समन्दर की सतह पर आती है, तो हवाओं के दिशा बदलने तथा समुद्र के सतही जल के ताप में बढोत्तरी में विशेष भूमिका निभाती है। वहीं ला नीना नीचे बहने वाली ठंडी धारा होती है, जिसकी वजह से एक उच्च दबाब की स्थिति पैदा हो जाती है। मुज़फ्फरनगर में किसान रैली की उमड़ती और दिखती हुयी धारा के साथ यह अंतर्धारा भी थी, जिसने मोदी-योगी गिरोह और उसके पाले-पोसे मीडिया को ज्यादा डराया है। इतना डराया है कि वह अपनी आईटी सैल की पूरी ताकत झोंककर रैली के आखिर में लगे “अल्ला हू अकबर – हर हर महादेव” के नारे में से सिर्फ “अल्ला हू अकबर” की क्लिप वायरल कर अपने साम्प्रदायिक एजेंडे को आगे बढ़ाने और किसान रैली के असली संदेश को धुंधलाने की असफल कोशिशों में भिड़ गया है। उसे पता है कि इस महापंचायत का ज्यादा बड़ा और निर्णायक संदेश इस अंतर्धारा में निहित है।
दिल्ली से बरास्ते मेरठ, मुज़फ्फरनगर के प्रवेश द्वार सूजड़ू चुंगी पर हलवे की थाल लिए मुस्लिम नौजवानों के ठठ के ठठ खड़े थे, जो शहर में दाखिल होने वाले हर वाहन को आग्रह पूर्वक रोकते थे और हलवा देते हुए कहते थे कि “मुँह मीठा करते जाइये।” इसी तरह का स्वागत मुज़फ्फरनगर में प्रवेश करने के सारे कोनो पर हो रहा था। रैली में आये लाखों किसानों के लिए लगे हजार-आठ सौ लंगरों में से अनेक पर मुस्लिम समुदाय के युवा जिम्मा सँभाले हुये थे – जिन पर बाकी खाने-पीने के व्यंजनों के अलावा मीठे चावल, हलवे और फलों के रस की बहार थी। कुछ लोगों ने इसे मुस्लिम अंडरकरेंट का नाम दिया।
हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई समुदायों की यह साझेदारी तो दिल्ली के छहों तरफ लगी किसानों की मोर्चेबन्दियों में भी दिखती है। फिर ऐसी क्या ख़ास बात थी कि इसे विशेष रूप से दर्ज किया जाए?
ख़ास बात यह थी कि यह उस मुज़फ्फरनगर में हो रहा था, जिसने 2013 देखा है। इस शहर ने ऐसी भीषण साम्प्रदायिक हिंसा अपने इतिहास में पहले कभी नहीं देखी थी, जो इसे 62 रिकार्डेड मौतों और अल्पसंख्यक समुदाय को चिन्हांकित कर किये गए जघन्य हमलों के रूप में 2013 में भुगतनी पड़ी। ये दंगे नहीं थे, इन्हे निराधार अफवाहें फैलाकर आरएसएस ने बहुत ही योजनाबद्ध तरीके से संगठित किया था। ये हिन्दू-मुस्लिम दंगे तो बिलकुल भी नहीं थे। इन्हे सोचे-समझे तरीके से मुस्लिम-जाट दंगों का रूप दिया गया था। इसी की दम पर सदियों पुरानी किसान बिरादरी की एकता को छिन्न-भिन्न किया गया था। इसी विभाजन का सहारा लेकर भाजपा द्वारा 2014 और 2019 के लोकसभा तथा 2017 के उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव जीते गए थे। दंगाईयों का इस इलाके के प्रभावशाली किसान संगठन भारतीय किसान यूनियन (टिकैत) के नेता राकेश टिकैत की खाप बालियान खाप के होने के चलते और बीकेयू की लगभग सहभागी की भूमिका में होने के चलते अविश्वास की खाइयां बहुत चौड़ी हो चुकी थीं, जिसे उनके नेताओं द्वारा इन तीनो चुनावों में भारतीय जनता पार्टी को दिए समर्थन ने आरोप से यथार्थ में बदल दिया था। 26 जनवरी 2021 की सरकारी झण्डा साजिश और उसके दो दिन बाद गाज़ीपुर बॉर्डर पर हुए भाजपाई हमले के बाद से टिकैत और उनकी बीकेयू ने पूरे देश और खासतौर से पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जिलों की जनता से 2013 और उसके बाद की अपनी राजनीतिक गलतियों के लिए बाकायदा सभाएं करके माफ़ी मांगी थी। उस भूमिका को अपनी सबसे बड़ी चूक बताया था और उसे फिर से न दोहराने का वादा किया था। इसका असर था। मगर इसके बावजूद माहौल में एक उदासी कायम थी।
ठीक इस उदासी, अविश्वास और अलगाव के माहौल को तोड़ रहे थे राकेश टिकैत, जब वे इस विराट रैली के मंच से “अल्ला हू अकबर” का नारा लगा रहे थे और उसके जवाब में नीचे से “हर हर महादेव” का नारा गूँज रहा था। यह सिर्फ प्रतीकात्मकता नहीं थी – यह उस संघर्ष की विरासत की निरंतरता थी, जिसने इस इलाके में किसानों का जबरदस्त आंदोलन खड़ा किया। 1997 में महेंद्र सिंह टिकैत की भोपा में हुयी जिस सबसे बड़ी रैली ने इस किसान तहरीक का आगाज़ किया था, वह एक मुस्लिम युवती नईमा की बलात्कार के बाद की गयी हत्या के खिलाफ थी। महीने भर तक चले और युवती की लाश मिलने और दोषियों के खिलाफ कार्यवाही के बाद ही उठे इसी धरने में सबसे पहली बार महेंद्र सिंह टिकैत ने “अल्ला हू अकबर, हर हर महादेव” का नारा गुंजाया था। इसके बाद धर्म, जाति और सम्प्रदायों से ऊपर उठकर जो साझा किसान आंदोलन विकसित हुआ, उसे देश भर ने देखा है। लोग बताते हैं कि सीनियर टिकैत की हर सभा की अध्यक्षता सरपंच ऐनुद्दीन किया करते थे और संचालन गुलाम मोहम्मद जौला के हाथ में रहता था। इसमें मंच से एक बार “अल्ला हू अकबर” बोला जाता था, जिसका जवाब “हर हर महादेव” से मिलता था। दूसरी बार “हर हर महादेव” बोला जाता था, जिसका जवाब नीचे से “अल्ला हू अकबर” से मिलता था ।
एकजुटता की ललकार की यह व्यंजना टिकैत ने भी इसी इलाके में शुरू हुए 1857 के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम से ली थी, जिसमे गांव-गांव तक बगावत का संदेशा पहुंचाने के लिए एक गांव से दूसरे गांव तक रोटी भेजी गयी थी, जिस पर नमक की डली और गोश्त का टुकड़ा रखा होता था। सिपाहियों ने अपनी बटालियनों के साथ बगावत शुरू करके दिल्ली की तरफ कूच करने की शुरुआत 10 मई 1857 को मेरठ के प्रसिद्ध शिव मंदिर पर इकट्ठा होकर और “अल्ला हू अकबर और हर हर महादेव”, “हर हर महादेव और अल्ला हू अकबर” का नारा एक साथ लगाकर की थी। नौ महीने से सिंघु बॉर्डर से लेकर मेवात बॉर्डर पर “जो बोले सो निहाल – सत श्री अकाल” के साथ साथ “जय जवान-जय किसान, किसान एकता लाल सलाम” के जयकारों में यह जोड़ मुज़फ्फरनगर की रैली ने जोड़ा है। कहने की जरूरत नहीं कि आरंभिक समाजों में विचार और दर्शन, शासन और उसका प्रतिरोध, जड़ता को कायम रखने और उन्हें तोड़ने के काम धर्म की भाषा में ही हुये हैं। इसलिये यदि यह शोषण का एक रूप है, तो साथ ही उसके विरोध की अभिव्यक्ति भी है।
कारपोरेट परस्त सरकार की नीतियों और उन्हें बनवाने वाले कारपोरेट की शिनाख्त किसान आंदोलन ने पहले ही कर रखी थी। अम्बानी और अडानी के धंधों के विरुध्द मोर्चा खोला हुआ था। इस बार उन्होंने धर्म को साम्प्रदायिकता के लिए इस्तेमाल करने और उसके नाम पर लोगों को बांट कर कारपोरेट का उल्लू सीधा करने की नागिन को उसके फन से पकड़ा है। आरएसएस-भाजपा-कारपोरेट जुण्डली इसका मतलब जानती है और इसीलिए बुरी तरह बौखलाई हुयी है; क्योंकि 2022 और 2024 के चुनावों में उनके पास यही एक तिकड़म थी — जिसे किसान आंदोलन अपने ही अंदाज में चूर-चूर करने में लग गया है।
(आलेख : बादल सरोज)