साध्वी सुभाषा भारती ने कहा कि सत्संग में आने वाला मनुष्य सौभाग्यशाली हुआ करता है। सत्संग मनुष्य के विचारों को सद्गति की दिशा प्रदान करता है। सत्संग की दिव्य तरंगे मनुष्य पर सकारात्मक प्रभाव डालती हंै, सत्संग में दिए जाने वाले विचारों को एकाग्रता पूर्वक श्रवण करते हुए यदि इनका मनन, चिंतन ओर अमल हो जाए तो सर्वोच्च लाभ सुनिश्चित है। भगवान से मिलने का सत्संग एक ज़रिया है। मनुष्य जब ईमानदारी के साथ परमात्मा की तरफ एक कदम बढ़ाता है तो परमात्मा हज़ार कदमों से आकर उसे अपना लिया करते हैं। कर्मशील व्यक्ति ही अध्यात्मिक मार्ग में निरंतर आगे बढ़ाता चला जाता है। महापुरूष कहते हंै कि ईश्वर की दया को यदि प्राप्त करना हो तो दया का उल्टा करो, अर्थात्! उसे याद करो। इसी तरह यदि लाभ पाना चाहते हो तो इसका भी उल्टा करो, अर्थात्! सबका भला करो। समाज़ की दुर्दशा पर उन्होंने कहा कि प्रत्येक वर्ष दशहरा मनाया जाता है, असख्य लोग एकत्रित होकर रावण के पुतले का दहन किया करते हैं, मेले में घूमते-फिरते हैं, मिष्ठान्न खाते हैं और घर आकर सो जाते हैं, हो गया जी दशहरा। मात्र पुतला जलाने से रावण नहीं मरा करता। मन के भीतर बैठे सशक्त रावण का जब तक दहन नहीं होगा तब तक समाज़ को पुतला दहन से कोई भी लाभ नहीं होने वाला। आज आवश्यकता है जीवन में किसी पूरे गुरू की, एक एैसे गुरू की जो मनुष्य मात्र को भीतर जाने का मार्ग सुलभता से उपलब्ध करा दे, अन्दर बैठे रावण का संहार कर दे, मानव तन रूपी अयोध्या में राम राज्य की संस्थापना करा दे और दिव्य दीपावली के अनन्त प्रकाश से सम्पूर्ण मानवता का हृदयांगन आलौकित कर दे।
देहरादून, दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान के निरंजनपुर स्थित आश्रम सभागार में आयोजित सत्संग में प्रवचन करते हुए आशुतोष महाराज की शिष्या और देहरादून आश्रम की प्रचारिका साध्वी विदुषी सुभाषा भारती ने कहा कि भारतवर्ष कृषि प्रधान ही नहीं बल्कि ‘पर्व प्रधान’ देश भी है। वर्ष के तीन सौ पैंसठ दिवस से भी कहीं अधिक भारत में पर्व-त्यौहार मनाए जाते हैं, यह स्वाभाविक ही है क्यों कि विविध संस्कृतियों का एक अनूठा और अद्वितीय संगम है देवभूमि भारत। प्रत्येक पर्व, प्रत्येक त्यौहार अपने भीतर एक अनुपम संदेश संजोए हुए होता है, संदेश को आत्मसात करने के उपरान्त जब पर्व-त्यौहार मनाए जाते हैं तो सम्पूर्ण मानव समाज़ इससे लाभान्वित हुआ करता है। त्यौहारों में कतिपय दुर्घटनाओं, विकृतियों तथा दुखद परिस्थितियों का मूल कारण यही है कि इन्हें जाने बिना, इन्हें आत्मसात किए बिना मात्र भेड़चाल की तरह मनाया जाना है। सन्निकट त्यौहार दीपावली अपने भीतर एक महान दिव्य अध्यात्मिक संदेश को धारण किए हुए है।दीपावली का शाब्दिक अर्थ है, दीपों की आवली अर्थात दीपकों की अनवरत श्रृंखला। पौराणिक मान्यतानुसार त्रेता काल में चौदह वर्षों का वनवास पूर्ण कर मर्यादा पुरूषोत्तम भगवान श्री राम आततायी रावण का वध कर, लंका विजय के उपरान्त विभिषण को लंका का राज्य सौंप कर जब अपनी भार्या जानकी तथा अनुज श्री लक्ष्मण के साथ अयोध्या वापस लौटे तब अयोध्या वासियों ने उनके स्वागत में सम्पूर्ण अयोध्या को असंख्य प्रज्जवलित दीपों से सजाया। यहां पर इस पौराणिक मान्यता के साथ-साथ वर्तमान परिवेष में प्रत्येक मानव के लिए आज का संदेश बड़ा ही अर्थपूर्ण है। प्रत्येक मानव तन को धर्म ग्रन्थ अवध (अयोध्या) की संज्ञा देते हैं। अवध अर्थात जहां किसी भी प्रकार का कोई वध नहीं होता, मन इसमें विकारी रावण है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, अंहकार, ईष्र्या-द्वेष और छल-कपट तथा अज्ञानता इसके दस शीष हैं। शान्ति स्वरूपा सीता का इस रावण ने हरण किया हुआ है। हनुमान सदृश्य पूर्ण संत के द्वारा श्रीराम की खोज़ हुआ करती है और प्रभु श्रीराम के आते ही रावण रूपी अंधकार का नाश हो जाता है और सम्पूर्ण अवध (अयोध्या) असंख्य प्रकाशमान दीपों से अवलोकित हो जाया करती है। मानव देह के भीतर नौ छिद्र विद्यमान हैं। इन छिद्रों के द्वार बाहर की ओर खुलते हैं, इन बाहर की ओर खुलने वाले द्वारों से मनुष्य की ऊर्जा व्यर्थ निष्कासित होती चली जा रही है। ये नौ छिद्र हैं- दो नेत्र, दो नासिका छिद्र, एक मुख, दो कर्ण छिद्र, और दो मल-मूत्र विर्सजन के छिद्र। इन सभी छिद्रों से ऊपर मस्तक के बिचोंबीच एक दषम् द्वार भी विद्यमान है। इस दशम् द्वार का दरवाजा भीतर की ओर खुलता है जो कि गुप्त है। हनुमान जी सदृश्य कोई पूर्ण गुरू जब जीवन में आते हैं तो इस दशम् द्वार को अनावृत्त कर दिया करते हैं, इसी दशम् द्वार को शास्त्र ‘दिव्य दृष्टि’ कहकर भी सम्बोधित करता है। गुरू कृपा से जब एक मानव इन नौ द्वारों की ऊर्जा समेट कर दशम् द्वार में ले जाता है तो उसका दशहरा सम्पन्न हो जाता है, मन रूपी विकारी रावण का अंत इसी प्रकार सम्भव हो पाता है। शास्त्रानुसार रामनवमी इसी को कहते हैं। परमात्मा के भीतर प्रकट होते ही अंधेरा छंट जाता है क्यों कि ईश्वर का रूप ही प्रकाश है। परमात्मा के प्रकट्ीकरण और अनन्त प्रकाश के जनक केवल पूर्ण सद्गुरू हुआ करते हैं, सद्गुरू प्रदत्त ब्रह्म्ज्ञान वह सनातन वैदिक पूर्ण ज्ञान है जिसके द्वारा एक श्रोत्रिय पूर्ण ब्रह्म्निष्ठ सन्त-सद्गुरू अपने षिष्य की अयोध्या में श्रीराम का प्रवेश सुनिश्चित किया करते हैं, पूर्ण प्रकाश को प्रकाशित किया करते हैं।