मनुष्य जीवन नश्वर है। जीवन के अंत में सद्कर्मों की संपत्ति ही मनुष्य के पाप-पुण्य के हिसाब-किताब में साथ जाती है, आर्थिक संपदा नहीं। अगर आप संपत्तिवान हों अथवा आर्थिक रूप से दान धर्म करने में समर्थ.हों तो यथाशक्ति दान धर्म का निर्वाह अवश्य करें, क्योंकि ईश्वर हर किसी को आर्थिक संपदा के सुख का अधिकारी होने का सौभाग्य प्रदान नहीं करता है।
दान धर्म से परहेज करने वाले मनुष्य के धन की गति अंत में नाश के रूप में सामने आती है। मनुष्य को अपनी क्षमतानुसार सदैव दान धर्म के निर्वाह में संलग्न रहना चाहिए। एक सीमा तक धन संग्रह करना अच्छी बात है.
ईश्वर की कृपा से जो पूँजी हमारे पास है अगर उसका थोड़ा हिस्सा दान धर्म में लगा दिया जाए तो यह दान हमारे पुण्य कर्मों की पूँजी में वृद्धि का जरिया साबित होता है। सतत दान धर्म का पालन करने वाले व्यक्ति को सच्ची संतुष्टि की प्राप्ति होती है।
एक बार पार्वतीजी ने भगवान भोलेनाथ से प्रश्न किया, ‘हे प्रभु, कुछ धनाढ्य व्यक्ति ऐसे होते हैं, जो आर्थिक रूप से संपन्न होने पर भी अपने अर्थ का उपभोग नहीं कर पाते। इसका कारण क्या है?’भोलेनाथ ने उत्तर में कहा, ‘देवी, जो व्यक्ति अनिच्छा से किसी दबाव में दान देते हैं और दान धर्म के निर्वाह पालन में कंजूसी करते हैं तथा जिन्हें अपने दिए दान पर बाद में पश्चाताप होता है, वे अगले जन्म में.महेश्वर आगे कहते हैं, ‘जो धनवान व्यक्ति दान और परोपकार के कार्य करने को तत्पर रहता है, वह अगले जन्म में अधिक संपत्ति का मालिक न होने पर भी सुखों का आनंदपूवर्क उपभोग करने का पात्र होता है।’
दरिद्रनारायण के कल्याण के लिए, देश के विकास के लिए, समाज के उत्थान के लिए या ऐसे ही किसी पावन उद्देश्य के लिए दान करें, पर अपनी क्षमतानुसार दान धर्म का पालन अवश्य करें।