देहरादून,दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान के सत्संग में प्रवचन करते हुए आशुतोष महाराज की शिष्या व देहरादून आश्रम की प्रचारिका साध्वी विदुषी सुभाषा भारती ने कहा कि मनुष्य अपने जन्म से लेकर मृत्यु तक सुख और शान्ति को प्राप्त करने के लिए अथक प्रयास किया करता है। इन दोनों चीज़ों को वह जितना पाने की कोशिश करता है उतना ही इन्हें स्वयं से दूर पाता है। वास्तव में मनुष्य की जो खोज़ है उसकी दिशा ही सही नहीं है, यह तो कुछ इस प्रकार है कि- वस्तु कहीं, ढूंढ़े कहीं, आवे केहि विधि हाथ, कहे कबीर तब पाइये जब भेदी लीन्हा साथ। सुख कहीं बाहर नहीं है, शान्ति सांसारिक भोग पदार्थों में है ही नहीं। सुख का शाब्दिक अर्थ है- सुन्दर अन्तःकरण। दुख का शाब्दिक अर्थ है- दूषित अन्तःकरण। महापुरूषों के अनुसार विचारों की शुद्धता ही सुख का आधार है। विचारों की मलिनता अनेक दुखों को जन्म दिया करती है। सुख तो ईश्वर हैं इसीलिए उन्हें सुख का सागर कहा गया। महापुरूष कहते हैं कि सुख और दुख इनसे उपर उठकर आनन्द की प्राप्ति ही मानव जगत का अभीष्ट लक्ष्य है। सुख का पर्यायवाची दुख है और शान्ति का पर्यायवाची अशान्ति ही है परन्तु आनन्द का कोई भी पर्यायवाची शब्द नहीं है, यह अकेला है, एकल है, चिरस्थाई है। मनुष्य जब तक आत्मिक रूप से समृद्ध नहीं होता सांसारिक कथित सुखों में उसे निराशा ही प्राप्त होगी। आत्मा तो परमात्मा का दिव्य अंश है, आत्मज्ञान द्वारा इसमें व्याप्त अनन्त सुखों, जो कि परमानन्द की प्राप्ति में सहायक हैं, प्राप्त किया जा सकता है। आत्मज्ञान (ब्रह्म्ज्ञान) के प्रदाता हुआ करते हैं कोई श्रोत्रिय ब्रह्म्निष्ठ पूर्ण सद्गुरूदेव। ईश्वर की भक्ति और सेवा ही आनन्द को प्रदान करने वाले हैं। सुख की दिशा सत्संग तय करता है, सत्संग ईश्वर मिलन का सशक्त आधार है, सत्संग आत्मा और परमात्मा के बीच की वह कड़ी है जो सद्गुरू के कृपा हस्त तले परवान चढ़ती है। भक्ति जीव को स्वतंत्र अर्थात मुक्त करती है और यह समस्त सुखों की खान है। इस सम्बन्ध में शास्त्र स्वयं वचन करते हैं- भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी, बिनु सत्संग न पावहिं प्रानी। अपने प्रेरणादायक विचारों में साध्वी सुभाषा भारती ने कहा कि परमात्मा ने सभी मनुष्यों को सर्वोत्तम मानव तन देकर मानव जगत पे परम उपकार किया है। संसार के समस्त मानवों को भगवान ने एक समान रचा है, उन्होंने सभी के भीतर अपना अंश आत्मा के रूप में प्रतिष्ठापित किया है, उन्होंने मनुष्य-मनुष्य में कोई भेद नहीं रखा हैै। संत भीखा जी इस पर कहते हैं- भीखा भूखा कोई नहीं, सबकी गठरी लाल। जिन्दगी का सफ़र अनजान है, कब, कहां, कैसे, क्या घटेगा? किसी को कुछ नहीं पता। सफ़र का मार्ग अंधकार भरा है, पग-पग पर मुसाफिर ठोकरें खाता फिरता है। महापुरूष समझाते हुए कहते हैं कि इस अंधेरे भरे रास्ते पर र्निविघ्न यदि चलना चाहते हो, ठोकरों से यदि बचना चाहते हो तो किसी आंख वाले रहबर को अपना हाथ थमा दो। आंख वाला रहबर तुम्हें ठोकरों से भी बचाएगा और तुम्हारा सफ़र बिना किसी बाधा के पूरा कराते हुए मंज़िल तक पहुंचा भी देगा। यह रहबर कोई अन्य नहीं केवल तुम्हारा सद्गुरू ही है। संसार के संसाधन, दुनिया की भौतिक उपलब्धिया ंतो मात्र इस सफ़र को पूर्ण बनाने के साधन ही हैं, इन्हें साध्य समझने की भूल ही मनुष्य के अनेक दुखों का कारण है।