श्री इन्द्रमणि बडोनी का जन्म 24 दिसम्बर 1924 को टिहरी गढवाल के जखोली ब्लाक के अखोडी ग्राम में हुआ। उनके पिता का नाम श्री सुरेशानंद बडोनी था।
Born in 1914 in the Akhaurhi village of Jakholi block of Tehri district (now in Rudraprayag district) अंग्रेजी शासन के खिलाफ संघर्ष में उतरने के साथ ही उनके राजनीतिक जीवन की शुरुआत हुई। लेकिन आजादी के बाद कामरेड पीसी जोशी के सम्फ में आने के बाद वह पूरी तरह राजनीति में सक्रिय हुए। अपने सिद्वांतों पर दृढ रहने वाले इन्द्रमणि बडोनी का जल्दी ही राष्ट्रीय स्तर पर राजनीति करने वाले दलों से मोहभंग हो गया। इसलिए वह चुनाव भी; निर्दलीय प्रत्याशी के रुप में लडे। उनकी मुख्य चिंता इसी बात पर रहती थी कि पहाडों का विकास कैसे हो।
उत्तराखण्ड राज्य निर्माण के लिए वह 1980 में उत्तराखण्ड क्रांति दल में शामिल हुए।
उनका सादा जीवन देवभूमि के संस्कारों का ही जीता-जागता नमूना था। वे चाहते थे कि पहाडों को यहां की भौगोलिक परिस्थिति व विशिष्ट सांस्कृतिक जीवन शैली के अनुरुप विकसित किया जाए। अपनी संस्कृति के प्रति भी उनके मन में अगाध प्रेम था। वर्ष 1957 में राजपथ पर गणतंत्र दिवस के मौके पर उन्होंने केदार नृत्य का ऐसा समा बॉधा कि तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु भी उनके साथ थिरक उठे। अमरीकी अखबार वाशिंगटन पोस्ट ने स्व. इन्द्रमणि बडोनी को ”पहाड के गॉधी“ की उपाधि दी थी। वाशिंगटन पोस्ट ने लिखा था कि उत्तराखण्ड आंदोलन के सूत्रधार इन्द्रमणि बडोनी की आंदोलन में; उनकरी भूमिका वैसी ही थी जैसी आजादी के संघर्ष के दौरान भारत छोडों आंदोलन में राष्ट्रपिता महात्मा गॉधी ने निभायी थी। राज्य आंदोलन में लगातार सक्रिय रहने से उनका स्वास्थ्य गिरता गया। 18 अगस्त 1999 को उत्तराखण्ड के सपूत श्री इन्द्रमणि बडोनी जी का निधन हो गया।
       1 सितम्बर 1994 को खटीमा और 2 सितम्बर को मसूरी के लोमहर्षक हत्याकांडों से पूरा देश दहल उठा था। 15 सितम्बर को शहीदों को श्रद्धांजलि देने हेतु मसूरी कूच किया गया, जिसमें पुलिस ने बाटा घाट में आन्दोलनकारियों को दो तरफा घेर कर लहूलुहान कर दिया। दर्जनों लोगों को गिरफ्तार किया गया। बडोनी को जोगीवाला में ही गिरफ्तार कर सहारनपुर जेल भेजा गया। इस दमन की सर्वत्र निन्दा हुई। मुजफ्फरनगर के जघन्य कांड की सूचना मिलने के बाद 2 अक्टूबर की दिल्ली रैली में उत्तेजना फैल गई। मंच पर अराजक तत्वों के पथराव से बडोनी जी चोटिल हो गये थे। मगर ‘उत्तराखंड के इस गांधी’ ने उफ तक नहीं की और यूपी हाऊस आते ही फिर उत्तराखंड के लिए चिन्तित हो गये। उन तूफानी दिनों में आन्दोलनकारी जगह-जगह अनशन कर रहे थे, धरनों पर बैठे थे और विराट जलूसों के रूप में सड़कों पर निकल पड़ते थे। इनमें सबसे आगे चल रहा होता था दुबला-पतला, लम्बी बेतरतीब दाढ़ी वाला शख्स- इन्द्रमणि बडोनी। अदम्य जिजीविषा एवं संघर्ष शक्ति ने उन्हें इतना असाधारण बना दिया था कि बड़े से बड़ा नेता उनके सामने बौना लगने लगा।
         इन्द्रमणि बडोनी का जन्म 24 दिसम्बर 1925 को तत्कालीन टिहरी रियासत के जखोली ब्लॉक के अखोड़ी गाँव में पं. सुरेशानन्द बडोनी के घर हुआ। उस समय सामन्ती मकड़जाल में छटपटाते टिहरी रियासत में बच्चों को पढ़ने से हतोत्साहित किया जाता था। टिहरी के कम ही लोग लेज तक की पढ़ाई कर पाते थे। बडोनी ने गाँव से शुरू कर नैनीताल और देहरादून में शिक्षा प्राप्त की। 19 वर्ष की उम्र में उनका विवाह सुरजी देवी से हुआ, जो राज्य बन जाने के बाद भी मुनिकीरेती के अपने जर्जर घर में उपेक्षित व अक्सर अकेली रहती हैं।
       जीवन के प्रारंभिक काल से बडोनी विद्रोही प्रकृति के थे। उन दिनों टिहरी रियासत में प्रवेश करने के लिए चवन्नी टैक्स देना होता था। एक बार जब बालक बडोनी अपने साथियों के साथ नैनीताल से आते हुए पौड़ी से मन्दाकिनी पार कर तिलवाड़ा के रास्ते टिहरी में प्रवेश कर रहे थे तो उन्होंने चवन्नी टैक्स देने से इंकार कर दिया। उन्हें गिरफ्तार कर स्थानीय मालगुजार के समक्ष पेश किया तो वहाँ भी टैक्स देने से बेहतर उन्होंने जेल जाना समझा। बहरहाल उस भले मालगुजार ने अपनी जेब से चवन्नी जमा कर उस समय उन्हें जेल जाने से बचा लिया।
      डी.ए.वी. कॉलेज देहरादून से स्नातक की डिग्री लेने के बाद वे आजीविका की तलाश में बम्बई चले गये। लेकिन स्वास्थ्य खराब होने की वजह से उन्हें वापस गाँव लौटना पड़ा। तब उन्होंने अखोड़ी गाँव और जखोली ब्लाॅक को अपना कार्यक्षेत्र बना लिया। सन् 1953 में गांधी जी की शिष्या मीरा बेन टिहरी के गाँवों के भ्रमण पर थीं। जब अखोड़ी पहुँच कर उन्होंने किसी पढ़े-लिखे आदमी से ग्रामोत्थान की बात करनी चाही तो गाँव में बडोनी जी के अलावा कोई पढ़ा-लिखा नहीं था और वे भी उस समय पहाड़ की चोटियों की तरफ (छानियों में) मवेशियों के साथ प्रवास पर थे। उन्हें वहाँ से बुलवाया गया। मीरा बेन की प्रेरणा से ही इन्द्रमणि बडोनी सामाजिक कार्यों में तन-मन से समर्पित हुए। 1961 में वे गाँव के प्रधान बने और फिर जखोली विकास खंड के प्रमुख। बाद में उन्होंने उत्तर प्रदेश विधान सभा में तीन बार देव प्रयाग क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया। 1977 के विधान सभा चुनाव में निर्दलीय लड़ते हुए उन्होंने कांग्रेस और जनता पार्टी प्रत्याशियों की जमानतें जब्त करवायीं। पर्वतीय विकास परिषद के वे उपाध्यक्ष रहे। उस दौरान उनके विधानसभा में दिये गये व्याख्यान आज भी समसामयिक हैं। वे सड़क, शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली और पेयजल योजनाओं पर बोलते हुए व्यक्ति के विकास पर भी जोर देते थे। उत्तराखंड में विद्यालयों का सबसे ज्यादा उच्चीकरण उसी दौर में हुआ।
पहाडों से था बेहद लगाव
पहाड़ों से उन्हें बेहद लगाव था। आज सहस्त्रताल, पवाँलीकांठा और खतलिंग ग्लेशियर दुनिया भर से ट्रेकिंग के शौकीनों को खींच रहे हैं, पर इनकी सर्वप्रथम यात्राएँ बडोनी जी द्वारा ही शुरू की गई। उनके साथ इन तीनों स्थलों को प्रकाश में लाने वाले सुरेन्द्र सिंह पांगती तब टिहरी के जिलाधिकारी थे। पहाड़ की संस्कृति और परम्पराओं से उनका गहरा लगाव था। मलेथा की गूल और वीर माधो सिंह भंडारी की लोक गाथाओं का मंचन उन्होंने दिल्ली और बम्बई तक किया। दिल्ली में उनके द्वारा मंचित पांडव नृत्य को देख कर तत्कालीन प्रधान मंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू भाव-विभोर हो कर बडोनी जी के साथ ही थिरकने लगे। दिल्ली प्रवास के उन्हीं दिनों में वे कॉमरेड पी.सी. जोशी के सम्पर्क में आये और पृथक उत्तराखंड राज्य के पैरोकार बन गये।
1980 में वे उत्तराखंड क्रांति दल के सदस्य बन गये। वन अधिनियम के विरोध में उन्होंने आंन्दोलन का नेतृत्व किया और पेड़ों के कारण रुके पड़े विकास कार्यों को खुद पेड़ काट कर हरी झंडी दी। इस आंदोलन में हजारों लोगों पर वर्षों मुकदमे चलते रहे। 1988 में तवाघाट से देहरादून तक की उन्होंने 105 दिनों की पैदल जन संपर्क यात्रा की। इस यात्रा में उन्होंने दो हजार से ज्यादा गाँवों और शहरों को छुआ और पृथक राज्य की अवधारणा को घर-घर तक पहुँचा दिया। 1989 में उक्रांद कार्यकर्ताओं के आग्रह पर उन्होंने सांसद का चुनाव लड़ा। जिस दिन चुनाव का पर्चा भरा गया, बडोनी जी की जेब में मात्र एक रुपया था। संसाधनों के घोर अभाव के बावजूद बडोनी जी दस हजार से भी कम वोटों से हारे।
बडोनी जी की राजनीतिक यात्राओं का सिलसिला थमा नहीं। आज वे मुनिकी रेती में होते थे तो दूसरे दिन पिथौरागढ़, तीसरे दिन उनकी बैठक नैनीताल में होती तो चौथे दिन धूमाकोट। अपनी बात कहने का उनका ढंग निराला था। गम्भीर और गूढ़ विषयों पर उनकी पकड़ थी, उत्तराखंड के चप्पे-चप्पे के बारे में उन्हें जानकारी थी और वे बगैर लाग-लपेट के सीधी-सादी भाषा में अपनी बात कह देते थे। उनको सुनने के लिए लोग घंटों इन्तजार करते थे और वे लोगों को एक जुनून दे देते थे। उत्तराखंड के सपने को हकीकत में बदलने के लिए इन्द्रमणि बडोनी ने तिल-तिल जलकर अपने को होम किया है। 1992 की मकर संक्रांति पर बागेश्वर के उत्तरायणी मेले में उन्होंने उत्तराखंड क्रांति दल का संकल्प जन-जन में वितरित किया। उसी वर्ष गैरसैण को उत्तराखंड की राजधानी घोषित कर चन्द्रनगर गैरसैण के नाम से वहाँ शिलान्यास कर दिया।
उत्तराखंड के इस सच्चे सपूत ने 72 वर्ष की उम्र में 1994 में राज्य निर्माण की निर्णायक लड़ाई लड़ी, जिसमें उनके अब तक के किये परिश्रम का प्रतिफल जनता के विशाल सहयोग के रूप में मिला। उस ऐतिहासिक जनान्दोलन के बाद भी 1994 से अगस्त 1999 तक बडोनी जी उत्तराखंड राज्य के लिए जूझते रहे। मगर अनवरत यात्राओं और अनियमित खान-पान से कृषकाय देह का यह वृद्ध बीमार रहने लगा। देहरादून के अस्पतालों, पी.जी.आई. चंडीगढ़ एवं हिमालयन इंस्टीट्यूट में इलाज कराते हुए भी मरणासन्न बडोनी जी हमेशा उत्तराखंड की बात करते थे। गुर्दों के खराब हो जाने से दो-चार बार के डायलिसिस के लिए भी उनके पास धन का अभाव था। 18 अगस्त 1999 को उत्तराखंड का यह सपूत अनंत यात्रा की तरफ महाप्रयाण कर गया।