‘उत्तराखंडी पांडवाणी’ के पुरोधा-
              
अभिनय सम्राट विमल बहुगुणा जी की इस समय उम्र है 76 वर्ष। परन्तु जब वह स्टेज पर लगातार 1.30 घंटे ‘उत्तराखंडी पांडवाणी’ को गाते हुए 17 ऐतिहासिक पात्रों के चरित्र का जीवंत अभिनय करते हैं तो उनकी उम्र अपनी किशोरावस्था में लौट आती है। उत्तराखंड में ‘पांडववार्ता’ के एकल गायन, सवांद और अभिनय करने की विधा के विमल बहुगुणा प्रारंभिक सूत्रधार हैं। महाभारत में पांडव गाथा के 13वें दिन ‘अभिमन्यु वध’ प्रसंग को वर्ष 2015 में ‘उत्तराखंडी पांडवाणी’ के रूप में मंचीय रूप में प्रस्तुत करने में उनको सफलता मिल पायी। मूलतः इस पण्डवानी की लिपि और धुनें वर्ष 2001में कृष्णा नन्द नौटियाल, सर्वेश्वर काण्डपाल और डॉ. डी. आर. पुरोहित जी द्वारा लिखी और तैयार की गई थी। जिन्हें प्रथम बार डॉ. राकेश भट्ट एवं शैलेन्द्र मैठाणी जी द्वारा ‘चक्रव्यूह’ नाटक के मंचन पर गाया गया था। इस चक्रव्यूह नाटक का संगीत निर्देशन डॉ. राकेश भट्ट एवं किरन दास और संपूर्ण निर्देशन सुरेश काला ने किया था। वास्तव में विमल बहुगुणा ‘चक्रव्यूह’ नाटक की गायकी को नये कलेवर में आगे बढा रहे हैं।
     यह सुखद संयोग है कि विगत तीन वर्षों में उत्तराखंड से बाहर विदेशों में भी यथा- थाईलैंड ( बैंकाक एवं पट्टाया ), इंडोनेशिया ( बाली एवं जकार्ता ) और मारीशस ( पोर्टलुई ) में उन्होने ‘उत्तराखंडी पांडवाणी’ की सफलतम प्रस्तुतियां दी हैं। विदेशों में ‘उत्तराखंडी पांडवाणी’ की प्रस्तुतियों के लिए आमत्रंण का यह सिलसिला जारी है।
     उत्तराखंड गौरव नरेन्द्र सिंह नेगी जी के गीतों में अगर सबसे सशक्त अभिनय की बात की जाय तो विमल बहुगुणा का नाम स्वाभाविक रूप में अभिव्यक्त होता है। नेगी जी के गीतों में रची-बसीं आम जन की कथा-व्यथा का हू-बहू किरदार विमल बहुगुणा ही हैं। इन गीतों के स्वरों के साथ अभिनय कर रहे विमल बहुगुणा में वह परिवेश स्वयं साकार हो जाता है। दर्शक गाने के बोल भूल सकता है पर किरदार विमल बहुगुणा की भाव-भंगिमा को भुलाना मुश्किल है। और वह भूल भी कैसे सकता है उसका ‘परिवेश’ और उसके स्वयं में छुपे ‘मैं’ का ही तो प्रतिरूप है विमल जी का किरदार।
    याद करिए नरेन्द्र सिंह नेगी जी के ये गीत ‘क्वी सुणदू मेरी खैरी क्वी गणदू मेरा दुःख’, ‘अबरि दां तू लम्बी छुट्टि ले की ऐयी, टिहरी डृबण लग्यूं चा बेटा डाम का खातिर’, ‘जा-जा बेटी नागणी बाजार’, ‘तरस्यूं सरैल दिदा खुदयूं-पराण, चार दिना की चांदनी फिर अंधेरी रात’, लयूं छौ भाग छांटी की दियूं छौ बैकू अजल्यून’, ‘कन लड़ीक बिगड़ी म्यारू ब्वारि कैकी’, ‘मेरी डांडी कांठयू का मुल्क जैल्यू वसंत ऋतु मा जैई’, ‘जी रै जागी रै जुगराज रै तु जी रै’, ‘अपडु सी दिखेणू छै रै…पाड़ी-पाड़ी मत बोला देहरादून वाला हूं’, ‘मेरा पाड़ कु कनु खंगवाली, करी त्वेन है विधाता’ और भी गीतों में विमल बहुगुणा जी का अभिनय कहीं से अभिनय नहीं लगता है, वरन वो किरदार सचमुच में विमल जी में ही में जीने लगता है। फिर पर्दे पर ही असल जिन्दगी को जीते हुए विमल जी को नाटक करने की क्या जरूरत है। विमल बहुगुणा जी का यही अदा उनको सर्वोत्तम कलाकार का खिताब देता है।
  बीबचपन में गांव की रामलीला में ‘अहिल्या’ के पाठ से लेकर ‘उत्तराखंडी पांडवाणी’ तक के सफर में विमल बहुगुणा की अभिनय कला नाटक, गीत एलबम और फिल्मों के माध्यम से सामने आई है। ‘पांच भै कठैत’, ‘साधूनाम क्षेत्रपाल’, ‘बुढ़देवा’, ‘नंदाराज जात’, ‘चक्रव्यूह’, ‘कमल व्यूह’ नाटकों में उनका सशक्त अभिनय हम-सबके मन-मस्तिष्क में तरोताजा है। हिन्दी फिल्म ‘चार धाम’ और ‘नन्दू का राजा’ और हालीवुड फिल्म ‘देवभूमि’ में उन्होने अभिनय किया है। गढ़वाली फिल्मों के तो वे अभिनय सम्राट हैं। ‘नागरजा सेम-मुखेम’, ‘सुख का फूल दुःख का कांड़ा’, ‘सुबेरौ घाम’, भुली ए भुली’, ‘मेजर निराला’, ‘अब खा माछा’, ‘बुगठ्या गोल’, ‘दनका- दनकी’ गढ़वाली फिल्मों में उन्होने बेहतरीन अदाकारी की है। राष्ट्रीय नाट्य अकादमी (एनएसडी) और इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र दिल्ली में अनेक विख्यात नाटकों में उनका अभिनय याद किया जाता है। यह महत्वपूर्ण है कि नार्वे के प्रसिद्ध नाट्यकार इब्सन की मृत्यु शताब्दी वर्ष 2006 के अवसर पर काठमांडू (नेपाल) में आयोजित 10 देशों के नाट्य समारोह में ‘शैलनट’ संस्था का उन्होने प्रतिनिधित्व किया था। साथ ही थाईलैंड, इंडोनेशिया और मारीशस में हिन्दी साहित्य कला परिषद और शैलनट के साथियों के साथ उन्होंने सांस्कृतिक प्रस्तुतियां दी हैं। विमल बहुगुणा को मिले सम्मान में उत्तराखंड सिने अवार्ड-2014 और उत्तराखंड फिल्म एसोसिएसन के यूफा अवार्ड-2017 प्रमुख हैं।
     श्रीनगर के निकट सुमाड़ी गांव में 23 मार्च 1942 को जन्में विमल बहुगुणा जी के पिताजी का स्वर्गवास उनकी 3 वर्ष की बाल्यावस्था में हो गया था। उसके तुरंत बाद उनका परिवार सुमाड़ी गांव छोड़कर ग्राम- कोटी, पट्टी- कटूलस्यूं, पौड़ी ( गढ़वाल ) में बस गया था। एम.ए. बी.एड की उच्च शिक्षा लेने के बाद वे खादी कमीशन, भारत सरकार में ‘एरिया आरगेनाइजर’ के पद पर नियुक्त हुए। परन्तु कुछ ही समय बाद पारिवारिक स्थितियों के कारण उस नौकरी को छोड़ कर आगरा विश्वविद्यालय के श्रीनगर, महाविद्यालय में भौतिकी विभाग में ‘प्रयोगशाला सहायक’ बन गये। प्रभारी अधिकारी, अखिल भारतीय सेवाएं पूर्व परीक्षा प्रशिक्षण केन्द्र, हे. न. ब. गढ़वाल विश्वविद्यालय, श्रीनगर (गढ़वाल) के पद से वे वर्ष 2002 में सेवानिवृत्त हुये।
      श्रीनगर में वर्ष 1985 में ‘शैलनट’ संस्था के गठन होते ही विमल बहुगुणा नाटकों से जुड़ गए। ‘शैलनट’ नाट्य संस्था के वे वर्ष 1997 से 2013 तक अध्यक्ष पद पर रहे हैं। ‘शैलनट’ से 30 से अधिक नाटकों में और ‘विद्याधर श्रीकला केन्द्र’ से जुड़कर 6 लोक नाट्यों में उन्होने अभिनय किया है। वर्तमान में हिन्दी साहित्य एवं कला चैरिटेबल ट्रस्ट के वे आजीवन सदस्य एवं संरक्षक हैं। संस्कृति विभाग, भारत सरकार के सौजन्य से और हिन्दी साहित्य एवं कला चैरिटेबल ट्रस्ट के माध्यम से उत्तराखंड के विभिन्न ग्रामों एवं नगरों उपलब्ध प्राचीन पांडुलिपियों (ज्योतिष, आयुर्वेद, साहित्य और इतिहास) के संग्रह कार्य में वे शामिल रहे हैं।
   यह उल्लेखनीय है कि विमल बहुगुणा के पिता स्वर्गीय शिव प्रसाद बहुगुणा साहित्यिक अभिरूचि वाले व्यक्ति थे। सुमाड़ी के ऐतिहासिक पुरुष ‘पन्थ्या दादा’ पर उन्होने सन् 1941 में ‘पन्था’ गीत नाटिका लिखी थी। उस दौर में इस गीत नाटिका का विभिन्न गांवों में मंचन भी किया गया था जिसमें पन्था की भूमिका उनके पिता स्वयं वह निभाते थे। विमल बहुगुणा ने अपने पिताजी की रचित इसी गीत नाटिका ‘पन्थ्या’ का प्रकाशन ‘गढ़वाल अध्ययन प्रतिष्ठान, दिल्ली’ के सौजन्य से वर्ष-2017 में किया। ‘पन्थ्या’ गीत नाटिका के आधार पर ही विमल बहुगुणा ने ‘जुग-जुग तक रौलु याद सुमाड़ी कु पन्थ्या दादा’ लोकप्रिय गीत की रचना उन्होंने की है।
विमल बहुगुणा गढ़वाली नाट्य और फिल्मों के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उत्तराखंड के संस्कृतिकर्मियों में उनके अभिनय की छटा सबसे हटकर है। सांस्कृतिक गोलबन्दी, पुरुस्कारों/सम्मानों की तिकड़म और राजसत्ता के मोहजाल से दूर रहकर उनका एकाकी व्यक्तित्व अपनी धुन में ही आनंदित है। बतौर कलाकार विमल बहुगुणा गढ़वाली समाज में बेहद लोकप्रिय हैं। यह और बात है कि उनके सांस्कृतिक योगदान को अनजाने में ही सही हमेशा नजर-अंदाज किया जाता रहा है। पर मैं फिर कहूंगा कि आम गढ़वाली लोगों के मन के वे अभिनय सम्राट ही हैं।
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