देहरादून,सरकार ने विधानसभा के समक्ष मानवाधिकार आयोग का सात सालों का लेखा जोखा नहीं रखा। धारा 28 में हर वर्ष राज्य मानवाधिकार आयोग का प्रतिवेदन सरकार को प्रस्तुत करने व विधानसभा के समक्ष रखने प्राविधान है। प्रावधान प्रदेश के अधिकारियों को कर्तव्य पालन का पाठ पढ़ाने वाला उत्तराखंड मानव अधिकार आयोग ही खुद कानून पालन, पारदर्शिता तथा जवाबदेही से बच रहा है। खुद उत्तराखंड मानवाधिकार आयोग ने अपने गठन की तिथि 19 जुलाई 2011 से 31 अगस्त 2018 तक कोई भी वार्षिक रिपोर्ट तथा विशेष रिपोर्ट उत्तराखंड सरकार को उपलब्ध नहीं करायी है। उत्तराखंड मानव अधिकार आयोग के लोेक सूचना अधिकारी द्वारा नदीम उद््दीन को उपलब्ध करायी गयी सूचना से यह खुलासा हुआ है।
काशीपुर निवासी सूचना अधिकार कार्यकर्ता नदीम उद्दीन ने उत्तराखंड मानव अधिकार आयोग के नोडल विभाग गृह विभाग से मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम 1993 के प्रावधानों के अन्तर्गत वार्षिक प्रतिवेदन तथा विशेष प्रतिवेदन सरकार को उपलब्ध कराने तथा उसे विधानसभा के समक्ष रखने की सूचना मांगी थी। गृह विभाग के लोक सूचना अधिकारी ने सूचना प्रार्थना पत्र को सूचना देने के लिये उत्तराखंड मानव अधिकार आयोग के लोक सूचना अधिकारी को हस्तांतरित कर दिया। आयोग के लोक सूचना अधिकारी अहमद अली ने अपने पत्रांक 10031 दिनांक 11 सितम्बर 2018 द्वारा श्री नदीम को सूचना उपलब्ध करायी है।श्री नदीम को उपलब्ध सूचना के अनुसार उत्तराखंड मानव अधिकार आयोग ने अपने गठन की तिथि 19 जुलाई 2011 से 31 अगस्त 2018 तक की अवधि में वार्षिक रिपोर्ट एवं विशेष रिपोर्ट उत्तराखंड सरकार को प्रेषित नहीं की है। श्री नदीम ने बताया कि मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम 1993 की धारा 28(1) के अन्तर्गत आयोग का यह कर्तव्य है कि प्रत्येक वर्ष के समाप्त होने के बाद पूरे वर्ष के लेखा-जोखा , उसे प्राप्त मानवाधिकार हनन की शिकायतों की जांच आदि तथा प्रदेश में मानवाधिकार संरक्षण के लिये अपनी संस्तुतियों का उल्लेख करते हुये वार्षिक रिपोर्ट राज्य सरकार को प्रेषित करें तथा आवश्यकता होने पर विशेष रिपोर्ट प्रस्तुत करे धारा 28(2) के अन्तर्गत इस रिपोर्ट को विधानसभा के पटल पर रखना राज्य सरकार का कर्तव्य है। इससे जहां आयोग की जवाबदेही तथा पारदर्शिता सुनिश्चित होती है, वहीं मानवाधिकार संरक्षण सुनिश्चित होता है। श्री नदीम ने कहा कि पिछले सात वर्षों में से किसी की भी रिपोर्ट को सरकार को प्रेषित न करना जिसके कारण वह विधानसभा के समक्ष नहीं रखी गयी है जहां अत्यंत चिन्ताजनक है वहीं प्रदेश के मानवाधिकार संरक्षण के लिये प्रतिकूल है। उल्लेखनीय है कि उत्तराखंड गठन के 11 वर्षों बाद तो उत्तराखंड मानव अधिकार आयोग का गठन मौलाना अबुल कलाम आजाद अल्पसंख्यक कल्याण समिति (माकाक्स) द्वारा उच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर करने के बाद किया गया था तथा दो वर्षों तक अध्यक्ष की नियुक्ति नहीं की गयी थी। इसके उपरान्त अब सात वर्षों से आयोग अपने कार्यों का लेखा-जोखा ही वार्षिक रिपोर्ट के रूप में सरकार को प्रेषित करके सार्वजनिक नहीं कर रहा है। जबकि राज्य में मानवाधिकार हनन की घटनायें लगातार बढ़ रही है।
श्री नदीम ने बताया कि 2011 में उत्तराखंड मानव अधिकार आयोग के गठन के बाद से ही आयोग पारदर्शिता तथा जवाबदेही से बचता रहा है। सूचना प्रार्थना पत्रों का उत्तर देना भी 2013 में उत्तराखंड सूचना आयोग के उनकी अपील में दिये गये आदेश पर तथा सूचना आयोग द्वारा उत्तराखंड मानवाधिकार आयोग के लोक सूचना अधिकारी पर अर्थदंड लगाने के बाद ही शुरू हो पाया है।