देहरादून, दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान की ओर से आयोजित सत्संग में आशुतोष महाराज की शिष्या और देहरादून आश्रम की प्रचारिका साध्वी विदुषी कुष्मिता भारती ने कहा कि स्वच्छता के अभियान वर्तमान समय में व्यापक रूप से क्रियान्वित हो रहे हैं। यह होने भी चाहिए क्योंकि अनेकों बीमारियों के मूल में अस्वच्छता ही विद्यमान हुआ करती है। सरकारी तथा गैरसरकारी संसाधनों के माध्यम से जन-जन को स्वच्छता के प्रति जाग्रत करने का वृहद प्रयास हो रहा है, जो कि काफी हद तक सफल भी हो रहा है। मानव का मन भी बड़ा विचित्र है, यह अपने भीतर एक विशाल संसार को स्थापित किए हुए होता है, यहां भी स्वच्छता अनिवार्य रूप से अत्यन्त आवश्यक है। मानसिक गन्दगी समाज़ को विकृत परिस्थितियों की ओर धकेलती है, अशुद्ध मन संसार को गन्दगी ही परोसता है और बाहरी स्वच्छता को बेमानी बना दिया करता है। महापुरूषों का इस धरा पर जब-जब भी आगमन हुआ तो उनका एक मात्र उद्देश्य मनुष्य के भीतर भरी हुई अशुद्धता को मिटा कर परम शुद्ध भावों का निर्माण करना ही रहा है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, अंहकार, ईष्र्या और द्वेष इत्यादि अवगुणों से आच्छादित मानव मन समाज़ को विघटन ही विघटन प्रदान किया करता है। बाहर से कितनी भी सफाई कर ली जाए यदि इन भीतरी कचरे का सफाया नहीं किया गया तो दुर्गन्ध फैलना तय है, बीमारियों का आक्रमण तय है। अब प्रश्न खड़ा होता है कि भीतर की गन्दगी तो दिखलाई ही नहीं पड़ती फिर भला इसकी सफाई किस प्रकार से सम्भव है? महापुरूषों के पास वह सनातन वैदिक दिव्य तकनीक है जिसके माध्यम से प्रत्येक मनुष्य अपने भीतर प्रवेश भी कर सकता है और वहां व्याप्त गन्दगी का अवलोकन भी कर सकता है और साथ ही साथ उन सभी अशुद्धताओं की पूर्ण रूपेण सफाई भी कर सकता है। पावन धर्म-ग्रन्थ उस दिव्य तकनीक को ‘ब्रह्म्ज्ञान’ कहकर अभिवंदित करते हैं। ब्रह्म्ज्ञान भीतर जाने का मार्ग दिखाता है, ब्रह्म्ज्ञान अन्र्तजगत में फैले अंधकार के मध्य प्रकाश का संचरण करता है, ब्रह्म्ज्ञान भीतर पसरे विकारों-अवगुणों रूपी कूड़े-करकट की सफाई का प्रबन्धन करता है, ब्रह्म्ज्ञान व्यक्ति की सोई हुई ओर खोई हुई चेतना का पूर्ण जागरण किया करता है, ब्रह्म्ज्ञान मनुष्य को निर्मल और निष्पाप बना कर उसे ईश्वर के समीप ला खड़ा करता है। प्रत्येक समस्याओं का समाधान गुरू के ज्ञान में निहित है। सद्गुरू मानव के शारीरिक, आत्मिक तथा मानसिक बल का विकास किया करते है। सच्चा सुख, सच्ची शान्ति तभी सम्भव है जब तीनों स्तर तन-मन-आत्मा का पूर्ण रूपेण विकास हो जाए और तीनों में ही समन्वय स्थापित हो जाए। आध्यात्मिक उन्नति तभी सम्भव हो पाती है और मनुष्य अपने लक्ष्य ईश्वर का वरण कर पाता है। उपनिषदों में स्पष्ट रूप से कहा गया कि धर्म को धारण करने पर जीव आत्मोन्नति की दिशा में अग्रसर होने लगता है। धर्म के ही दस लक्षणों में एक लक्षण शौच अर्थात पवित्रता-शुद्धता भी है। इस लक्षण शौच (आंतरिक स्वच्छता) के सम्बन्ध में ही उपरोक्त विवेचना की गई है। कुष्मिता भारती ने कहा कि पूर्ण गुरू की कृपा से जब कोई मनुष्य ब्रह्म्ज्ञान की प्राप्ति कर लेता है तब उसके भीतर धर्म को धारण करने की क्षमता का विकास हुआ करता है। धर्म को धारण कर लेने के उपरान्त उसके जीवन में धर्म के दसों लक्षण प्रकट होने लगते हैं, इन दस लक्षणों में से एक लक्षण शौच (स्वच्छता) भी अपने पूर्ण विकास को प्राप्त होने लगता है। शौच के आ जाने पर अवगुणों का दैविक गुणों में परिवर्तन होने लगता है और मनुष्य ईश्वरीय गुणों- दया, क्षमा, शील, संतोष, धैर्य और समता, पावनता, निष्कामता तथा प्रेम से सुसम्पन्न हो जाया करता है। वास्तव में ब्रह्म्ज्ञान रूपी दिव्य दीपक के आलोक में ही भीतर की अस्वच्छता दृष्टिगोचर हुआ करती है, और तभी मानव इसे दूर करने का बीड़ा उठा पाता है। पूर्ण गुरू की शरण को प्राप्त कर लेने के उपरान्त गुरू के सानिध्य में जब शष्य साधना, सुमिरन, सेवा और सत्संग में स्वयं को लगाता है तभी उसकी सुसुप्त चेतना जाग्रत होकर उसे विवेक का उपहार प्रदान किया करती है। सद्गुरू प्रदत्त ब्रह्म्ज्ञान मन का दमन नहीं अपितु परिवर्तन किया करता है। महापुरूषों के कथनानुसार ब्रह्म्ज्ञान प्रत्येक मानव का जन्मसिद्ध अधिकार है।