हिमालय के रूप में यहां मौजूद जलस्तंभ से न सिर्फ राज्य बल्कि देश के करोड़ों लोगों की आर्थिकी व आजीविका जुड़ी है। गंगा, यमुना जैसी सदानीरा नदियों के उद्गम यहां के हिमखंडों व सघन वन क्षेत्रों में हैं। 71.05 फीसद हिस्सा वन भू-भाग है, जो बेशकीमती जड़ी-बूटियों का भंडार है। बाघ, हाथी समेत दूसरे वन्यजीवों के साथ ही परिंदों, तितलियों का अनूठा संसार यहां बसता है। पारिस्थितिकीय संतुलन को बनाए रखने में राज्य की अहम भूमिका है और सरकार के अनुमान के मुताबिक राज्य से प्रतिवर्ष तीन लाख करोड़ से ज्यादा की पर्यावरणीय सेवाएं मिल रही हैं। जैव विविधता के मामले में धनी उत्तराखंड में जैव विविधता अधिनियम के अंतर्गत सभी 7791 ग्राम पंचायतों, 101 नगर निकायों, 95 क्षेत्र पंचायतों व 13 जिला पंचायतों में बीएमसी गठित हो चुकी हैं। वे अपने-अपने पीपुल्स बायोडायवर्सिटी रजिस्टर भी बना चुकी हैं, जिनमें उनके क्षेत्र में उपलब्ध जैव संसाधनों का ब्योरा है। बीएमसी का दायित्व जैव संसाधनों के संरक्षण के साथ ही इनका व्यवसायिक उपयोग करने वालों पर नजर रखना है।

जैव विविधता बोर्ड के सदस्य सचिव के अनुसार अब फार्मूला तय हो गया है। इसके अंतर्गत प्रत्येक बीएमसी से प्रस्ताव लिया जाएगा। डीएफओ व वन संरक्षक से इसका परीक्षण कराया जाएगा। फिर लाभांश वितरण को गठित कमेटी बीएमसी के कार्यक्षेत्र आदि को ध्यान में रख राशि वितरण पर अंतिम मुहर लगाएगी। प्रयास ये है कि दो माह के भीतर बीएमसी को धनराशि का वितरण शुरू कर दिया जाए। इसे वे जैव संसाधनों के संरक्षण में व्यय करेंगी। उत्तराखंड जैव विविधता बोर्ड के अध्यक्ष ने इसकी पुष्टि की। उन्होंने बताया कि अब राज्य जैव विविधता बोर्ड भी उसके पास जमा लाभांश की राशि बीएमसी को वितरित करने जा रहा है। इसका मैकेनिज्म बनाने के लिए बोर्ड के सदस्य सचिव को निर्देश दिए गए हैं। उन्होंने कहा कि जल्द ही प्रदेश के सभी नगर व ग्रामीण निकायों में गठित बीएमसी को यह राशि वितरित की जाएगी, ताकि वे जैव संसाधनों के संरक्षण में तेजी ला सकें। यह राशि आठ करोड़ से अधिक हो चुकी है, लेकिन विभिन्न कारणों से बीएमसी को इसका वितरण लटकता आ रहा है। मगर अब असल चुनौती इन्हें गति देने की है। साथ ही तमाम कंपनियां, संस्थाएं और यहां के जैवसंसाधनों का व्यावसायिक उपयोग तो कर रहे, मगर लाभांश में से ग्रामीणों को हिस्सेदारी देने में आनाकानी कर रहे हैं।

उत्तराखंड में जैव संसाधनों के संरक्षण में जुटी आठ हजार जैव विविधता प्रबंधन समितियां (बीएमसी) अभी तक अपने हक से वंचित हैं। वह भी तब जबकि राज्य में लागू जैव विविधता अधिनियम-2002 में निहित प्रविधानों के अंतर्गत यहां के जैव संसाधनों का व्यवसायिक उपयोग कर रही कंपनियों, संस्थाओं और व्यक्तियों की ओर से आठ करोड़ रुपये से ज्यादा राशि जमा कराई जा चुकी है। उत्तराखंड जैव विविधता बोर्ड के अनुसार बीएमसी को यह राशि वितरित करने को फार्मूला निकाल लिया गया है। दो माह के भीतर इसका वितरण शुरू कर दिया जाएगा। अधिनियम में प्रविधान है कि किसी भी क्षेत्र के जैव संसाधनों का व्यवसायिक उपयोग करने वाली कंपनियां, संस्थाएं और व्यक्ति अपने सालाना लाभांश में से 0.5 से लेकर तीन प्रतिशत तक की हिस्सेदारी बीएमसी को देंगी। इसके अनुपालन में विभिन्न कंपनियां, संस्थाएं, व्यक्ति नियमित रूप से यह हिस्सेदारी जैव विविधता बोर्ड में जमा करा रहे हैं। इसके बावजूद बीएमसी को उनका यह हक देने के लिए उपयुक्त फार्मूले नहीं निकल पा रहा था।

चेयरमैन पीबीआर मॉनिटरिंग कमेटी, उत्तर भारत का कहना है कि जैव संसाधनों का संरक्षण भी हो और इनसे ग्रामीणों को लाभ भी मिले, यही अधिनियम की अवधारणा भी है। जैव विविधता का संरक्षण ग्रामीणों से बेहतर कोई नहीं कर सकता। ऐसे में पीबीआर में हर जैव संसाधन का उल्लेख, कृषिकरण, पांरपरिक ज्ञान का अभिलेखीकरण पर ध्यान देना होगा। साथ ही यह सुनिश्चित करना होगा कि जैव संसाधनों का व्यवसायिक उपयोग कर रहे लोग हर हाल में लाभांश में से बीएमसीको को हिस्सेदारी दें।

जैव संसाधनों के अनियंत्रित दोहन से यहां की जैवविविधता के सामने खतरे भी कम नहीं हैं। बड़े पैमाने पर जैव संसाधनों की तस्करी अक्सर सुर्खियां बनती रही हैं। इसी वजह से फ्लोरा-फौना की 31 प्रजातियों पर संकट के बादल मंडराने लगे हैं। हालांकि, राज्य में जैव विविधता संरक्षण अधिनियम 2017 से लागू है, लेकिन इसके क्रियान्वयन के साथ ही जनसामान्य को जागरूक करने के मद्देनजर प्रभावी कदम उठाने की दरकार है  उत्तराखंड की जैव विविधता बेजोड़ है। इसे बचाना भी है और रोजगार से भी जोड़ना है। इसके तहत सीमांत गांवों के लिए विशेष कार्यक्रम चलाया जाना चाहिए। बीएमसी अधिक सक्रिय हों, इसके लिए ठोस रणनीति के साथ आगे बढ़ना होगा। जैव समृद्धि से यहां व्याप्त उस विडम्बना को समाप्त करने में मदद मिलेगी जिसमें प्राथमिक संरक्षणकर्ता गरीब बना रहता है जबकि उसके ज्ञान और सामग्री का उपयोग करने वाले धनी बन जाते हैं। जैव भागीदारी जिससे जैव समृद्धि का मार्ग प्रशस्त होता है, जैव विविधता और जैव प्रौद्योगिकी से संबंधित जननीतियों को मार्गदर्शन मिलना चाहिए।।

   ये लेखक के निजी विचार हैं !

डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला ( दून विश्वविद्यालय )

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