दून घाटी मुख्यतः तीन भागों में बंटी हुई है। केन्द्र में देहरादून है जिसके पूर्वी भाग को परवादून और पश्चिमी भाग को पछवादून कहा जाता है। पछवादून में नगर से लगभग 16-17 किमी की दूरी पर ’’बिधौली’’ गांव है। इस गांव की जमीदारी कुकरेेती जाति के लोगों के पास है। कुकरेती गढ़वाली ब्राह्मण हैं जिनके आदि पुरूष चोदहवीं शताब्दी में द्रविड़ प्रदेश से यहां गढ़वाल के कुकुरकाटा में आकर बसे थे और फिर कालान्तर में यहां से उनके वंशज अन्यत्र जाकर रहने लगे। संभवतया राज दरबार या फिर दरबार श्री गुरू राम राय की निकटता के चलते कुकरेती महानुभावों को बिधौली गांव की जागीर भेंटस्वरूप प्राप्त हुई हो।
इस तरह से इस गांव में रहने वाले बहुसंख्यक लोग कुकरेती हैं जिनमें से कुछ के निवास स्थान देहरादून नगर में भी हैं। बढते शहरीकरण और विकास के नाम पर अनियंत्रित अनियोजित कंक्रीटी निर्माण से यह गांव प्रभावित हुआ है। आज यहां जगह जगह हाॅस्टल, रेस्तराॅ आपको मिल जायेंगे। पेट्रोलियम यूनिवर्सिटी का विशाल केम्पस भी इसी गांव में स्थित हैै। बिधौली में दूधा देवी का प्राचीन मंदिर भी है। यह यहां के कुकरेती बंधुओं की कुलदेवी भी है। बिधौली एक प्राचीन गांव हैं यह बात इस मंदिर में जाकर पुष्ट हो जाती है।इस बिधौली व मंदिर के विषय में एक बार हमारे इतिहासविद् व प्रकृति प्रेमी मित्र भाई अजय शर्मा ने जिक्र किया था। उन्होंने हमे बताया था कि इस मंदिर के प्रांगण में आज भी पाषाणों की खंडित प्राचीन मूर्तियां रखी हुई हैं। अब इस प्राचीन गांव का मंदिर और वहां रखी ऐतिहासिक मूर्तियों को देखने के मोह से हम कहां बच पाते। आखिर हम (मैं और इन्द्रेश) मंगलवार को प्रेमनगर में अवारा पशुओं के हमले से चोटिल होने के बावजूद भी बिधौली गांव पहुंच ही गये।
’’बिधौली’’ जैसा कि पहले बताते आये हैं कि एक प्राचीन जगह है। इतिहासकार मित्र अजय शर्मा बताते हैं कि इस जगह का प्राचीन नाम बुद्ध आली है और मोर्य काल में बौद्ध धर्म का यह एक केन्द्र रहा हैं। कालसी देहरादून में स्थित शिलालेख इस बात की ताकीद तो करते हैं कि मोर्य वंश ( 322-185 ई0पू0)के शासन काल में स्रमाट अशोक के समय (269-232 ई0पू0) कालसी एक समृद्ध नगर रहा होगा। सम्राट अशोक बौद्ध धर्म का प्रचार प्रसार करने दूर दूर तक गये थे। इसी सिलसिले में वे यहां बुद्ध आली,लांघा, कटा पत्थर होते हुये कालसी आये थे। 185 ईसापूर्व में मौर्य वंश का अवसान हो चुका था। मोर्य वंश की समाप्ति पर राज्य में ब्राह्मणों का कब्जा हो गया था। ये ब्राह्मण शुंगवंशी कहलाये। पुष्पमित्र शुंग पहला शुंगवंशी राजा हुआ।
इन्होंने अपने शासनकाल में बौद्ध मठों में बौुद्ध प्रतीकों को प्रतिस्थापित किया। अश्वमेघ यज्ञ आयोजन किये जाने की परंपरा शुरू की गई। इन मूर्तियों में लंबे आकार के अनगढ़ से शिवलिंग, पाषाण को काट शिव आदि प्रमुख है। बुद्ध आली का कालान्तर में नाम बिधौली हो गया। यहां दूधा देवी मदिंर के प्रांगण में रखी गई पाषाण की आकृतियां और मूर्तियां इस जगह के इतिहास को आज भी अपने गर्भ में छिपाये हुये हैं। पता नही क्यों आज तक पुरातत्व विभाग और इतिहासकारों का ध्यान इस तरफ नही गया।
साभार – विजय भट्ट, इंद्रेश नोटियाल, अजय शर्मा
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