(आलेख : संजय पराते)
विकसित देशों में यदि खेती-किसानी चौपट होती है, तो उसका असर कितने लोगों पर पड़ेगा? केवल 2 से 4% आबादी पर ही, क्योंकि इतने ही लोग कृषि क्षेत्र से जुड़े हैं. लेकिन ऐसा होना संभव नहीं है, क्योंकि वहां की सरकारें किसानों को भारी सब्सिडी देती है. उदाहरण के तौर पर जापान को ही लें, जो आरसीईपी व्यापार समझौते में शामिल होने वाला एक प्रमुख देश है. जापान सरकार अपने देश के किसानों और डेयरी उत्पादकों के संरक्षण के लिए हर साल 33.8 अरब डॉलर या 2.5 लाख करोड़ रुपयों से अधिक की सब्सिडी देती है. सब्सिडी का यह परिमाण प्रति किसान औसतन 3 लाख रूपये से अधिक बैठता है. सब्सिडी की यह इतनी भारी मात्रा है कि भारतीय किसानों की आंखें चौंधिया जाएगी, क्योंकि इतना तो वह तीन साल में कमा नहीं पाता. नाबार्ड की रिपोर्ट बताती है कि देश में 85% किसान सीमांत और लघु किसानों की श्रेणी में आते हैं, जिनके पास एक हेक्टेयर से भी कम भूमि है और साल भर में वे कृषि, पशुपालन, मजदूरी और दीगर कामों से औसतन एक लाख सात हजार रूपये सालाना ही कमा पाते हैं. इसमें कृषि का हिस्सा 3078 रूपये महीना है, तो पशुपालन के जरिये वे औसतन 2200 रूपये महीना ही पाते हैं. अब इस एक लाख रूपये कमाने वाले भारतीय किसान को कहा जा रहा है कि तीन लाख रूपये सरकारी सहायता पाने वाले जापान के किसान का मुकाबला करें. आरसेप व्यापार समझौते में यदि भाजपा-नीत मोदी सरकार भारत को शामिल करती है, तो इस मुकाबले में किसकी जीत होगी, यह तय है.
न्यूज़ीलैण्ड भी इस समझौते में शामिल होने वाला एक और देश है, जो अपने देश में उत्पादित दुग्ध उत्पादों का 93% निर्यात करता है, जो दुनिया के कुल दुग्ध उत्पादों के निर्यात का 30% होता है. भारी सब्सिडी के बल पर न्यूज़ीलैण्ड में स्किम्ड मिल्क की उत्पादन लागत 160-170 रूपये लीटर पड़ती है, जिस पर हमारे देश में 64% टैक्स लगता है और भारतीय बाज़ार में वह 280-300 रूपये लीटर बिकता है. भारत के विश्व व्यापार संगठन में शामिल होने और अटल राज में खाने-पीने की चीजों पर लगी मात्रात्मक पाबंदी को हटा लेने के बाद भारतीय बाज़ार इस दूध से पट गए हैं. भारत में स्किम्ड मिल्क उत्पादन की लागत 260-270 रूपये लीटर पड़ती है. कृषि विशेषज्ञों के अनुसार पिछले वर्ष भारत में 3.15 लाख करोड़ रूपये मूल्य का 18.77 करोड़ टन दूध का उत्पादन हुआ था. यह वैश्विक उत्पादन का पांचवां हिस्सा है. भारत में दूध सहकारिता का जो जाल फैला है, उसकी छतरी के नीचे 10 करोड़ किसान परिवार आते हैं और इन सहकारिताओं की आय का 70% हिस्सा किसानों की जेब में जाता है. यह आम अनुभव है कि दूध उत्पादन से हो रही आय से किसान परिवारों को खेती-किसानी करने में प्रत्यक्ष मदद मिलती है. अब आरसेप व्यापार समझौते के तहत दुग्ध उत्पादनों पर आयात शुल्क शून्य हो जाएगा, तो भारतीय किसानों का, जो पशुपालक भी हैं, बर्बाद होना तय है. विदेशों में तो क्या, भारत में भी इस दूध का कोई खरीददार नहीं मिलेगा.
इस समझौते के दायरे में फल, सब्जियां, मसाले और मछली आदि भी हैं. हमारे देश में 11 करोड़ टन फल और सब्जियों का उत्पादन होता है. लेकिन निर्यात हम केवल 150 करोड़ डॉलर का ही कर पाते हैं. इस समझौते से इसमें भी कमाई का कोई मौका नहीं मिलने वाला है. परंपरागत मछुआरों की आजीविका भी बर्बाद होगी ही. ऑटोमोबाइल, इलेक्ट्रॉनिक्स, कपड़ा, स्टील उद्योग भी इस समझौते से अछूते नहीं हैं. यही कारण है कि उद्योग जगत भी इसके खिलाफ खड़ा हो रहा है.
इस क्षेत्रीय व्यापार समझौते में चीन भी शामिल होने जा रहा है, जिसके औद्योगिक और मैन्युफैक्चरिंग माल से आज भारतीय बाज़ार का 6वां हिस्सा पट गया है. चीन व भारत के बीच व्यापार में भुगतान संतुलन चीन के पक्ष में है. वर्ष 2012-13 में चीन के साथ हमारा व्यापार घाटा 38.67 अरब डॉलर का था, जो आज बढ़कर 53 अरब डॉलर तक पहुंच गया है. इसका अर्थ है कि चीन ने पिछले साल भारत में 74 अरब डॉलर का सामान बेचा, तो भारत केवल 21 अरब डॉलर का सामान ही चीन में बेच पाया था. इस समझौते के बाद, आयात शुल्कों पर लगे प्रतिबंध हटने के कारण, भारतीय बाज़ार तो और सस्ते चीनी माल से और ज्यादा पट जायेंगे, लेकिन चीनी बाजारों में भारतीय मालों की जगह दूसरे देशों की हिस्सेदारी बनने लगेगी.
दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के संगठन (आसियान) के साथ हमने जो मुक्त व्यापर का रास्ता अपनाया, एशिया का प्रमुख देश होते हुए भी उसने हमें कोई बरकत नहीं दी. आज आसियान के साथ हमारा व्यापार घाटा 22 अरब डॉलर तक पहुंच गया है. इस व्यापार घाटे का लगभग आधा खाद्य तेलों के निर्यात का है. भारतीय बाज़ार पर मलेशिया के घटिया और हानिकारक पाम आयल ने कब्ज़ा कर लिया है और इस क्षेत्र में हमारी आत्मनिर्भरता ख़त्म हो गई है. हमने निर्यात कम किया है और आयात बहुत अधिक. कारण बहुत स्पष्ट हैं. विदेशी माल सरकारी सब्सिडी के कारण भारतीय मालों की तुलना में सस्ते हैं.
आरसेप समझौते में शामिल हो रहे 15 में से 11 देशों के साथ वर्ष 2017-18 में हमारा व्यापार घाटा 107.28 अरब डॉलर या 8 लाख करोड़ रूपये का था. भारत पूरी दुनिया से जितना आयात करता है, उसका एक-तिहाई से ज्यादा इन्हीं देशों से आता है. जबकि पूरी दुनिया को जितना निर्यात करता है, उसका पांचवां हिस्सा ही इन देशों को भेजता है. केवल चार देश हैं, जिनके साथ व्यापार करना भारत के लिए फायदेमंद हैं. लेकिन इस समझौते में शामिल होने के बाद व्यापार के नाम पर केवल घाटा ही उठाना है, क्योंकि हमारे एक शुद्ध आयातक देश में तब्दील होने का खतरा बढ़ जाएगा. इससे हमारी आत्म-निर्भरता भी ख़त्म हो जायेगी.
विश्व व्यापार संगठन का उद्देश्य ही यही था कि विकसित देशों में तैयार मालों का बाज़ार तीसरी दुनिया के देशों में बनाया जाएं. पहले अमेरिका अपने यहां उत्पादित अधिक अनाज को समुद्र में फेंक देता था. इस संगठन ने इस पर मुनाफा कमाने का रास्ता खोल दिया. इन विदेशी कृषि वस्तुओं का भारत में बाज़ार बनाने के लिए लगातार सब्सिडी घटाए जाने के जरिये भारतीय कृषि की उत्पादन लागत बढ़ाई गई, घोषित समर्थन मूल्य वास्तविक लागत से बहुत नीचे रखा गया और इस कीमत पर भी सरकार ने इसे खरीदा नहीं. हमारे देश में खेती-किसानी घाटे का सौदा यूं ही नहीं बन गई. सार्वजनिक वितरण प्रणाली का भी खचड़ा बैठाया गया. इस प्रकार किसान और मेहनतकश उपभोक्ता दोनों को बाजारवादी अर्थव्यवस्था में लाकर पटक दिया गया. किसानों की बढ़ती ऋणग्रस्तता, उनकी बढ़ी आत्महत्या, वैश्विक गरीबी और भूख सूचकांक में लगातार नीचे आना – यह सब इसी का नतीजा है.
पूरी दुनिया वैश्विक मंदी के दौर से गुजर रही है. इस मंदी से निपटने के लिए अमीर देश दूसरे विकासशील देशों के बाजारों पर कब्ज़ा करना चाह रहे हैं और इसके रास्ते में आने वाले सभी प्रतिबंधात्मक क़दमों को, विशेषकर आयात शुल्कों और मात्रात्मक प्रतिबंधों को, ख़त्म करने का दबाव डाल रहे हैं. अपने घर में तो वे संरक्षणवादी कदम उठा रहे हैं, लेकिन दूसरे देशों से कह रहे हैं कि सब्सिडी घटाएं!
इस मंदी से निपटने का एकमात्र रास्ता यही है कि सरकार ऐसे कदम उठायें कि आम जनता के जेब में पैसे आये, ताकि घरेलू बाज़ार में उछाल आये. इसके लिए रोजगारों के संरक्षण और नए रोजगारों का सृजन करने की जरूरत है. इसके लिए अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में संरक्षणवादी कदम उठाने की जरूरत है. यह क्षेत्रीय व्यापार समझौता इसकी पूर्ति नहीं करता, क्योंकि यह कृषि और उद्योग के क्षेत्र से जुड़े रोजगारों को ख़त्म करने का ही काम करेगा. हमारी अर्थव्यस्था को बचाने का एक ही तरीका है कि हमारी जो भी जरूरत है, जितनी भी जरूरत है, केवल उसका ही आयात किया जाए और आयातित वस्तुओं पर इतना शुल्क लगाया जाएं कि हमारे बाजार में उसकी कीमत हमारे घर की लागत से कम न हो.
4 नवम्बर को इस क्षेत्रीय व्यापार समझौते को अंतिम रूप दिया जा रहा है. इसी दिन पूरे देश में इस समझौते के खिलाफ विरोध प्रदर्शन भी आयोजित किए जा रहे हैं. आईये, इस देश की जनता को स्वाहा करने वाले इस समझौते में शामिल होने की मोदी सरकार के फैसले के खिलाफ जोरदार आवाज़ उठायें.
वे सब कुछ लुटाने पर तुले हैं, हमारी लड़ाई सब कुछ बचाने की है. हमारी अर्थव्यस्था, हमारी आत्मनिर्भरता, हमारी खेती और उद्योग – सब कुछ!!