डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला (दून विश्वविद्यालय)
देश में उत्तराखंड शायद अकेला राज्य होगा जहां आज भी अंग्रेजों के जमाने से की गई राजस्व पुलिस व्यवस्था कायम थी। लेकिन बदलते दौर में यह व्यवस्था अपराधों पर अंकुश लगाने में कारगर साबित नहीं हो पा रही। लंबे समय से इसमें बदलाव की बात उठ रही है। हालांकि इस दिशा में फिलहाल कोई कदम नहीं उठाया गया। आखिरकार अब उच्च न्यायालय ने भी सरकार को यह व्यवस्था छह माह में खत्म करने के आदेश दे दिए हैं। दरअसल, सौ साल पहले अंग्रेजों ने राजस्व वूसली से जुड़े कर्मचारियों को पुलिस के अधिकार देकर कानून-व्यवस्था के संचालन का दायित्व भी सौंपा था। शायद तब के लिए यह फैसला दुरुस्त रहा हो, वजह यह कि उस जमाने में पहाड़ों में यदा-कदा ही अपराध के बारे में कुछ सुनाई देता था।
दरअसल, अंग्रेजी हुकूमत के दौरान वर्ष 1816 में कुमाऊं के तत्कालीन ब्रिटिश कमिंश्नर ने पटवारियों के 16 पद सृजित किए गए थे। इन्हें पुलिस, राजस्व संग्रह, भू अभिलेख का काम दिया गया था। वर्ष 1874 में पटवारी पद का नोटिफिकेशन हुआ। रजवाड़ा होने की वजह से टिहरी, देहरादून, उत्तरकाशी में पटवारी नहीं रखे गए। साल 1916 में पटवारियों की नियमावली में अंतिम संशोधन हुआ। 1956 में टिहरी, उत्तरकाशी, देहरादून जिले के गांवों में भी पटवारियों को जिम्मेदारी दी गई। वर्ष 2004 में नियमावली में संशोधन की मांग उठी तो 2008 में कमेटी का गठन किया गया और 2011 में रेवेन्यू पुलिस एक्ट अस्तित्व में आया। रेवेन्यू पुलिस एक्ट बना तो दिया गया, लेकिन आज तक कैबिनेट के सामने पेश नहीं किया गया। हालांकि अब भी मैदानी क्षेत्रों की तुलना में पहाड़ शांत हैं, लेकिन राज्य बनने के बाद शांत वादियों में शातिरों की हलचल महसूस की जाने लगी है। चोरी और लूट के साथ ही हत्या जैसे जघन्य अपराध भी यहां दर्ज किए जाने लगे हैं।
राजस्व पुलिस: यानि बिना ‘हथियार’ का ‘चौकीदार’
दूसरी ओर पुलिस का कार्य देख रही राजस्व पुलिस के पास न तो शातिरों से निपटने के लिए पर्याप्त संसाधन हैं और न ही स्टाफ। ऐसे में पटवारी लंबे समय से इस दायित्व से खुद को अलग करने की मांग करते रहे हैं। इसके लिए उन्होंने कई बार आंदोलन तक किया। प्रदेश में सिर्फ हरिद्वार और ऊधमसिंह नगर ही ऐसे जिले हैं जहां राजस्व पुलिस नहीं है, अन्यथा 11 जिलों के 12 हजार से ज्यादा गांवों की सुरक्षा पटवारियों के हाथ में ही है। आलम यह है कि पहाड़ी जिलों में थानों की संख्या दो से लेकर सात तक है। जिस तरह से शांत वादियों में शातिरों की हलचल बढ़ती जा रही है, उसे देख यह जरूरी हो गया है कि अब पहाड़ी जिलों में कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी रेगुलर पुलिस को सौंपी जाए।
भौगोलिक विकट परिस्थितियों के कारण पहाड़ आवागमन की असुलभता काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। अंकिता भण्डारी हत्याकांड में जिस तरह से राजस्व उप निरीक्षक का हत्या आरोपी के प्रभाव में आने से फरियादी अंकिता भण्डारी के पिता को पिछले 18 सितम्बर से 22 सितम्बर तक अपनी प्राथमिकी दर्ज कराने के लिए पटवारी चौंकी के चक्कर काटने के बाद भी राजस्व पुलिस द्वारा प्राथमिकी दर्ज नहीं की गई इसके यह प्रतीत होता है कि इस सूचना प्रौद्योगिकी के युग में सम्पूर्ण उत्तराखण्ड को राजस्व पुलिस की अपेक्षा रेगुलर पुलिस में बदलने की आवश्यकता महसूस हो रही है।
इतिहास के पन्नों में दर्ज होने की तैयारी
विधानसभा अध्यक्ष महोदया का इस सम्बन्ध में माननीय मुख्यमंत्री को लिखा खुला पत्र सरकार की विवेचना के लिए महत्वपूर्ण पत्र है। इसको आगामी विधानसभा सत्र में एक विधेयक के रूप में लगाकर इसे विधानसभा में पारित कराकर इसे कानूनी शक्ल देनी की आवश्यकता है। उत्तराखंड में राजस्व पुलिस व्यवस्था निकट भविष्य में समाप्त हो जाएगी। कैबिनेट ने प्रदेश में चरणबद्ध तरीके से राजस्व पुलिस व्यवस्था को समाप्त करने के प्रस्ताव को स्वीकृति दे दी है।पहले चरण में पुलिस थानों से सटे राजस्व क्षेत्रों को सिविल पुलिस क्षेत्र में शामिल किया जा रहा है। साथ ही कैबिनेट ने पर्यटन व आर्थिक गतिविधियों वाले राजस्व क्षेत्रों में छह थाने और 20 चौकियों की स्थापना को मंजूरी दी है।
राजस्व पुलिस के पास रेगुलर पुलिस जैसा न तो अपराध की जांच का अनुभव होता है और न तकनीक। राज्य बनने के बाद से बाहरी लोगों की संख्या अचानक से बढ़ने लगी। सामान्य अपराध से लेकर आधुनिक साइबर क्राइम और नशा तस्करी भी होने लगी। अदालत में अगर सिवलि पुलिस और राजस्व पुलिस क्षेत्र के अपराध के तुलनात्मक आंकड़े पेश किये जाते तो स्थिति स्पष्ट हो जाती। वर्ष 2015-16 में प्रदेश के 60 प्रतिशत भाग की कानून व्यवस्था संभालने वाली राजस्व पुलिस के क्षेत्र में केवल 449 अपराध दर्ज हुये जबकि सिविल पुलिस के 40 प्रतिशत क्षेत्र में यह आंकड़ा 9 हजार पार कर गया। अदालतों में दाखिल मामलों में भी सिविल पुलिस कहीं भी राजस्व पुलिस के मुकाबले नहीं ठहरती। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के 2021 के आंकड़े बताते हैं कि हत्या के मामलों में लगभग 42.4, बलात्कार में 28.6 प्रतिशत, अपहरण में 29.3 प्रतिशत और बलवा में 21.9 प्रतिशत मामलों में ही सजा हो पाती है। जबकि राजस्व पुलिस द्वारा दाखिल अपराधिक मामलों में सजा का प्रतिशत 90 प्रतिशत तक होता है। यह इसलिये कि राजस्व पुलिस के लोग समाज में पुलिसकर्मियों की तरह अलग नहीं दिखाई देते। जहां तक सवाल समय के साथ बदली परिस्थितियों में अपराधों के वैज्ञानिक विवेचन या जांच में अत्याधुनिक साधनों का सवाल है तो राज्य सरकार की ओर से अदालत में उत्तराखण्ड पुलिस एक्ट 2008 की धारा 40 का उल्लेख नहीं किया गया। इस धारा में कहा गया है कि ‘‘अपराधों के वैज्ञानिक अन्वेषण, भीड़ का विनियमन और राहत, राहत कार्य और ऐसे अन्य प्रबंधन, जैसा जिला मजिस्ट्रेट द्वारा आपवादिक परिस्थितियों में जिले के पुलिस अधीक्षक के माध्यम से निर्देश दिया जाये, पुलिस बल और सशस्त्र पुलिस इकाइयों द्वारा ऐसी सहायता देना एवं अन्वेषण करना, जो राजस्व पुलिस में अपेक्षित हो विधि सम्मत होगा।’’
गंभीर अपराधों के ज्यादातर मामले राजस्व पुलिस से सिविल पुलिस को दिये जाते रहे हैं। ऐसा नहीं कि सिविल पुलिस हर मामले को सुलझाने में सक्षम हो। अगर ऐसा होता तो थानों में दर्ज अपराधिक मामलों की जांच अक्सर सिविल पुलिस से सीआईडी, एसआईटी और कभी-कभी सीबीआई को क्यों सौंपे जाते? सरकार चरणबद्ध तरीके से हस्तांतरण प्रक्रिया शुरू कर रही है। देश के समस्त थाने आज ‘क्राइम क्रिमिनल ट्रैकिंग नेटवर्क एंड सिस्टम ‘ (सीसीटीएनएस) से जुड़े हुए हैं। इस वजह से जानकारी का आदान-प्रदान आसानी से किया जा सकता है। नए प्रकार के अपराधों जैसे साइबर क्राइम, चिटफंड अपराध आदि से निपटने के लिए पुलिस को अलग-अलग तरह का प्रशिक्षण दिया जा रहा है। पुलिस थानों को बेहतर संसाधनों से सुसज्जित किया जा रहा है और सीसीटीवी स्थापित किए जा रहे हैं, ताकि मानव अधिकारों का उल्लंघन रोका जा सके। ऐसी अवस्था में बिना उचित प्रशिक्षण, पर्यवेक्षण, संसाधनों के ! बिना वर्दी वाले राजस्व विभाग को गंभीर अपराधों के अनुसंधान की जिम्मेदारी देना आपराधिक न्याय प्रणाली के साथ खिलवाड़ से कम नहीं है।
एक ओर जहां पुलिस को आधुनिक कर उसमें सुधारों के लिए प्रयास जारी हैं , वहीं एक सदी पहले से लागू ऐसी व्यवस्था, जिसे अंग्रेजों ने केवल अपना राज बनाए रखने के लिए तत्समय समुचित समझा, को समुचित व नियमित पुलिस व्यवस्था से बदलने में और विलंब करना उचित नहीं होगा। अब देखना यह है कि राज्य सरकार 1225 पटवारी सर्किलों के लिये इतने थानों और हजारों पुलिसकर्मियों का इंतजाम कैसे करती है और कैसे पहाड़ी समाज वर्दीधारी पुलिसकर्मियों को गावों में सहन करती है। वैसे भी राजस्व का काम ही बहुत कम है। खेती की 70 प्रतिशत से अधिक जोतें आधा हेक्टेयर से कम हैं इसलिये ऐसी छोटी जोतों से सरकार को कोई राजस्व लाभ नहीं होता। अगर पुलिसिंग का दायित्व छिन जाता है तो समझो कि पहाड़ के पटवारी कानूनगो बिना काम के रह जायेंगे। इसके साथ ही अल्मोड़ा का पटवारी ट्रेनिंग कालेज और राजस्व पुलिस के आधुनिकीकरण पर लगाई गयी सरकारी रकम भी बेकार चली जायेगी।