देहरादून देशव्यापी अभियान के तहत आज राजधानी देहरादून के गांधी पार्क में वामपंथी दलों भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (एमएल) के तत्वाधान धरना देकर जिलाधिकारी के माध्यम से राष्ट्रपति को ज्ञापन प्रेषित किया गया. ज्ञापन के माध्यम से रोजगार में सार्वजनिक निवेश बढ़ाकर रोजगार सृजन करना, रोजगार ना मिलने तक बेरोजगारी भत्ता देने,न्यूनतम मजदूरी ₹18000 देने, मंदी के कारण जिन कामगारों की नौकरियां समाप्त हुई, उन्हें जीवनयापन हेतु वेतन देना व एयर इंडिया सहित अन्य संस्थानों के निजीकरण को रोके जाने की मांग की गई. वहीं मनरेगा आवंटन बढ़ाकर कम से कम 200 दिन का रोजगार देने कृषि संकट दूर करने के लिए एक मुफ्त कर्ज माफी, उपर से डेढ़ गुना दाम न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करना, वृद्धावस्था, विकलांग व विधवा पेंशन कम से कम 3000 करने की बात कही गई है .

सभा में कामरेड इन्द्रेश द्वारा जनगीत गाकर लोगों में जोश भरा विडियो देखने के लिए यहाँ क्लिक करें .

धरने का नेतृत्व सीपीआई के राज्य सचिव कामरेड समर भंडारी सीपीएम के राज्य सचिव राजेंद्र सिंह नेगी व सीपीआई एमएल के राज्य सचिव राजा बहुगुणा ने संयुक्त रूप से किया धरने में संयुक्त रूप से सुरेंद्र सिंह सजवान ,आलोक शर्मा, गंगाधर नौटियाल, बच्ची राम कांसवाल, इंद्रेश मैखुरी, कैलाश पांडे, राजेंद्र पुरोहित,कमलेश खंतवाल, ईश्वर पाल,अनंत आकाश, लेखराज, शिवप्रसाद देवली, सतीश धोलाखंडी, हिमांशु चौहान,अनुराधा,शैलेन्द्र परमार,सुप्रिया भंडारी,काजल,नासिर एवं जयंती आदि प्रमुख थे

निजीकरण व्यवस्था नहीं बल्कि पुनः रियासतीकरण है

मात्र 70 साल में ही बाजी पलट गई। जहाँ से चले थे उसी जगह पहुंच रहे हैं हम। फर्क सिर्फ इतना कि दूसरा रास्ता चुना गया है और इसके परिणाम भी ज्यादा गम्भीर होंगे। 1947 जब देश आजाद हुआ था। नई नवेली सरकार और उनके मंन्त्री देश की रियासतों को आजाद भारत का हिस्सा बनाने के लिए परेशान थे।तकरीबन 562 रियासतों को भारत में मिलाने के लिए साम दाम दंड भेद की नीति अपना कर अपनी कोशिश जारी रखे हुए थे। क्योंकि देश की सारी संपत्ति इन्हीं रियासतों के पास थी। कुछ रियासतों ने नखरे भी दिखाए, मगर कूटनीति और चतुरनीति से इन्हें आजाद भारत का हिस्सा बनाकर भारत के नाम से एक स्वतंत्र लोकतंत्र की स्थापना की और फिर देश की सारी संपत्ति सिमट कर गणतांत्रिक पद्धति वाले संप्रभुता प्राप्त भारत के पास आ गई ।धीरे धीरे रेल, बैंक, कारखानों आदि का राष्ट्रीयकरण किया गया और एक शक्तिशाली भारत का निर्माण हुआ । मात्र 70 साल बाद समय और विचार ने करवट ली है। फासीवादी ताकतें पूंजीवादी व्यवस्था के कंधे पर सवार हो राजनीतिक परिवर्तन पर उतारू है। लाभ और मुनाफे की विशुद्ध वैचारिक सोच पर आधारित ये राजनीतिक देश को फिर से 1947 के पीछे ले जाना चाहती है। यानी देश की संपत्ति पुनः रियासतों के पास…….! लेकिन ये नए रजवाड़े होंगे कुछ पूंजीपति घराने और कुछ बड़े बडे राजनेता ! निजीकरण की आड़ में पुनः देश की सारी संपत्ति देश के चन्द पूंजीपति घरानो को सौंप देने की कुत्सित चाल चली जा रही है। उसके बाद क्या ..?निश्चित ही लोकतंत्र का वजूद खत्म हो जाएगा। देश उन पूंजीपतियों के अधीन होगा जो परिवर्तित रजवाड़े की शक्ल में सामने उभर कर आयेंगे। शायद रजवाड़े से ज्यादा बेरहम और सख्त। यानी निजीकरण सिर्फ देश को 1947 के पहले वाली दौर में ले जाने की सनक मात्र है। जिसके बाद सत्ता के पास सिर्फ लठैती करने का कार्य ही रह जायेगा। सोचकर आश्चर्य कीजिये कि 562 रियासतों की संपत्ति मात्र चन्द पूंजीपति घरानो को सौंप दी जाएगी। ये मुफ्त इलाज के अस्पताल, धर्मशाला या प्याऊ नहीं बनवाने वाले। जैसा कि रियासतों के दौर में होता था। ये हर कदम पर पैसा उगाही करने वाले अंग्रेज होंगे। कुछ समय बाद नव रियासतीकरण वाले लोग कहेगें कि देश के *सरकारी अस्पतालों, स्कूलों, कालेजों से कोई लाभ नहीं है अत: इनको भी निजी हाथों में दे दिया जाय तो जनता का क्या होगा ? अगर देश की आम जनता प्राइवेट स्कूलों और हास्पिटलों के लूटतंत्र से संतुष्ट है तो रेलवे को भी निजी हाथों में जाने का स्वागत करें. हमने बेहतर व्यवस्था बनाने के लिए सरकार बनाई है न कि सरकारी संपत्ति मुनाफाखोरों को बेचने के लिए। सरकार घाटे का बहाना बना कर सरकारी संस्थानो को बेच क्यों रही है ? अगर प्रबंधन सही नहीं तो सही करे। भागने से तो काम नही चलेगा। यह एक साजिश के तहत सुनियोजित तरीके से किया जा रहा है . पहले सरकारी संस्थानों को ठीक से काम न करने दो, फिर बदनाम करो, जिससे निजीकरण करने पर कोई बोले नहीं, फिर धीरे से अपने आकाओं को बेच दो जिन्होंने चुनाव के भारी भरकम खर्च की फंडिंग की है। याद रखिये पार्टी फण्ड में गरीब मज़दूर, किसान पैसा नही देता, पूंजीपति देता है और पूंजीपति दान नहीं देता, निवेश करता है, चुनाव बाद मुनाफे की फसल काटता है। आइए विरोध करें निजीकरण का,सरकार को अहसास कराएं कि वह अपनी जिम्मेदारियों से भागे नहीं। सरकारी संपत्तियों को बेचे नहीं। अगर कहीं घाटा है तो प्रबंधन ठीक से करे। वैसे भी सरकार का काम सामाजिक होता है। मुनाफाखोरी नहीं वर्तमान में कुछ नासमझ लोग चंद टुकड़ों के लिए झंडे और डंडे पकड़ के अपने आकाओं की चाटूगिरी में मग्न है, क्या वह बता सकते हैं यह अपने आने वाली पीढ़ी को कैसा भारत देंगे ?