पूर्व प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के जन्मदिवस जिसे भारत में बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है इस अवसर पर राजीव तिवारी का ये लेख जरूर पढ़ा जाना चाहिए जो आपको नेहरू को जानने समझने की समझ देगा…
जब जवाहरलाल नेहरू ने 3 सितंबर 1946 को अंतरिम सरकार में शामिल होने का फैसला किया तो उन्होंने आनंद भवन को छोड़ कर अपनी सारी संपत्ति देश को दान कर दी.
नेहरू को पैसे से कोई खास लगाव नहीं था. उनके सचिव रहे एम ओ मथाई अपनी किताब रेमिनिसेंसेज़ ऑफ़ नेहरू एज में लिखते हैं कि 1946 के शुरू में उनकी जेब में हमेशा 200 रुपए होते थे, लेकिन जल्द ही यह पैसे ख़त्म हो जाते थे क्योंकि नेहरू यह रुपए पाकिस्तान से आए परेशान शरणार्थियों में बांट देते थे.
ख़त्म हो जाने पर वह और पैसे मांगते थे. इस सबसे परेशान हो कर मथाई ने उनकी जेब में रुपए रखवाने ही बंद कर दिए.
लेकिन नेहरू की भलमनसाहत इस पर भी नहीं रुकी. वह लोगों को देने के लिए अपने सुरक्षा अधिकारी से पैसे उधार लेने लगे.
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ईमानदारी की मिसाल
मथाई ने एक दिन सभी सुरक्षा अधिकारियों का आगाह किया कि वह नेहरू को एक बार में दस रुपए से ज़्यादा उधार न दें.
मथाई नेहरू की इस आदत से इतने आजिज़ आ गए कि उन्होंने बाद में प्रधानमंत्री सहायता कोष से कुछ पैसे निकलवा कर उनके निजी सचिव के पास रखवाना शुरू कर दिए ताकि नेहरू की पूरी तनख़्वाह लोगों को देने में ही न खर्च हो जाए.
जहाँ तक सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी का सवाल है जवाहरलाल नेहरू का कोई सानी नहीं था.
जाने-माने पत्रकार कुलदीप नय्यर ने एक ऐसी बात मुझे बताई जिसकी आज के युग में कल्पना नहीं की जा सकती. कुलदीप ने कुछ समय के लिए नेहरू के सूचना अधिकारी के तौर पर काम किया था.
नेहरू शरणार्थियों की हरसंभव मदद करने की कोशिश करते थे
नेहरू की बहन विजय लक्ष्मी पंडित के शौक बहुत ख़र्चीले थे. एक बार वह शिमला के सर्किट हाउस में ठहरीं. वहाँ रहने का बिल 2500 रुपए आया.
वह बिल का भुगतान किए बिना वहाँ से चली आईं. तब हिमाचल प्रदेश नहीं बना था और शिमला पंजाब का हिस्सा होता था. तब भीमसेन सच्चर पंजाब के मुख्यमंत्री होते थे.
उनके पास राज्यपाल चंदूलाल त्रिवेदी का पत्र आया कि 2500 रुपये की राशि को राज्य सरकार के विभिन्न खर्चों के तहत दिखला दिया जाए. सच्चर के गले यह बात नहीं उतरी.
उन्होंने विजय लक्ष्मी पंडित से तो कुछ नहीं कहा लेकिन झिझकते हुए नेहरू को पत्र लिख डाला कि वही बताएं कि इस पैसे का हिसाब किस मद में डाला जाए. नेहरू ने तुरंत जवाब दिया कि इस बिल का भुगतान वह स्वयं करेंगे.
उन्होंने यह भी लिखा कि वह एक मुश्त इतने पैसे नहीं दे सकते इसलिए वह पंजाब सरकार को पांच किश्तों में यह राशि चुकाएंगे. नेहरू ने अपने निजी बैंक खाते से लगातार पांच महीनों तक पंजाब सरकार के पक्ष में पांच सौ रुपए के चेक काटे.
शोर मचाने वाला पंखा
नेहरू सोलह शयन कक्षों के तीन मूर्ति भवन में रहते ज़रूर थे लेकिन वहाँ भी सादगी से रहने पर ही ज़ोर रहता था. उनके शयन कक्ष में एयरकंडीशनर नहीं था.
गर्मी के दिनों में जब वह दिन के भोजन के लिए तीन मूर्ति भवन आते थे तो मुख्य बैठक के सोफ़े पर बैठ कर आराम करते थे. वहाँ पर आगंतुकों के आराम के लिए एयरकंडीशनर लगा हुआ था. इसके बाद वह थोड़ी देर लेटने के लिए अपने शयन कक्ष में चले जाते थे.
उनके बड़े से शयन कक्ष में छत के पंखे के अलावा एक बहुत पुराना टेबल फ़ैन लगा हुआ था जो बहुत आवाज़ करता था. एक दिन इंदिरा गाँधी की सचिव उषा भगत ने नेहरू की देखभाल करने वाले शख़्स से कहा कि इस पंखे को तुरंत बदल दीजिए.पंखा बदल दिया गया.
दूसरे दिन नेहरू का अर्दली दौड़ा हुआ उषा भगत के पास आया कि उन्होंने नया पंखा देखकर कोहराम मचा दिया है. अंतत: नेहरू पुराने शोर मचाने वाले पंखे को दोबारा लगवा कर ही माने.
कैडलक कार
नेहरू ने विदेशी दौरे में भेंट मिली कार राष्ट्रपति के वीआईपी कार बेड़े में शामिल करवा दी
1956 में नेहरू सऊदी अरब की राजकीय यात्रा पर गए. उन्हें रियाद में शाह सऊद के महल में ठहराया गया. उनके दल के सदस्य के हर बाथरूम में शैनल 5 परफ़्यूम की एक बड़ी बोतल रखी गई.
नेहरू रात में कोई किताब पढ़ना चाहते थे, इसलिए उन्होंने पूछा कि क्या उनके कमरे में टेबिल लैंप लगाया जा सकता है ?
महल के लोगों ने समझा कि शायद कमरे में रोशनी पर्याप्त नहीं है. इसलिए अगले दिन नेहरू के कमरे में और तेज़ रोशनी वाला लैंप और बल्ब लगा दिया गया. उसकी चमक को कम करने के लिए नेहरू के साथ गए मोहम्मद यूनुस ने उसके चारों तरफ कपड़ा लपेट दिया.
रोशनी तो कम हो गई लेकिन उससे निकलने वाली गर्मी ने कपड़े को करीब करीब जला ही दिया.
जब नेहरू वहां से वापस आने लगे तो शाह सऊद ने उनके लिए एक कैडलक कार और उनके दल के सदस्यों के लिए स्विस घड़ियाँ उपहार में भिजवाईं.
नेहरू इससे थोड़ा असहज हो गए. वह नहीं चाहते थे कि वह विदेशी दौरे से कार उपहार में ले कर लौंटे.
मोहम्मद यूनुस उनकी परेशानी समझ गए. उन्होंने कहा, ‘इनके पास और क्या है? अगर मोटर न दें तो फिर क्या दें? तेल का पीपा या रेत का बोरा?’ नेहरू इस पर ज़ोर से हंसे. उन्होंने कार का तोहफ़ा स्वीकार कर लिया और शाह सऊद को अपना धन्यवाद भिजवाया.
शाह जानना चाहते थे कि नेहरू को कार के लिए कौन सा रंग पसंद है. वैसे उन्होंने पहले से ही उनके लिए हरे रंग की कैडलक पसंद कर रखी थी.
नेहरू ने कहा आपकी पसंद मेरी पसंद. भारत आते ही उन्होंने यह कार राष्ट्रपति भवन के वीआईपी कार बेड़े में शामिल करवा दी.
57 साल पहले भेंट दी गई यह कार आज भी राष्ट्रपति भवन के कार बेड़े में मौजूद है.
हाज़िरजवाबी
बहुत व्यस्त होने के बावजूद वह अपने दोस्तों की चुटकियां लेने से पीछे नहीं हटते थे. एक बार नाश्ते की मेज़ पर नेहरू छूरी से सेब छील रहे थे.
इस पर उनके साथ बैठे रफ़ी अहमद किदवई ने कहा कि आप तो छिलके के साथ सारे विटामिन फेंके दे रहे हैं. नेहरू सेब छीलते रहे और सेब खा चुकने के बाद उन्होंने सारे छिलके रफ़ी साहब की तरफ बढ़ा दिए और कहा, “आपके विटामिन हाज़िर हैं. नोश फ़रमाएं.”
1962 के भारत- चीन युद्ध के बाद नेहरू की इस चंचलता को ग्रहण लग गया. उनकी आँखों की चमक न जाने कहाँ चली गई. वह अपने आप में घुटने लगे.
‘नेहरू जीवित हैं’
नेहरू की सादगी और ईमानदारी की दूसरी मिसाल मिलना बेहद मुश्किल
27 मई ,1964 को सुबह नौ बजे जाने माने लेखक और ब्ल्टिज़ के स्तंभकार ख़्वाजा अहमद अब्बास का फ़ोन बजा. ब्लिट्ज़ के संपादक रूसी करंजिया लाइन पर थे.
‘हेलो अहमद.’
’गुड मॉर्निंग रूसी.’
‘कुछ बहुत खराब या तो हो चुका है या होने जा रहा है.’ अब्बास ने पूछा नेहरू ठीक ठाक तो हैं.
करंजिया ने कहा नहीं उनको एक और स्ट्रोक हुआ है. तुम तुरंत दफ़्तर आ जाओ. तुम्हें उन पर चार पेज का फ़ीचर लिखना है.
जैसे ही अब्बास ब्ल्टिज़ के दफ़्तर पहुंचे करंजिया ने कहा तुम्हारे पास नेहरू के ऊपर लेख लिखने के लिए चार घंटे हैं.
ख़्वाजा अहमद अब्बास ने लिखना शुरू किया. आर्ट विभाग का एक व्यक्ति उनके पास आ कर कहने लगा, ‘पहले हेडलाइन लिखिए ताकि मैं उस पर काम करना शुरू कर दूँ.’
अब्बास ने कांपते हाथों से लिखा….. नेहरू… थोड़ी देर सोचा और फिर लिखा…. लिव्स. दो बजे नेहरू का देहांत हो गया. अगले दिन ब्ल्टिज़ की तीन इंच की बैनर हेड लाइन थी….. नेहरू लिव्स..