Loss of billions due to Corona: Seminar season completely destroyed

ब्रेकिंग न्यूज़

 जनसंवाद ब्यूरो, देहरादून 16 अप्रैल : देश में सेमिनार सीजन पूरी तरह तबाह हो गया है जिसके चलते अरबों के नुकसान  का अनुमान लगाया जा रहा है. ज्ञात रहे की विविधिताओं के देश भारत में अनेक समानताएं भी परिलक्षित होती हैं. उदहारण के लिए भारत में शादियों का सीज़न होता है, उत्सवों का सीजन होता है उसी तर्ज पर भारत में आजादी के उपरांत सेमिनारों के  सीज़न का भी सूत्रपात हुआ है. भारत वर्ष में  सेमिनारों का यह सीजन सामान्यत: प्रत्येक वर्ष माह जनवरी में नए साल की खुमारी उतरने से लेकर मार्च माह की 31 तारीख के मध्य संपन्न किया जाता रहा है किन्तु वर्ष 2020 में कोरोना वायरस के प्रकोप ने  सेमिनार सीजन की कमर ही तोड़ कर रख दी  है जिसके कारण देश की अर्थव्यवस्था पर गंभीर प्रभाव पड़ने के संकेत मिल रहे है.

सेमीनार सीजन पूरी तरह तबाह

सेमिनार सीजन मुख्यतः देश के नौकरीशुदा पेशेवर  बौद्धिकों  का   उत्सव होता है पिछले कुछ दशकों से इस खेल में अलाभकारी संस्थाएं भी बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेने लगी हैं. इस सीजन में देश के सर्वांगीण विकास, विज्ञानं एवं प्रोद्योगिकी के विस्तार, महिला सशक्तिकरण, कृषि एवं यांत्रिकी, पर्यावरण, जीव विज्ञानं आदि महत्वपूर्ण विषयों पर अनेक स्थानों पर चर्चाएँ, पैनल डिस्कशन आदि संपन्न किये जाते हैं. इस सीजन में अखबार भी इन सेमिनारों के योद्धाओं के चिंतन, निष्कर्षों एवं सेमिनार के दौरान पकाए गए सपनों के वृत्तांत से अटे पड़े रहते हैं यानी के कुल मिलाकर ख़बरों का मजमून यह रहता है कि अच्छे दिन आने वाले हैं और आम आदमी को भी वक्ती तौर पर यह भरोसा हो जाता है कि प्राइवेट सिक्योरिटी की आड़ में छिपे ये संस्थान सिर्फ वेतन भत्ते की मांग के लिए ही हल्ला नहीं करते, सेमिनारों में भी गरजते हैं.

अब इन सीजनल सेमिनारों में होता क्या है और ऐसा क्यों है कि दीपावली से पहले की पुताई की तर्ज़ पर  ये वित्तीय वर्ष समाप्ति की शुभ-लाभ बेला  में ही  संपन्न किये जाते हैं, इस विषय पर शंका जाहिर करने से बड़ी बात नहीं कि देश की सुरक्षा को खतरा हो जाये. बहुत संभव है कि जैसे सामूहिक थाली पीटने और दिए जलाने  के पीछे भी कोई प्रागैतिहासिक विज्ञानं हो वैसे ही सिर्फ इस सीजन में स्थान – स्थान पर सेमिनार चिंतन  करने के पीछे भी कोई विज्ञान  हो. निठल्ले बैठे शंका करने वाले तो भगवन राम जी के ज़माने में भी हुआ करते थे. अथ: यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि लेखक की मंशा इस कारोबार के प्रति किसी भी प्रकार की कोई दुर्भावना फैलाने की नहीं है अपितु इन पंक्तियों का लेखक स्वयं इन सेमिनारों में यदा कदा प्रतिभाग करता रहा है जिसके प्रमाण के रूप में लेखक के कब्जे में कई फोल्डर, बैग तथा प्रमाणपत्र आदि मौजूद हैं. वास्तविकता यह है कि लेखक सेमिनार सीजन के तबाह होने से आंशिक रूप से प्रभावित भी हुआ है.

अब ये जो सम्पूर्ण देश में सेमिनार सीजन के दौरान जो  अरबों रुपिये खर्च होते हैं वे कहीं न कहीं देश की अर्थव्यवस्था को सींचने में ही खपते हैं. यहाँ केवल उसी आर्थिकी के पक्ष पर ही विश्लेषण किया जायेगा, बौधिकता पर नहीं, क्योंकी वह बड़ा गूढ़ विषय है. उदहारण के लिए विषय विशेषज्ञता इस स्तर पर पहुँचने जा रही है कि दायें कान का विशेषज्ञ, बाएं कान के विशेषज्ञ की सुनने को तैयार नहीं. बहरहाल सेमिनार सीजन में कॉपी, नोटबुक, पेन, छपा हुआ सेमिनार फोल्डर, बैग आदि की मांग बढ़ जाती है, कैटरिंग, साउंड सिस्टम और तम्बू वालों  का धंदा चल निकलता है कहने का मतलब यह हुआ की हिमालयन टेकटोनिक्स की चर्चा पर हुआ खर्च, स्टेशनरी, तम्बू  और कैटरिंग व्यवसाय को यदि सींचता है, इसमें आखिर क्या बुराई है. फूल मालाएं, बुके थोक के भाव इसी सीजन में बिकते है. क्या दिक्कत है ! जो बड़े सर लोग इस खेल के पेशेवर स्तर के खिलाडी बन चुके हैं उनका तो धोबी भी इस सीजन में  प्रेस किये कपडे घर में देते हुए मौका ताड़ कर मेमसाब को पूछ ही लेता होगा – “ हें हें ! साब सेमिनार में जा रहे होंगे !” मतलब यूँ समझो की एक अदने धोबी से लेकर हवाई जहाज कंपनी तक ये पैसा बंटता रहा है पर कमबख्त कोरोना वायरस ने  सिंचाई की यह विश्वसनीय  पद्दति भी सुखा डाली !

सेमिनार सीजन की एक विचित्र किन्तु सत्य विशेषता यह भी है की इस पवित्र अवसर पर नेपथ्य में जा चुके अवकाशप्राप्त बड़े बाबुओं को भी पुन: मंच पर आने का सालाना अवसर मिलता है. इसमें विचित्र यह है कि अपने पूरे सेवाकाल में यथास्थितिवाद बनाये रखने वाले ये पूर्व बड़े बाबु इन सेमिनारों में परिवर्तन की बात फुसफुसाते प्रतीत होते हैं. जो भी हो हमे इस विषय पर सवाल पूछने का कोई हक नहीं कि संकट के इस काल में बौद्धिकों की यह बिरादरी और उनके संस्थान क्यों खामोश हैं ?  ये सेमिनार तो ऑनलाइन भी किये जा सकते थे ! यही इस लेख के मूल उद्येश्यों में से एक है. लेखक की अवधारणा है कि जब तमाम विषयों पर वैज्ञानिक पर्चे पढ़े जा सकते है तो इस विषय पर केन्द्रित ऑनलाइन सेमिनार क्यों नहीं हो सकता.

क्या कोरोना वायरस की मौत का सामान मानव शरीर में मौजूद है ? खोजी रिपोर्ट

      अब लोग कहेंगे की कहना बहुत आसान है पर कुछ कर के दिखाओ, कोई आईडिया उछालो, तो इस सन्दर्भ में लेखक अपने ओरिजिनल और ऑथेंटिक पर्चे की रूपरेखा प्रस्तुत कर रहा है. इस रिसर्च पेपर का टाइटल है Harnessing Apaan Vayu for Disinfecting Immediate Work Environment अब हिंदी में कहें तो ये कि अपने शरीर से निकलने वाली अपान  वायु के द्वारा अपने कार्यस्थल को कोरोना वायरस से मुक्त करना. कहने का तात्पर्य यह है कि एक स्वस्थ मानव शरीर प्रतिदिन अपान वायु का 14 से लेकर 23 बार सामान्य रूप से उत्सर्जन करता है.  इस अपान  वायु में  मुख्यत: नाइट्रोज़न, कार्बन डाई ऑक्साइड, ओक्सीजन, मीथेन तथा सूक्ष्म मात्रा में हाइड्रोजेन सल्फाइड आदि गैसे हमारे शरीर से  निकलती हैं. अब ये जो  हाइड्रोजेन सल्फाइड गैस है यही उस मारक गंध का कारण होती हैं कि जिसकी वातावरण में दस्तक देते ही सब एक दूसरे की तरफ शक की निगाह से देखते हैं कि ये किसकी हरकत होगी और अभियुक्त खुद दूसरों को शक से देखने का उपक्रम करता रहता है. बहरहाल सल्फुरिक एसिड भी हाइड्रोजेन सल्फाइड से ही बनाया जाता है और अनेक कीटनाशक भी. अब कीटनाशक के उत्पादन के  मुख्य स्रोत का उत्पादन यदि स्वयं हमारा शरीर कर  रहा है तो इस महत्वपूर्ण स्रोत का इस्तेमाल कोरोना वायरस से मुक्त कार्यस्थल को बनाने में क्यों नहीं किया जाना चाहिए ? (नोट: जिन्हें शंका हो वे गूगल कर सकते हैं कि  हाइड्रोजेन सल्फाइड से कृषि हेतु कीटनाशक और निस्संक्रामक disinfactant  बनते हैं ) अब सवाल ये है कि कोरोना मुक्त कार्यस्थल हेतु हाइड्रोजेन सल्फाइड  की कितनी मात्रा की आवश्यकता होगी और मानव शरीर द्वारा हाइड्रोजेन सल्फाइड के उत्पादन में कैसे वृद्धि की जा सकती है यह गणना किये जाने की आवश्यकता है. अपान वायु के शरीर से उत्सर्जन के दौरान ध्वनि भी उत्पन्न होती है. लेखक संगीत के विषय में वास्तव में जाहिल है किन्तु इन संभावनाओं को निश्चित रूप से तलाशा जाना ही चाहिए की उक्त ध्वनि को शास्त्रीय अथवा पाश्चात्य संगीत में कैसे सिद्ध किया जा सकता है. लेखक  का यह रिसर्च पेपर बहु-विषयक शोध के नए आयाम खोल सकता है जिसके अंतर्गत योगाचार्य, न्यूट्रीसनिस्ट, केमिस्ट, आर्किटेक्ट आदि मिल कर शोध कर सकते हैं !  अब यदि कोई पाठक यह लेख पढ़ते पढ़ते यहाँ तक पहुँच ही गया है और सवाल करता है कि क्या आईडिया  है तो लेखक का उत्तर यही होगा कि जब इस देश में विज्ञान प्रसार की आड़ में वर्षा लाने हेतु यज्ञ करवाए जा सकते हैं, गौमूत्र पार्टी आयोजित की जा सकती हैं तो हाइड्रोजेन सल्फाइड के गुण धर्म तो विज्ञान में भली भांति स्थापित हैं हर व्यक्ति यदि अपना निस्संक्रामक अर्थात disinfectant का स्वयं उत्पादन करे तो यह आईडिया भला कैसे रद्दी की टोकरी में फैंका जा सकता है. एक निवेदन और कि अब जब सेमिनार सीजन पूरी तरह तबाह हो ही चुका है तो इस हेतु बचा हुआ बजट क्या अपने देश के उन चिकित्सकों की सुरक्षा हेतु आवश्यक सेफ्टी इक्विपमेंट खरीदने की दिशा में नहीं मोड़ा जा सकता जो कोरोना से युद्ध में अगली कतार पर तैनात हैं ?  सेमिनार का सीजन तो अब जनवरी 2021 में ही आएगा और उसके लिए नए वितीय वर्ष में व्यवस्था होगी ही ! दुखती रग सब की होती है यदि गलती से किसी की दब गयी हो तो क्षमा करेंगे

 साभार – डॉ. सुनील कैंथोला  

https://jansamvadonline.com/in-context/the-police-picked-up-yogesh-swamy-the-national-vice-president-of-the-naujawan-bharat-sabha/

 

 

#sunilkanthola  #seminar_season