मौजूदा समय विडम्बना का समय है। बिना किसी अतिशयोक्ति के कहा जाए तो; देश और समाज एक ऐसे वर्तमान से गुजर रहा है जिसमे प्राचीन और ताजे इतिहास में, अंग्रेजो की गुलामी से आजादी के लिए लड़ते लड़ते जो भी सकारात्मक उपलब्धि हासिल की गयी थी, वह दांव पर है। समाज को धकेल कर उसे मध्ययुग में पहुंचाने पर आमादा अन्धकार के पुजारी पूरे उरूज़ पर हैं – संविधान और संसदीय लोकतंत्र निशाने पर है। कल्याणकारी राज्य की अवधारणा उलटी जा रही है। मनुष्यों के बीच समानता और हर तरह की गैरबराबरी को मिटा देने की समझदारी को अपराध, यहां तक कि राष्ट्रद्रोह बताया जा रहा है। इधर बाकी सब को अधीनस्थ दास बनाने को ही राज चलाने का सही तरीके मानने वाले चतुर दुनिया के खुदगर्ज बड़े दानवों के मातहत और सेवक बनने पर गर्वित और गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं। असहमतियों को कुचल कर, विमर्श को प्रतिबंधित करके आज को घुटन भरा बनाकर आगामी कल को आशंकाओं भरा बना दिया गया है।
क्या यह आपदा अचानक आ गयी ?…… नहीं। इस देश की महान शख्सियतें इस तरह की हालात के बारे में आशंकित थीं और इनसे सजग रहने तथा इनकी आमद – उस दौर में जब ये दूर-दूर तक नजर नहीं आ रही थी तब – को रोकने के सुझाव और तरीके बताती रही थीं। बजाय बाकियों के उल्लेख के आज डॉ. भीमराव अम्बेडकर की 130 वीं जयन्ती है – इसे समानता दिवस और ज्ञान दिवस के रूप में मनाया जाता है – इसलिए उन्ही की चेतावनियों पर नजर दौड़ाना सामयिक होगा।
25 नवम्बर 1949 को संविधान सभा में दिए अपने आख़िरी भाषण में डॉ. बी आर अम्बेडकर ने कहा था कि….(विडिओ देखने के लिये यहाँ क्लिक करें ) “संविधान कितना भी अच्छा बना लें, इसे लागू करने वाले अच्छे नहीं होंगे तो यह भी बुरा साबित हो जाएगा।’“ इस बात की तो संभवत: उन्होंने कल्पना तक नहीं की होगी कि ऐसे भी दिन आएंगे, जब संविधान लागू करने का जिम्मा ही उन लोगों के हाथ में चला जाएगा, जो इस मूलत: इस संविधान के ही खिलाफ होंगे। जो सैकड़ों वर्षों के सुधार आंदोलनों और जागरणों की उपलब्धि में हासिल सामाजिक चेतना को दफनाकर उस पर मनुस्मृति की प्राण प्रतिष्ठा के लिए कमर कसे होंगे।
उन्होंने कहा था कि “अपनी शक्तियां किसी व्यक्ति – भले वह कितना ही महान क्यों न हो – के चरणों में रख देना या उसे इतनी ताकत दे देना कि वह संविधान को ही पलट दे ‘संविधान और लोकतंत्र’ के लिए खतरनाक स्थिति है।” इसे और साफ़ करते हुए वे बोले थे कि ‘’राजनीति में भक्ति या व्यक्ति पूजा संविधान के पतन और नतीजे में तानाशाही का सुनिश्चित रास्ता है।’’ 1975 से 77 के बीच आतंरिक आपातकाल भुगत चुका देश पिछले छह वर्षों से जिस भक्त-काल और एकल पदपादशाही को अपनी नंगी आँखों से देख रहा है, उसे इसकी और अधिक व्याख्या की जरूरत नहीं है।
सवाल सिर्फ इतना भर नहीं है कि ये कहाँ आ गए हम अंग्रेजों के भेदियों और बर्बरता के भेडिय़ों के साथ सहअस्तित्व करते करते? सवाल इससे आगे का है ; क्यों और कैसे आ गये, का भी है। इसके रूपों को अम्बेडकर की ऊपर लिखी चेतावनी व्यक्त करती है, तो इसके सार की व्याख्या उन्होंने इसी भाषण में दी अपनी तीसरी और बुनियादी चेतावनी में की थी। उन्होंने कहा था कि; ‘’हमने राजनीतिक लोकतंत्र तो कायम कर लिया – मगर हमारा समाज लोकतांत्रिक नहीं है। भारतीय सामाजिक ढाँचे में दो बातें अनुपस्थित हैं, एक स्वतन्त्रता (Liberty), दूसरी भाईचारा-बहनापा (Fraternity)’। उन्होंने चेताया था कि ‘यदि यथाशीघ्र सामाजिक लोकतंत्र कायम नहीं हुआ तो राजनीतिक लोकतंत्र भी सलामत नहीं रहेगा।’’
इस तरह दरअसल बाबा साहब की अनदेखी का प्रतिफल है यह घुटन भरा वर्तमान और आशंका भरा कल!! रास्ता भी वहीँ से निकलेगा – उस अनकिये को करने से निकलेगा। इसके लिए उनके भरोसे तो कदापि नहीं रहा जा सकता, जिन्होंने बाबा साहब को जातियों के प्रतिशत की गणना के कैलकुलेटर, ईवीएम मशीन के बटन और पद-प्रसिद्धि पाने के एटीएम कार्ड में बदल कर रख दिया है। जिन्होंने बाबा साहब को ठीक वही बनाकर रख दिया जिसके वे ताउम्र खिलाफ रहे ; उनकी मूर्ति बनाकर पूजा शुरू कर दी, हाथ में संविधान की किताब पकड़ा दी और उनकी कालजयी रचना *जातियों का विनाश* *(एनिहिलेशन ऑफ़ कास्ट)*” सहित उनके क्रांतिकारी दर्शन को गहरे में दफना दिया। उनकी प्रतिज्ञाओं को झांझ-मंजीरों के शोर में गुम कर दिया।
रास्ता डॉ. अम्बेडकर की इन चेतावनियों को उनके 1936 के उस मूलपाठ के साथ मिलाकर पढऩे से निकलेगा, जो उन्होंने अपने हाथ से अपनी पहली राजनीतिक पार्टी – इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी, जिसका झंडा लाल था – के घोषणा पत्र में लिखा था। इसमें उन्होंने साफ़ साफ शब्दों में कहा था कि “भारतीय जनता की बेडिय़ों को तोडऩे का काम तभी संभव होगा जब आर्थिक और सामाजिक दोनों तरह की असमानता और गुलामी के खिलाफ एक साथ लड़ा जाये।” अभी भी देर नहीं हुयी है – यूं भी शुरुआत करना हो तो कभी देर नहीं होती।
साभार : बादल सरोज (संयुक्त सचिव)
The present time is the time of irony. Without saying any exaggeration; The country and society is going through a present in which, in ancient and fresh history, whatever positive achievement was achieved while fighting for freedom from the slavery of the British is at stake. Priests of darkness are on full vigor when the society is pushed to the Middle Ages – the Constitution and parliamentary democracy are on target.The concept of welfare state is being inverted. Equality between humans and the prudence to eradicate all forms of equality are being described as crimes, even treason. Here, the smart people of the clever world who consider everyone else to be a subordinate slave, the right way to run the rule, are feeling proud and proud to be the servants and servants of the big demons.By crushing disagreements, restricting discourse and making today suffocated, tomorrow is made apprehensive.
Did this disaster happen suddenly? No. The great personalities of this country were apprehensive about such a situation and had been giving tips and ways to be aware of them and to prevent their influx – at a time when it was not seen so far away. Instead of mentioning the rest, today is the 130th birth anniversary of Dr. Bhimrao Ambedkar -It is celebrated as Equality Day and Knowledge Day – so it would be timely to look out for their warnings.
In his last speech in the Constituent Assembly on 25 November 1949, Dr. BR Ambedkar had said that …. (Click abov to see video.) “No matter how good the constitution is, the enforcers of it will not be good. Then it will also prove to be bad. “” He might not have even imagined that such days would come,When the task of enforcing the Constitution will go into the hands of those people, who will be basically against this constitution. Those buried by the social consciousness achieved in the achievement of hundreds of years of reform movements and awakening will be strengthened for the life of Manusmriti. He had said that “to put his powers at the feet of a person – no matter how great he is – or to give him so much power that he can overturn the Constitution is a dangerous situation for the Constitution and democracy”. Further clarifying this, he said that “Bhakti or individual worship in politics is the surest way of the fall of the constitution and dictatorship in the result”.The country that has suffered an internal emergency between 1975 and 77, the devotee-era and single-minded patriarchy has been looking at it with its naked eyes for the past six years, does not need any more explanation.
The question is not just that where have we come, we used to co-exist with the British bullies and the wolves of barbarism? The question is beyond this; Why and how he has come Ambedkar’s warning above expresses its forms,So he explained its essence in his third and basic warning in this speech. He said that; “We have established political democracy – but our society is not democratic. Two things are absent in the Indian social structure, one is Liberty, the other is Fraternity. He warned that “if social democracy is not established as soon as possible, political democracy will not be safe.”In this way, Baba Saheb is actually a byproduct of ignoring this suffocating present and fearful tomorrow !! The path will also come out from there – will come out of doing that untold. For this, he cannot be trusted, who has converted Baba Saheb into a calculator for calculating the percentage of castes, the button of an EVM machine and an ATM card to get fame. Who kept Baba Saheb exactly what he was against;Started worship by making his idol, holding the constitution book in his hand and buried his revolutionary philosophy deep in his classical composition * Destruction of castes * (*जातियों का विनाश* ) * “. His vows are made in the noise of cymbals Lost in
Rasta will derive from Dr. Ambedkar’s reading of these warnings by combining them with the text of his 1936, which he wrote in his own manifesto of his first political party – the Independent Labor Party, whose flag was red.In this, he had stated clearly that “the work of breaking the shackles of the Indian people will be possible only when both economic and social inequality and slavery are fought together.” It is not too late – it is never too late to start.
Sincerely: Badal Saroj (Joint Secretary)
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