पत्रकार हो या अध्यापक, आपको पढ़ने-लिखने का शौक न हो तो आजीविका के लिए कोई और व्यवसाय अपना लें। ईमानदार पत्रकार से ज्यादा तो अपने ठेले पर तारा मच्छी वाला और श्याम छोले-भटूरे वाला कमा लेता है। जोब सिक्योरिटी भी नहीं है। फिर देखा-देखी आप अनैतिकता में उतरते हैं और कुंठा में नैतिकता पर अडे रहकर आर्थिक रूप से फिसड्डी पत्रकारों के कपड़ों तक पर व्यंग्य करते फिरते हैं।
आपको पढने-देखने वाले आपके आठवीं पास सवाल-जवाब से कितने भिन्नाते हैं,कभी सोचा है? अरे भाई,वे आपसे ज्यादा पढ़े-लिखे और अपडेट होते हैं । भाषा आपकी अर्थ और भाव संप्रेषण में असमर्थ, भ्रष्ट-लंगडी !जानकारी आपकी अधूरी-अधकचरी।आप लोगों के लिए सजा क्यों बनें बैठे हो,यार,.इस माध्यम में ?
पुनश्च: ‘दिग्गज’ पत्रकार-साहित्यकार विनोद मुसान को मेरी ये कुछ पंक्तियां बुरी तरह चुभी हैं। उनके अनुसार ये मेरी कुंठा और इस पेशे को और बदनाम करने की कोशिश है।एकबारगी तो वाकई मैं सकपका गया। भाई कुंठा तो वाकई होती है। जैसे किसी बुजुर्ग को अगली पीढ़ी की बेवकूफाना नागवार गुजरती हैं। मुझे जानने वाले जानते हैं कि मैं या तो पत्रकार वार्ताओं से किनारा करता हूं।या वार्ता निपटने के बाद पहुंचता हूं और बाद में साथियों से ब्रीफिंग ले लेता हूं।यानि सीन कुछ यूं होता है कि पत्रकार साथी जा रहे होते हैं और मैं वहां पहुंच रहा होता हूं।
ज्यादातर होता यह है कि मेरे लिए न साथियों के नेताओं से सवाल नये होते,न नेताओं के जवाब। तकनीकी-विभागीय वार्तायें अपवाद हैं।
अब विनोद की बात। कुंठित होने लायक न अभी लाचार-निष्क्रीय हुआ,न ऐसी कोई पद-प्रतिष्ठा की लालसा शेष है,जो अप्राप्य रही हो। पूरा जीवन मनमर्जी जिया। जमींदारों का इकलौता पुत्र हूं।जब चाहूं,खेत का एक कोना बेच हर इच्छा बिना बेईमानी, किसी के सामने नतमस्तक हुए पूरी हो सकती है। नौकरी कभी मजबूरी नहीं रही। सामाजिकता समेत सब अपेक्षायें पूरी की। पत्रकारिता करते भले पुलिस की लाठियां, जेल झेली, पीछे हटते किसी ने शायद ही देखा हो। तो कुंठा कैसी? हां, व्यवसाय पर गर्व है तो चिंता भी और भरोसा भी कि जहां नालायक हैं तो गुणग्राहक-होनहार भी ।