जो लोग अपने पूरे जीवन का सारा हासिल सिर पर लादकर सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलने के लिए निकल पड़े हैं, उनके बारे में एक बात यकीन के साथ कही जा सकती है कि उन्हें न तो सरकार से कोई उम्मीद है, न ही समाज से. वे सिर्फ़ अपने हौसले के भरोसे अब तक ज़िंदा रहे हैं, और सिर्फ़ उस हौसले को ही जानते-मानते हैं.
दार्शनिक कह रहे हैं कि कोरोना के गुज़र जाने के बाद दुनिया हमेशा के लिए बदल जाएगी. 9/11 के बाद दुनिया कितनी बदल गई, ये हममें से बहुत लोगों ने देखा है, कोरोना का असर कहीं ज़्यादा गहरा है इसलिए दुनिया भर में बदलाव होंगे, हर तरह के बदलाव.
भारत में हो सकने वाले बदलावों को समझने के लिए ज़रूरी है कि हम दो तस्वीरों को अपने दिमाग़ में बिठा लें, एक तस्वीर आनंद विहार बस अड्डे पर उमड़े मजबूर लोगों के हुजूम की, और दूसरी तस्वीर अपने ड्रॉइंग रूम में तसल्ली से दूरदर्शन पर रामायण देखते लोगों की, जिनमें केंद्रीय मंत्री भी शामिल हैं.
जिस पदयात्रा पर ‘ग़रीब भारत’ निकल पड़ा है, वह सरकार से ज़्यादा, हमारे समाज के लिए सवाल है. दुनिया भर में क्या हो रहा है, विज्ञान की क्या सीमाएँ हैं, चीन की क्या भूमिका है, यह सब थोड़ी देर के लिए परे रखिए.

लेकिन हाशिए पर हैं…

क्या आपको महाराष्ट्र के किसानों के लहू-लुहान तलवे याद हैं? क्या आपको पिछले दो-एक साल में सीवर की सफ़ाई करते हुए मरने वाले लोगों की ख़बरें याद हैं? क्या आपको वो आदमी याद है जो साइकिल पर अपनी पत्नी की लाश ले जा रहा था?
बतौर समाज हम ऐसी बहुत सारी तस्वीरें देखते हैं, थोड़ी देर के लिए हमें बुरा-सा लगता है, हम भावुक होकर थोड़े चंदे-डोनेशन के लिए भी तैयार हो जाते हैं, लेकिन हमारी सामूहिक चेतना में महाराष्ट्र के किसान, सीवर साफ़ करने वाले या साइकिल पर लाश ढोने वाले ‘दूसरे’ लोग हैं, वो हममें से नहीं हैं, वे बराबर के नागरिक नहीं हैं.
हम की परिभाषा है– फ़्लैटों में रहने वाले, बच्चों को अंग्रेज़ी मीडियम में पढ़ाने वाले, राष्ट्र से प्रेम की बातें करने वाले, पाकिस्तान की बैंड बजाने वाले, जल्दी ही वर्ल्ड क्लास देश बन जाने का सपना देखने वाले, अतीत पर गर्व करने की कोशिश करते और अपने उज्ज्वल भविष्य को लेकर आश्वस्त लोग. इन लोगों की देश की कल्पना में वो लोग शामिल नहीं हैं जो आबादी में अधिक हैं, लेकिन हाशिए पर हैं.

लोगों की याद्दाश्त से…

रोज़ी रोटी की मुसीबत में उलझे, दिन में कमाने और रात में खाने वाले लोग, पुलों के नीचे, झुग्गियों में रहने वाले, अनपढ़ लोग ये सब दूसरे हैं, अन्य हैं, अदर्स हैं. ये लोग भी ‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’ के सफ़र में शामिल हैं, आपका बोझ ढोते हैं, आपके लिए सफ़ाई करते हैं, आपके लिए सब्ज़ियां लाते हैं, लेकिन वे ‘हम’ नहीं हैं.
टीवी पर रामायण देख रहे लोगों की याद्दाश्त से आनंद विहार का मंज़र कुछ समय बाद बिसर जाएगा तो कोई हैरत की बात नहीं होगी. जिस दिन महाराष्ट्र के किसान अपने खून से सने तलवे दिखा रहे थे, उस रोज़ टीवी चैनल मोहम्मद समी और उनकी पत्नी का झगड़ा दिखा रहे थे. टीवी का न्यूज़ चैनल चलाने वालों की समझ बिल्कुल साफ़ है, वे ‘हम’ के लिए हैं, ‘दूसरों’ के लिए नहीं.
सोशल मीडिया पर हंगामा मचने के बाद, टीवी चैनलों ने पैदल जाते लोगों की ख़बर पर ध्यान दिया, इन ख़बरों में दो-तीन चिंताएं थीं– अरे, इस तरह तो लॉकडाउन फ़ेल हो जाएगा, वायरस फैल जाएगा, ये कैसे ग़ैर-ज़िम्मेदार लोग हैं, इन लोगों को ऐसा नहीं करना चाहिए था, क्या वे जहाँ थे, वहीं पड़े नहीं रह सकते थे. यानी चैनलों की चिंताओं में फिर भी उन लस्त-पस्त लोगों की तकलीफ़ नहीं थी जो स्क्रीन पर दिख रहे थे.

सरकार और समाज

हम भारत के लोग बातें चाहें जितनी भी कर लें, जैसी भी कर लें, दरअसल, हम फ़ितरत से ग़ैर-बराबरी में गहराई से यकीन रखने वाले लोग हैं. ग़रीबों,दलितों, वंचितों और शोषितों के प्रति जो हमारा रवैया है, उसी की परछाईं सरकार के रवैए में दिखती है, सरकार चाहे कोई भी हो, वह जानती है कि किस बात पर वोट कटेंगे, और किस बात पर वोट मिलेंगे.
विदेशों में फंसे समर्थ लोगों को लाने के लिए विशेष विमान उड़ाए जाते हैं, पैदल चलते हुए लोगों का हाल तीन दिन तक सोशल मीडिया पर दिखाए जाने के बाद, बड़े एहसान की मुद्रा में कुछ बसें भेज दी जाती हैं. बाद में लोग ये भी कहते हैं कि बसें भेजना ग़लती थी, क्योंकि लोग मुफ़्त यात्रा के लोभ में टूट पड़े जिससे वायरस फैलने का ख़तरा बढ़ गया.
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पहले मुख्यमंत्रियों में थे जिन्होंने दिहाड़ी मज़दूरों के लिए आर्थिक राहत की घोषणा की थी, लेकिन यह वही यूपी है जहाँ पीलीभीत के एसपी और डीएम घंटियाँ बजाते हुए शाम पाँच बजे का पवित्र जुलूस निकालते हैं जिसमें ढेर सारे लोग पीएम के आह्वान का ग़लत मतलब निकालकर सड़कों पर उतर आते हैं.

आदर्श भारतीय नागरिक

यह वही राज्य है जहाँ वरिष्ठ पुलिस अधिकारी काँवड़ियों के पैर दबाते हुए गर्व से फ़ोटो खिंचवाते हैं क्योंकि इससे प्रमोशन मिलने के आसार बढ़ जाते हैं, यह वही राज्य है जहाँ हेलिकॉप्टर काँवड़ियों पर पुष्पवर्षा करते हैं और अयोध्या के घाटों पर सैकड़ों लीटर तेल से लाखों दिए जलाए जाते हैं.
क्या सरकार को पता नहीं था कि जब दिहाड़ी बंद हो जाएगी तो गरीब मजदूर अपने गाँव की ओर जाने पर मजबूर होगा. कई पढ़े-लिखे लोग इस तकलीफ़देह सफ़र को ‘कोरोना पिकनिक’ बता रहे हैं. ये वही लोग हैं जो मानते हैं कि सबको उनकी तरह रहना चाहिए, उन्होंने आदर्श भारतीय नागरिक की छवि बना ली है, यही उनका ‘हम’ है–शहरी, साफ़-सुथरा, संभवतः धार्मिक, देशभक्त और संस्कारी आदि…
‘दूसरे’ लोग ‘हम’ को चुभते हैं, इंडिया की इमेज ख़राब करते हैं, अनपढ़-जाहिल हैं, इनका कुछ नहीं हो सकता, मानो वे अपनी पसंद से ऐसे हैं.
अगर महामारी फैली तो लोग बहुत आसानी से ग़रीबों को दोषी ठहराएँगे कि ‘बेवकूफ़ लोगों की वजह से’ वायरस फैल गया, वरना हम तो अपने अपार्टमेंट में बैठकर रामायण देख रहे थे और माता रानी के लिए घी के दिए जला रहे थे. वो ये नहीं पूछेंगे कि ‘वायरस फैलाने वाले लोगों’ को 21 दिनों तक ज़िंदा रखने के क्या इंतज़ाम किए गए, और उन्हें कब और किसने इन इंतज़ामों के बारे में बताया?
देश के प्रधानमंत्री ने मेडिकल सर्विस में लगे लोगों का शुक्रिया करने के लिए शाम पाँच बजे थाली और ताली बजाने की अपील की, उसमें एक बात साफ़ थी कि उनके दिमाग में जो इंडिया है उसमें सब लोग बालकोनी और छतों वाले घरों में रहते हैं.

क्या सब बराबर के नागरिक हैं?

ग़ैर-बराबरी को हम भारतीय ईश्वरीय विधान मानते हैं, हम ग़रीबों की थोड़ी-बहुत मदद शायद कर भी दें, लेकिन हम दिल से हर इंसान को एक बराबर नहीं मानते, यही हमारा समाज है, यही हमारा सच है.
इसकी जड़ें वर्ण व्यवस्था में हैं जो लोगों के वर्गीकरण के बुनियादी सिद्धांत पर चलता है, और हमारी सामंतवादी मानसिकता भी इसके लिए ज़िम्मेदार है.
मजबूर मेहनती लोगों के सैलाब में हर जाति के लोग होंगे, यहाँ जातिगत भेदभाव की बात नहीं की जा रही है, हालाँकि ज़्यादातर मज़दूर पिछड़ी जातियों के ही होंगे. यहाँ हर तरह के भेदभाव की बात की जा रही है जो हमारे समाज में सहज स्वीकार्य हैं, हममें से ज़्यादातर लोग यही कहते-मानते पाए जाते हैं कि पाँचों उँगलियाँ बराबर नहीं होती, ये भेदभाव को स्वाभाविक बनाना है, उसमें बदलाव की बात कम ही लोग सोचते हैं, और इस व्यवस्था में जो मज़े में हैं, वो भला क्यों चाहेगा बदलाव!

सामाजिक व्यवहार

तिरुपति से लेकर वैष्णो देवी तक लोग मंदिरों में हज़ारों-लाखों रुपये दान करते हैं. विशाल मूर्तियाँ लगाने, भव्य मंदिर बनाने के नाम पर जितना भी चाहिए पैसा आ जाता है, मगर ग़रीबों के लिए हमारी मुट्ठी ज़रा कम ही खुलती है.
यह मुश्किल समय है, ऐसी बातें चुभ सकती हैं, लेकिन कहना होगा कि भारत की तमाम समााजिक-सांस्कृतिक सुंदरता में विराट हिंदू संस्कृति का सौंदर्य अटा पड़ा है, लेकिन साथ ही, भारत की सामाजिक कुरुपता में भी उसकी एक गहरी भूमिका है.
यह समय कोसने का नहीं, सोचने का है, बहुत गहराई से बहुसंख्यक समाज को अपने सामाजिक व्यवहार पर ग़ौर करना चाहिए, हर आलोचना पर तुनक जाने या महानता की कथाओं में फँसे रहने की जगह.
सिख समुदाय में गुरू नानक के सच्चे सौदे के समय से ही सेवा की भावना दूसरों से अधिक दिखती है. ख़ैरात और ज़कात मुसलमान करते हैं, हिंदू भी दान करते हैं लेकिन दान का सुपात्र हर कोई नहीं होता है, बाकी मंदिर के बाहर बैठे भिखारी को रुपया, दो रुपया देकर हम अच्छा महसूस कर लेते हैं.

क्या हम इस चर्चा के लिए तैयार हैं?

कोरोना ने एक बार फिर दिखाया है कि सरकार-समाज के निर्णयों-प्रतिक्रियाओं में वर्ण व्यवस्था की एक गहरी छाया है. क्या बतौर समाज हम बदलने को तैयार हैं, जैसे हर एक वोट की कीमत एक बराबर है, वैसे ही हर नागरिक की गरिमा भी एक बराबर हो सकती है? क्या हम इस चर्चा के लिए तैयार हैं?
क्या कोराना के बाद अगर हम राजनीतिक क्षुद्रताओं को ठुकरा देंगे, देश के सभी नागरिकों के लिए अच्छे और सस्ते सार्वजनिक यातायात- स्कूलों-अस्पतालों-विश्वविद्यालयों की माँग करने लगेंगे, बाकी हर सरकारी ख़र्चे को ग़ैर-ज़रूरी की श्रेणी में रखने पर ज़ोर डालेंगे.
ऊँची से ऊँची मूर्तियाँ लगाने की जब बात होगी तो क्या आपको याद रहेगा कि देश में प्रति हज़ार व्यक्ति कितने डॉक्टर हैं, प्रति हज़ार व्यक्ति कितने बिस्तर अस्पतालों में हैं, कितने लोग कुपोषित हैं, कितने लोगों को पीने का पानी नहीं मिल रहा है, हमारे रिसर्च इंस्टीट्यूटों में क्या काम हो रहा है, हम अपने ह्यूमन कैपिटल और युवाओं के लिए क्या अवसर पैदा कर रहे हैं, हम आने वाली पीढ़ी के लिए कैसा देश छोड़ जाएँगे?… वग़ैराह-वग़ैराह
कोराना जब पूरी दुनिया में फैला हुआ था, भारत में भी फैल रहा था तब हम ट्रंप के स्वागत में मगन थे, हम मध्य प्रदेश में सरकार बनाने का जश्न देख रहे थे, और ये बातें हमें फूहड़ नहीं लग रही थीं.
जब हमारा देश अपने नागरिकों की सेहत-शिक्षा और सुविधा के अलावा किसी भी दूसरे तामझाम को राष्ट्रीय संसाधनों की बर्बादी मानने लगेगा तो यकीन मानिए यह कोरोना की बहुत बड़ी कीमत नहीं होगी.  क्या हम सब ऐसा करेंगे?

साभार योगेन्द्र कुमार/HINDUSTAN TIMES

 

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