आजकल उत्तराखंड में “फ़्वाँ बाघ” गीत की धूम मची हुई है। यह गीत जिस बाघ पर बना है, उसकी कहानी संक्षेप में ये रही –
गढ़वाल के रुद्रप्रयाग क्षेत्र में इस आदमखोर बाघ ने 1918 से 1925 के आठ वर्षों में 125 लोगों को मारा था। अनेक पशु भी मारे। पहला मानव शिकार 9 जून 1918 को बेंजी गांव में किया। रात होते ही लोग घरों में बंद हो जाते। केदारनाथ, बद्रीनाथ तीर्थ यात्रा पर भी असर पड़ा।
तब गढ़वाल के इस क्षेत्र में अंग्रेजों का राज था। प्रथम विश्व युद्ध के चलते फैली महामारी, जिसे इतिहास में युद्ध ज्वर कहा जाता है, से अनेक लोग मर रहे थे। माना जाता है कि कुछ को समुचित जलाए या दफनाए न जाने से बाघ ने कुछ मानव मांश खा लिया तो फिर वह पशुओं के साथ इंसानों को भी खाने लगा।
जिम कार्बेट नाम के प्रसिद्ध शिकारी ने इस बाघ को 2 मई 1926 को मारा और फिर ” मैनईटिंग लेपर्ड आफ रुद्रप्रयाग ” नाम से एक क़िताब लिखी।
इस बाघ को मारने के लिए अंग्रेज सरकार ने राष्ट्रीय स्तर पर विज्ञापन देकर टेंडर जारी किया था। ऐसा भारत में पहली बार किया गया था।
बीबीसी ने भी 2005 में इस बाघ की कथा पर मैनहंटर्स सीरिज़ के दो एपिसोड बनाए।
रुद्रप्रयाग में गुलाबराय नाम की जगह पर जहाँ ये बाघ मारा गया था, एक साइनबोर्ड आज भी देखा जा सकता है।
मारने के बाद इस बाघ की लंबाई नापी गई तो 7 फीट 10 इंच थी। एक दाँत टूटा हुआ था और पिछले पंजे का एक अँगूठा भी गायब था।
इस बाघ को मारने के लिए खतरनाक ज़हर साइनाइड का भी प्रयोग किया गया था, लेकिन ये बच गया। बाघ साइनाइड को भी पचा गया। इसकी जीभ काली पड़ गई थी।
बाघ इतना ताकतवर था कि एक बार इसका पंजा पिंजरे में फँस गया लेकिन ये डेढ़ कुंतल वज़न के पिंजरे को भी 500 मीटर तक खींच कर ले गया और अपना पंजा भी छुड़ा लिया। इसके चक्कर में कई और बाघ मारे जाते रहे।
फ्वां बाघ गीत में जो हवलदार साब, सुबदार साब, लप्टन साब, कप्टन साब आता है। वह बताता है कि बड़े बड़े फौजी आए लेकिन बाघ को न मार सके। गीत मूल रूप से गीतकार विशालमणी जी का है। लोक गायक चन्द्रसिंह राही जी ने इसे बेहतरीन कंपोज किया
आदमखोर बाघों पर उत्तराखंड में अन्य अनेक गीत बने हैं। उत्तराखंड में प्राय: तेंदुआ को बाघ ही कहते हैं। फ्वां बाघ भी तेंदुआ ही था।