यदि आपने पुराणी टीरी को देखा है , भोगा है या कुछ समय के लिए जिया है तो एक बार अवश्य पढ़के देखें और अपनी स्मृतियों / यादों को सजीव करें. हो सके तो अगली पीढ़ी या परिचितों को बताने के लिए सहेज कर रखे. क्योंकि जब कोई पूछेगा – कैसी थी वो टीरी/ टिहरी ? तो आपको बताने में आसानी होगी .
मेरी –- टीरी
बचपन में हम एक खेल खेलते थे .बच्चे एक गोला बनाकर खड़े हो जाते थे, एक बच्चा बीच में खड़ा होता था और फिर उससे कोरस में गाकर पूछा जाता था “ हरा समंदर ,गोपी –चंदन, बोल मेरी मछली कितना पानी ?”.अब इस बालगीत में मछली शब्द की जगह टिहरी शब्द कर देते हैं और कल्पना करते हैं कि, इसी टिहरी का कोई बाशिंदा ,बांध को देखने आया है, कि झील में कितना पानी भरा है ? तो उस विशाल झील को देखकर और उसके अंदर समाये,अपने शहर को देखकर, उसके मन में भी यह सवाल जरूर उठता होगा कि, कैसे डूबा अपना शहर ? शहर, जिसमें बिताए गए थे कितने ही हसींन पल ,जिससे जुडी थी अनेक खट्टी –मीठी यादें . कितने सालों तक संघर्ष किया था इसके चाहनेवालों ने इसे बचाने के लिए. कोर्ट , कचहरी ,रिट , आयोग, धरना –प्रदर्शन, समितियां किसी को भी नहीं छोडा था .दूसरी तरफ सरकारी अमला था जो उसे जल्दी डुबोने में जुटा था .अंत में सरकार ने भी पल्ला झाड़ते हुए साफ़-साफ कह दिया कि, अब इसका बचना मुशिकल है . हाँ मुआवजा वगैरा कुछ दे –दिला देते हैं , एक्सीडेंट क्लेम की तरह .जिन लोगों ने खाली रोजी –रोटी के लिए टिहरी का आसरा लिया था ,उनकी बात छोडो पर जिनके बाप , दादा –परदादा की कब्र उस शहर में खुदी थी या अस्थियाँ गंगा –भिलंगना के संगम में विसर्जित हुई थी ,उन्हें आज भी टिहरी डूबने का गम है , मातम है .बाहरी दुनियां के लिए भले ही इस कस्बे का अस्तित्व रोम या ग्रीस जैसा न रहा हो पर इसके बाशिन्दों के लिए ये शहर किसी तिलस्म से कम नहीं था.
अपने –अपने समय की टिहरी पर सभी को नाज था . हमारे पिता, चाचा –ताऊ की पीढ़ी के लोग सुनाते थे किस्से राजशाही ज़माने के , ड्रामा –क्लब के, राजाओं के दशहरे के , सुमन और नागेन्द्र सकलानी व मोलू की शहादत के, आजादी की लड़ाई के , प्रजामंडल के .उनकी कहानियों के पात्र होते थे खुरचन मियां, महेंद्र हलवाई , प्रिंसिपल भगवंत राय, स्वामी रामतीर्थ, अठूर की बेडवार्त ,कंडल का नौरता. हमारे बचपन तक न शहर में बिजली थी और न पक्की सड़कें. शहर के कुछ मोहल्लों में लैंप –पोस्ट थे ,जहाँ कांच के लैंप जलाकर रखे जाते थे . घंटाघर के पास जहाँ बाद में नगर पालिका थी , वहां एक पावर- हाउसनुमा कुछ था और महल के नीचे एक पुल था, जिसे बिजली का पुल पता नहीं क्यों कहते थे . शहर में रात को बाघ भी नाईट-वाक करने आते थे और वापसी में दो –चार कुत्तों को साथ लेकर चले जाते थे. कभी कोई अध –खाई गाय भी उनके आने की गवाही देती थी.
झील के सीने से बीच –बीच में सर उठाकर जो घंटाघर कभी –कभी झांकता है, उसका हमारे लिए उतना ही महत्व था ,जितना पेरिस के लोगों के लिए एफिल – टावर का है .इसका वास्तुशिल्प तो अद्भुत था ही पर इसकी घड़ियों की आवाज शहरवालों को वक्त गुजरने का मधुर अहसास कराती थी .नीचे एक लोहे के स्टैंड पर एक बड़े तवे की तरह एक मोटी तश्तरी थी, जिसे धूप घडी कहते थे . इसके बीच में एक छेद था, जिसमें हम पेंसिल या लकड़ी फंसाकर समय जानने की कोशिश करते थे पर समझना मुश्किल था . घंटाघर की आवाज जहाँ नहीं पहुँचती थी,वहां पहुंचती थी पी.आई,सी.(प्रताप इंटर कॉलेज ) की आवाज. लोग कहते थे कि इसकी आवाज मदन नेगी और अठूर तक भी सुनाई देती थी.
प्रताप इंटर कॉलेज उस शहर का ही नहीं बल्कि पूरे जिले का ऑक्सफ़ोर्ड या केम्ब्रिज था. अपने यहाँ के न्यूटन- आइन्स्टीन हुए हों या फिर अरस्तु और सुकरात सभी इसकी पैदाइश थे. छोटे बच्चों के लिए एक आदर्श विद्यालय था जो मॉडल स्कूल के नाम से अधिक जाना जाता था .उसका एक बड़ा भाई भी था ,नार्मल –स्कूल. पता नहीं यह नार्मल –एबनार्मल का क्या रहस्य था. वहां के छात्रों को बी.टी.सी वाले कहा जाता था जो आगे चलकर शिक्षक बनते थे और पांचवीं –आठवीं तक की शिक्षा देने की जिम्मेदारी निभाते थे .
शहर में एक आई.टी.आई और एक स्वामी रामतीर्थ विद्यामंदिर नाम का आठवीं तक का एक स्कूल भी था .वह बद्रीनाथ मंदिर के परिसर में था और उसी बद्रीनाथ मंदिर में एक संस्कृत पाठशाला भी थी जो कालांतर में भवन जर्जर होने के कारण सेमल –तप्पड़ में स्थानांतरित हो गई थी .उसका नाम पहले शायद हैबट पाठशाला था पता नहीं अंग्रेजी और संस्कृत के इस मेल का इतिहास क्या था ? बद्रीनाथ मंदिर से सटा एक केदारनाथ मंदिर भी था. मंदिरों के नीचे माँ गंगा कल –कल करके बहती थी और बद्रीनाथ मंदिर में उनकी संगमरमर की एक सुन्दर सी मूर्ति भी थी .
शेष आगे ….
पुरानी टीरी वालों की याद मे लिखी कविता यह भी पदें