रविवार 8 अगस्त 1661, श्रावण मास 1718, युगाब्ध 4763 को (आज से लगभग 354 साल पहले) देवभूमि कहलाने वाले इस अंचल के पौड़ी गढ़वाल के अन्तर्गत चौंदकोट पट्टी के गुराड़ तल्ला गांव में श्री भूपसिंह गोर्ला व मैंणावती के घर में विश्व की महानत्तम योद्धा तीलू रौतेली ने जन्म लिया था। अपूर्व शौर्य संकल्प और साहस की धनी तीलू रौतेली 15 से 20 वर्ष की आयु के मध्य सात युद्ध लड़ने वाली तीलू रौतेली संभवत विश्व की एक मात्र वीरांगना थी इसलिये इस वीरांगना को गढ़वाल के इतिहास में “झांसी की रानी” कहकर याद किया जाता है।
15 वर्ष की आयु में तीलू रौतेली की मंगनी इड़ा गाँव (पट्टी मोंदाडस्यु) के भुप्पा नेगी के पुत्र के साथ हो गयी थी। लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था। कत्यूरियों के साथ युद्ध में तीलू के पिता, मंगेतर और दोनों भाइयों के युद्धभूमि में प्राण न्योछावर हो गए।
प्रतिशोध की ज्वाला ने तीलू को घायल सिंहनी बना दिया था, शास्त्रों से सुसज्जित सैनिकों तथा “बिंदुली” नाम की घोड़ी और दो सहेलियों बेल्लु और देवली को साथ लेकर युद्ध के लिए प्रस्थान किया। सबसे पहले तीलू रौतेली ने खैरागढ़ (वर्तमान कालागढ़ के समीप) को कत्यूरियों से मुक्त करवाया। तत्पश्चात उमटागढ़ी पर धावा बोला फिर वह अपने सैन्य दल के साथ “सल्ट महदेव” पंहुची वहां से भी शत्रु दल को भगाया, इस जीत के उपरान्त तीलू ने “भिलण भौण” की ओर प्रस्थान किया तीलू दो सहेलियों “बेल्लु” और “देवली” ने इसी युद्ध में मृत्यु का आलिंगन किया था। चौखुटिया तक गढ़ राज्य की सीमा निर्धारित कर देने के बाद वीरांगना तीलू रौतेली अपने सैन्य दल के साथ देघाट वापस आई। कालिंकाखाल में तीलू का शत्रु से पुन: घमासान संग्राम हुआ। तल्ला कांडा शिविर के समीप पूर्वी न्यार नदी में स्नान करते समय रामू रजवार नामक एक कत्युरी सैनिक ने धोखे से तीलू पर तलवार से हमला करके तीलू की जान ले ली थी।
आज भी तीलू कि याद में रणभूत नचाया जाता है। जब तीलू रौतेली नचाई जाती है तो अन्य बीरों के रण भूत/पश्वा जैसे शिब्बू पोखरियाल, घिमंडू हुडक्या, बेलु-पत्तू सखियाँ, नेगी सरदार आदि के पश्वाओं को भी नचाया जाता है। सबके सब पश्वा मंडाण में युद्ध नृत्य के साथ अवतरित होते हैं। आज के परिपेक्ष में तीलू को याद करने के साथ-साथ आवश्यक है कि अपनी लड़की को तीलू की तरह स्वालंबी और स्वाभिमानी बनायें…. ताकि आज भी हर घर में एक तीलू जीवित रहे…
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