लोकतंत्र का मजमा

 साधो ! जमाना कतई गैर राजनीतिक हो चला है सो गैर राजनीति ही बतियाई जाये। बताते हैं कि लोकतंत्र का पर्व चल रहा है, पर्व तो नहीं पर मजमा जरूर नज़रआता है। मदारी  ने  डुगडुगी बजाई,तमाशाई जुटे, मदारी हाथ और बात की सफाई से रिझाता है और बस, खेल खतम-पैसा हजम। तमाशे में मुंह खोलने का हक़ सिर्फ मदारी का ही होता है।
       पर जब लोकतंत्र का मजमा नहीं था, तब सुनते हैं कि राजाओं-बादशाहों का जमाना था। लोकतंत्र में तो संविधान-फंविधान का लफड़ा भी है मगर, उस जमाने में तो वो भी न था. राजा या बादशाह के बोल-बचन ही संविधान थे  तभी तो बोल-बचन वालों को वो जमाना बहुत सुहाता है। राजा ही बोल सकता था और यदि किसी को मुंह खोलने की इच्छा ज्यादा ही बलवती हो जाये तो महाराज की तारीफ में ही बोलना होता था। राजाओं की तारीफ़ों के पुल बांधने वाले इन महारथियों को उस जमाने में चारण-भाट कहा जाता था। उनका साया अभी भी कुछ लोगों पर मँडराता रहता है इसलिए वे अभी भी तारीफ़ों की पुष्प-वर्षा करते रहते हैं। हे महाराज आप भी कमाल है, महाराज आपका चहुँ दिशाओं में…. ।
चूंकि अब जमाना बदल गया है तो पहले तारीफ़ों के पुल से काम चल जाता था अब तारीफ़ों के पुल ही नहीं फुटओवर ब्रिज से लेकर फ्लाई ओवर तक बांधने पड़ते हैं।पर जो इस जमाने में सच बोलने का रिस्क न उठा सकने के डर से शहँशाह की तारीफ में फ्लाई ओवर बांधने वाले हैं, वे यह भी जान लें कि सच बोलने वाले तो चारण-भाटों के काल में भी सच बोल लिया करते थे।
        एक राजा हुए जय सिंह. जय सिंह के दरबार में एक कवि थे बिहारी। राजा जय सिंह की शादी हुई तो उन्होंने राजकाज पर ध्यान देना बंद कर दिया। वैसे राजकाज पर ध्यान न देने के लिए शादी होना कोई जरूरी तो नहीं। बिना शादी के भी राजपुरुष -“पंछी बनूँ उड़ता फिरूँ मस्त गगन में”- वाली अवस्था में रह सकता है। बहरहाल राजपुरुष क्या कर सकते हैं -क्या नहीं, इस पर ज्यादा बात करने से बात राजनीतिक हो जाएगी, इसलिए बात को गैर राजनीतिक रखते हैं और राजा जय सिंह व कवि बिहारी के किस्से पर लौटते हैं। राजा जय सिंह को राजकाज से विमुख देखर कर कवि बिहारी ने राजा को दोहा लिख कर भेजा-

               “नहिं पराग नहिं मधुर मधु नहिं विकास यहि काल अली कली में ही बिन्ध्यो आगे कौन हवाल.”।

आप समझें न समझें,राजा जय सिंह समझ गए और राजकाज के प्रबंधन में लौट आए। उस जमाने में डिग्री का लफड़ा तो न था पर यह दोहा राजा समझ गया तो इससे प्रतीत होता है कि, पढ़ा-लिखा तो रहा ही होगा। वैसे पढ़ा-लिखा ही लिखे-पढे सलाहकार भी रख सकता है. अनपढ़ या कुपढ़ राजपुरुषों के द्वारा पुस्तकालय जलाने, विशावविद्यालय नष्ट करने और उनसे डाह रखने की दास्तानों का एक अंतहीन सिलसिला है। सच ऐसी शै है कि कई बार लोग, आतातायी से आतातायी शासकों के सामने भी बोल डालते हैं। बात बिलकुल राजनीतिक न होने पाये,कतई गैर राजनीतिक रहे, इसके लिए फिर एक पुराने जमाने के आतातायी राजा का किस्सा सुनिए. तैमूर लंग नाम का एक बादशाह था,जो अपने क्रूर मिज़ाज और आतातायीपन के लिए जाना जाता था। एक बार तैमूर लंग के दरबार में एक विद्वान आया। विद्वान से राजदरबार में खूब विद्वता की बातें सुनी गयी,पर राजपुरुषों की अपनी ख़ब्त होती है, अगर वे बातों के केंद्र में अपने को न पाएँ तो उनका जी मचलने लगता है, सारी विद्वता की बातें अपने जिक्र के बगैर उन्हें फीकी मालूम पड़ती है, खुद आकर्षण का केंद्र बनने के लिए राजपुरुष शेख से शेखचिल्ली बनने को तैयार रहते हैं, तो बात अपने पर आ जाये,इसलिए तैमूर लंग ने विद्वान से कहा- हम आपकी विद्वता से खुश हुए,अब आप हमारे एक सवाल का जवाब दीजिये। विद्वान ने कहा- हुकुम करें बादशाह सलामत. तैमूर लंग बोला-बताइये हमारी कीमत कितनी होगी ? विद्वान सकपका गया,बोला- ये रहने दीजिये। बादशाह ने इसरार किया तो बोला- हुजूर आप जवाब सुन कर मेरा सिर कलम करवा देंगे। तैमूर लंग ने वायदा किया कि ऐसा न होगा, तब विद्वान बोला- हुजूर चालीस दिनार। कीमत सुन कर तैमूर लंग ने कहा- क्या बकता है,इतनी तो हमारे कपड़ों की कीमत है ! विद्वान ने कहा- हुजूर,इन्ही की तो कीमत है,राजपुरुष को कौन समझाये कि उसके तन के कपड़ों और जिस गद्दी पर वह बैठा है,कुल जमा कीमत उन्ही की है,उसका दाम तो कौड़ी भर है ! राजपुरुषों की कथाओं में नंगे राजा की कथा तो बेहद चर्चित है। हुआ यूँ कि एक सनकी राजा के दरबार में बेहतरीन कपड़ा बुनने वाले का रूप धर कर दो ठग आ गए । वैसे राजपुरुष यदि सनकी या खब्ती न हो तो राजपुरुष किस बात का ! बहरहाल, बेहतरीन कपड़े बुनने का रूप धरे ठगों ने राजा को इस बात के लिए मुतमइन कर लिया कि यदि उनको कुछ हज़ार सोने की मोहरें मेहनताने के तौर पर दी जाएँ और ढेर सारा सोना दे दिया जाये तो वे सोने को रेशों में तब्दील करेंगे और उन सोने के रेशों से राजा के लिए सोने के वस्त्र तैयार करेंगे। ठगों द्वारा चाहा गया सब कुछ उन्हें राजकोष से उपलब्ध करवा दिया गया। ठगों ने राजा से कहा कि सोने के बने ये दिव्य वस्त्र सिर्फ निष्पाप लोगों को ही नज़र आएंगे। पापी घोषित होने के डर से दरबारी और राजा सब वस्त्रों के निर्माण की प्रक्रिया और कथित वस्त्र निर्माताओं की भारी तारीफ करते रहे। फिर एक दिन वस्त्र निर्माण पूर्ण होने की घोषणा हुई। राजा ने ऐलान किया कि सोने के वस्त्रों को पहन कर वे झांकी निकलेंगे। ठगों ने राजा को सोने के वस्त्र पहनाने का अभिनय किया और उसके बाद राजा की झांकी निकली, पापी घोषित होने के डर से सब चुप थे पर भीड़ में से एक बच्चा चिल्लाया- राजा तो नंगा है-राजा तो नंगा है। यही शाश्वत सत्य है।
   समय बीतने के साथ भले ही ठग और राजा हमनिवाला, हमप्याला हो गए हों पर चूसे हुए आम के छिलकों से नंगई तो नहीं ढक सकती ना।


                                                                                                                                                                             इन्द्रेश मैखुरी !