डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला (दून विश्वविद्यालय)

स्वाद और ऊपरी चमक-दमक की वजह से चलन से बाहर होने की कगार पर खड़े मोटे अनाज की डिमांड पिछले तीन वर्षों में दोगुना बढ़ गई है। परंतु राज्य गठन के 22 वर्ष बाद भी सरकार और विभागीय प्रयास रकबा बढ़ा पाने में नाकाम रहे हैं। मोटे अनाजों को लेकर जिस तरीके से जागरूकता बढ़ गई है। इसी अनुरूप डिमांड भी बढ़ रही है। अब घरों में ही नहीं, बल्कि रेस्टोरेंट्स में भी मोटे अनाज से बने भोजन आर्डर किया जाने लगा है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से इसका रकबा लगातार कम होता जा रहा है। इसका कारण खेती प्रति किसानों का मुंह मोडऩा बड़ा कारण है। वह गेहूं, चावल, चना, मटर, मसूर, सोयाबीन में ही लाभ की संभावनाएं देखते हुए अधिक उत्पादन कर रहे हैं। नई पीढ़ी का भी रुझान खेती को लेकर नहीं दिखता। हमने बदलते समय के साथ ही पारंपरिक उपज और खानपान की घोर उपेक्षा की है। यही कारण है कि वर्ष 2001- 2002 में जहां हम एक लाख 31 हजार हेक्टेयर पर्वतीय भूमि में मंडुवे का उत्पादन करते थे। जो 2021-22 में सिमटकर 90 हजार हेक्टेयर रह गया है।
इसी प्रकार झिंगुरे का उत्पादन क्षेत्रफल 67 हजार हेक्टेयर से घटकर 40 हजार हेक्टेयर हो गया है। इन दोनों ही अनाजों के उपज के क्षेत्रफल में राज्य गठन के बाद से करीब 35 प्रतिशत कमी हुई है। मोटे अनाज में पौष्टिकता होने के साथ ही अनेक प्रकार के खाद्य-औषधीय गुण भी हैं। ये रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के साथ ही मधुमेह के रोगियों के लिए भी फायदेमंद है। मोटे अनाज में कैल्शियम आयरन, फास्फोरस, मैग्नीशियम, जस्ता, पोटेशियम, विटामिन बी-6 और विटामिन बी-3 पाया जाता है। यही वजह है कि प्रधानमंत्री ने कूनो में मोटे-अनाज का जिक्र करके लोगों का ध्यान एकाएक इस ओर खींचा था मोटे अनाज की डिमांड बढ़ी है, इसलिए रकबा बढ़ाने को लेकर किसानों को लगातार जागरूक किया जा रहा है मोटे अनाजों को पोषण का पावर हाउस कहा जाता है। ये सूक्ष्म पोषक तत्वों, विटामिनों और खनिजों का भंडार हैं। छोटे बच्चों और प्रजजन आयु वर्ग की महिलाओं के पोषण में विशेष लाभप्रद होते हैं।
शाकाहारी खाद्य पदार्थों की बढ़ती मांग के दौर में मोटे अनाज बढ़िया विकल्प हैं। इनकी खेती भी किफायती होती है, जिसमें ज्यादा देखभाल नहीं करनी पड़ती। इनका भंडारण भी आसान है। अतीत में मोटे अनाज हमारी थाली का एक प्रमुख हिस्सा हुआ करते थे। फिर हरित क्रांति और गेहूं-चावल के दौर में मोटे अनाज लगातार उपेक्षित होते गए। स्थिति यह हो गई है कि हमारे खाद्यान्न उत्पादन में करीब 40 प्रतिशत की हिस्सेदारी रखने वाले मोटे अनाजों की हिस्सेदारी अब सिमटकर 10 प्रतिशत से भी कम रह गई है। वैसे, एशिया और अफ्रीका ही मोटे अनाज के प्रमुख उत्पादन और खपत केंद्र हैं। भारत, सूडान और नाइजीरिया इनके प्रमुख उत्पादक हैं।
दुनिया में मोटे अनाजों के उत्पादन का करीब 40 प्रतिशत अभी भी भारत में होता है। मोटे अनाजों को मुख्यधारा में लाने के लिए तमाम प्रयास किए हैं। विशेषकर अप्रैल 2018 से सरकार मोटे अनाजों का उत्पादन बढ़ाने के लिए मिशन मोड में काम कर रही है। उनके न्यूनतम समर्थन मूल्य में अच्छी-खासी वृद्धि की है। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन के तहत मिलेट के लिए पोषक अनाज घटक 14 राज्यों के 212 जिलों में क्रियान्वित किया जा रहा है। भारत के अधिकांश राज्यों में एक या एक से अधिक मोटे अनाज की प्रजातियां उगाई जाती हैं। राज्यों को विशेष रियायतें दी गई हैं। इसमें तीन महीने के भीतर इन अनाजों के वितरण की अनिवार्यता को समाप्त कर इसे छह से 10 महीने कर दिया गया है। केंद्रीय पूल में इन अनाजों की खरीद का लक्ष्य 2021 के 6.5 लाख टन से बढ़ाकर 2022 में 13 लाख टन किया है।
चालू खरीफ सत्र में ही 30 नवंबर तक हरियाणा, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, गुजरात और तमिलनाडु में इस निर्धारित लक्ष्य से अधिक की खरीद हो गई। चालू फसल वर्ष के दौरान 2.88 करोड़ टन मोटे अनाज के उत्पादन का लक्ष्य है और यह लक्ष्य प्राप्त होता भी दिख रहा है। संयुक्त राष्ट्र की ‘द स्टेट आफ फूड सिक्योरिटी एंड न्यूट्रिशन इन द वर्ल्ड रिपोर्ट, 2022’ के अनुसार वर्ष 2021 से जहां भारत में 22.4 करोड़ लोग भूख एवं कुपोषण की चुनौती से जूझते रहे तो दुनिया में करीब 76.8 करोड़ लोग इस चुनौती का सामना कर रहे हैं। ऐसे में करोड़ों लोगों के लिए पोषक आहार की व्यवस्था करना आवश्यक है, जिसमें मोटे अनाजों को मददगार के रूप में देखा जा रहा है।

इसमें कोई संदेह नहीं कि सरकार मोटे अनाजों को प्रोत्साहन देने के प्रति गंभीर है, लेकिन इस दिशा में और प्रयास आवश्यक होंगे। जैसे कि सरकार ने पिछले चार-पांच दशकों में अन्य नकदी फसलों को बढ़ावा देने के उपाय किए हैं, उसी तरह के कदम मोटे अनाजों के संदर्भ में भी उठाए जाएं। देश के कृषि अनुसंधान संस्थानों को मोटे अनाजों पर शोध-अनुसंधान को बढ़ावा देना होगा। सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से गेहूं एवं चावल की तुलना में मोटे अनाज की अधिक आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए मोटे अनाजों की सरकारी खरीद बढ़ानी होगी।
उम्मीद है कि अंतरराष्ट्रीय मोटा अनाज वर्ष के मद्देनजर जिस तरह मोटे अनाज को बढ़ावा देने की कोशिश बीते दिनों संसद में दिखी, उसके दूरगामी प्रभाव होंगे। भारत 2023 में जी-20 की अध्यक्षता के दौरान अंतरराष्ट्रीय मोटा अनाज वर्ष के उद्देश्यों एवं फायदों के दृष्टिकोण से वैश्विक स्तर पर जागरूकता प्रसार में सफल होगा। इससे मोटे अनाजों का उत्पादन एवं उपभोग तो बढ़ेगा ही, साथ ही फसल चक्र भी संतुलित होगा और कुपोषण के विरुद्ध युद्ध में भी निर्णायक विजय की ओर कदम बढ़ेंगे। एक बात को जान लेना जरूरी है कि मोटे अनाज की खेती में कम मेहनत लगती है और पानी की भी कम ही जरूरत होती है। यह ऐसा अन्न है जो बिना सिंचाई और बिना खाद के पैदा किया जा सकता है।
भारत की कुल कृषि भूमि में मात्र 25-30 फीसद ही सिंचित या अर्ध सिंचित है। अत: लगभग 70-80 कृषि भूमि वैसे भी धान (चावल) या गेहूं नहीं उगा सकते। चावल (धान) और गेहूं के उगाने के लिये लगभग महीने में एकबार पूरे खेत को पानी से भरकर फ्लड इरीगेशन करना पडता है। इतना पानी अब बचा ही नहीं कि पीने के पानी को बोरिंग कर पम्पों से निकाल कर खेतों को भरा जा सके। धान और गेहूं में भयंकर ढंग से रासायनिक उर्वरक और कीटनाशकों का प्रयोग करना पडता है, जिससे इंसानों के स्वास्थ्य पर बुरा असर तो पड़ता ही है, जमीन बंजर होती जाती है वह अलग।एक बात समझनी होगी कि जब मोटा अनाज की मांग बढेगी तो बाजार में इनका दाम बढेगा तभी असंचित भूमि वाले गरीब किसानों की आय भी बढेगी। कृषि विशेषज्ञ मानते हैं कि पूरे विश्व के मोटा अनाज का बड़ा उत्पादक भारत है, इसलिए भारत के पास यह अनुपम अवसर है अपने मोटा अनाज का निर्यात तेजी से बढाने का। उस स्थिति में भारत का विदेशी मुद्रा का भंडार भरने लगेगा और गरीब किसानों का पेट भी।