जन संंघर्ष और शहादतों से जन्में उत्तराखण्ड राज्य में कायदे कानून को ताक में रखकर पीक एण्ड चूज की नीति अपनाये जाने का पहला उदाहरण विधान सभा में बैकडोर से (तदर्थ रुप में) की गई नियुक्तियों में देखने को मिला । बेरोज़गार युवा वर्ग के तमाम विरोध के बाद भी विधान सभा में बैैक डोर नियुक्तियों का यह सिलसिला हालिया वर्षों तक जारी रहा । पीक एण्ड चूज , नकल और पेपर लीक जैसी आपराधिक घटनाओं के प्रति जवाबदेही के सवाल पर जिम्मेदार पक्षों की चुप्पी से प्रभावित जन-मानस के सामने यह तय कर पाना मुश्किल हो गया है कि व्यवस्था के उल्लंघन से रोजगार पाने की “आस” पर हुए तुषारापात की शिकायत करें तो आखिर करें किससे ?


किसी भी राज्य के चहुंमुखी विकास के लिए सुदृढ एंव पारदर्शी व्यवस्था का होना जरुरी है और व्यवस्था रुपी गंगा का उदगम स्थल विधानसभा है । यदि विधानसभा में ही इसका उल्लंघन कर संंवैधानिक व्यवस्था पर चोट पहुंचाई जायेगी तो इसके चौतरफा परिणाम अस्थिरता और उथल-पुथल करने वाले होंगे । इसी वजह से उत्तराखण्ड देश का ऐसा राज्य बन गया है जिसकी विधानसभा में राज्य गठन के बाद हुई सभी नियुक्तियां अवैध हों और जहां विभिन्न श्रेणी की भर्ती करने के लिए गठित लोक सेवा चयन आयोग तथा अधीनस्थ सेवा चयन आयोग से समूचे जनमानस का विश्वास उठ चुका है ।
उत्तराखण्ड विधानसभा में बैकडोर से हुई नियुक्तियों की जांच हेतु गठित कमेटी द्वारा राज्य गठन के बाद से तदर्थ रुप में हुई सभी नियुक्तियों को अवैध ठहरा दिये जाने के बाद हडकंप मच गया । आनन-फानन में 2016 के बाद नियुक्त कर्मियों को बर्खास्त कर दिया गया और जिम्मेदार पक्षों की ओर से इन नियुक्तियों को लेकर जिस प्रकार खुलेआम गैर जिम्मेदाराना बयान देते हुए एकदूसरे के खिलाफ सियासी तीर चलाये गये उससे आम जन के साथ ही प्रबुद्ध वर्ग भी भौचक्का सा होकर रह गया । चूंकि गलत की नजीर नहीं दी जा सकती है लेकिन इस मामले में हर कोई गलत की नजीर देकर बचने की जी तोड़ कोशिश में जुटा रहा है ।
संविधान के अनुच्छेद 14 में “विधि के समक्ष समानता” तथा अनुच्छेद 16 में “लोक नियोजन में अवसर की समानता” का प्रावधान है । विधानसभा में हुई नियुक्तियों में तो संविधान के अनुच्छेद 14 एंव 16 का खुला उल्लंघन हुआ ही लेकिन 2016 के बाद नियुक्त कर्मियों की बर्खास्तगी में भी अनुच्छेद 14 का खुला उल्लंघन हुआ जो अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण है ।


उत्तराखंड राज्य प्राप्ति के लिए समर्पित होकर संघर्ष करने वाले आम जनमानस ने इसके बाद स्वंय को बुरी तरह से ठगा हुआ तब महसूस किया जब विभिन्न श्रेणी की भर्तियों के लिए गठित उत्तराखंड अधीनस्थ सेवा चयन आयोग एंव उत्तराखंड लोक सेवा चयन आयोग द्वारा भर्तियों के लिए आयोजित परीक्षाओं में नकल और पेपर लीक के मामले सामने आने शुरु हुए ।

लोक सेवा आयोग द्वारा हाल ही में पटवारी भर्ती हेतु आयोजित परीक्षा के पेपर लीक होने से हडकम्प मचा है । राज्य के युवाओं में गुस्सा और अभिभावको में अपने नौनिहालों के भविष्य को लेकर चिन्ता है । हालांकि पेपर लीक होने की जांच के साथ ही इस अपराध में लिप्त दोषियों की गिरफ्तारी जारी है और सख्त नकल विरोधी अध्यादेेश लाने की तैयारी भी जारी है लेकिन हैरतअंगेज पहलू यह है कि लगातार हो रही ऐसी आपराधिक घटना के लिए जवाबदेही के सवाल पर सब चुप हैं । अति गोपनीय कक्ष जहां प्रश्न पत्र रखे गये थे क्या वहां जैमर नहीं लगे थे ? उस कक्ष में जब मोबाइल ले जाना निषेध है तो मोबाइल कैसे गया ?
प्रश्न पत्र परीक्षा नियंत्रक की कस्टडी में क्यों नहीं रखे गए ? …प्रशासनिक व्यवस्था से जुड़े ऐसे तमाम सवाल अभी अनुत्तरित हैं ।


आखिर जवाबदेह कौन है ? इस सवाल के उत्तर के लिए 2015 में हुए ऐसे ही मामले की पृष्ठभूमि में जाना होगा । वर्ष 2014 में अधीनस्थ सेवा चयन आयोग का एक्ट बना और 2015 में विनियमन होने के साथ ही यह फंक्शन में आया । 2015 में ही ग्राम विकास अधिकारी/ग्राम पंचायत अधिकारी की परीक्षा में नकल का मामला उजागर हुआ। हालांकि इसके बाद भी नकल के चलते अधीनस्थ सेवा चयन आयोग द्वारा आयोजित तीन परीक्षा॓ए निरस्त हुई और सात जांच के दायरे में हैं जिससे आयोग की खूब किरकिरी हुई है लेकिन दिलचस्प पहलु यह रहा कि वर्ष 2015 में एक परीक्षा में हुई नकल के लिए आयोग के तत्कालीन अध्यक्ष, सचिव एंव परीक्षा नियंत्रक को दोषी मानते हुए तीनों को 4 माह पूर्व गिरफ्तार कर जेल में डाला गया है जबकि अन्य परीक्षाओं में हुई धांधली की जवाबदेही के सवाल पर हर स्तर से चुप्पी है ।
यद्यपि नकल और पेपर लीक जैसी आपराधिक घटनाओं के कारणों का स्पष्ट खुलासा चल रही जांच में होगा लेकिन प्रश्न पत्र परीक्षा नियंत्रक की कस्टडी से इतर रखे जाने और गोपनीय कक्ष में प्रतिबन्ध के बाद भी मोबाइल का पहुंचना स्पष्टत: प्रशासनिक लापरवाही का द्योतक है । स्वायत्ता का मतलब यह भी नहीं होना चाहिए कि मनमर्जी कर कानून का उल्लंघन किया जाय ।कानून का उल्लंघन अपराध है और अपराध को रोकने का जिम्मा सरकार का है ।


पटवारी भर्ती परीक्षा का पेपर लीक होने से उत्पन्न जनाक्रोश के बीच अब लोक सेवा आयोग के सदस्यों की नियुक्ति में ही संंवैधानिक व्यवस्था की अनदेखी का मामला सामने आ जाने से सरकार की भूमिका पर भी सवाल उठ गया है ।
लोक सेवा आयोग में सदस्यों की कुल निर्धारित संख्या 06 है । वर्तमान में 5 भरे हैं ,01 रिक्त है । संंविधान में राज्य लोक सेवा आयोग के सदस्य का कार्यकाल 06 वर्षं या 62 वर्ष की आयु जो भी पहले हो, निर्धारित है । संंविधान के अनुच्छेद 316 में उल्लिखित है कि लोक सेवा आयोग के सदस्यों में से यथाशक्य निकटतम आधे ऐसे व्यक्ति होंगे जो अपनी अपनी नियुक्ति की तारीख पर भारत सरकार या राज्य की सरकार के अधीन कम से कम 10 वर्षं तक पद धारण कर चुके हों ।
उक्त संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार कुल 06 सदस्यों में से तीन पर ऐसे व्यक्तियों की तैनाती होनी चाहिए थी जिन्हें केन्द्र अथवा राज्याधीन सेवा में 10 वर्ष का अनुभव हो लेकिन बर्तमान में तैनात 05 सदस्यों में से कोई भी संविधान में उल्लिखित उक्त अर्हता नहीं रखते है । आयोग में तैनात 5 सदस्यों में से अकादमिक अनुभव वाले 02 प्रोफेसर (यूनिवर्सिटी के) 01 असिस्टेंट प्रोफेसर (निजी यूनिवर्सिटी से) 01- वैज्ञानिक और 01- नान प्रैक्टिस अधिवक्ता हैं ।
संविधान में सदस्यों के कुल में से आधे पदों पर नियुक्ति के लिए रखी गई उक्त अनिवार्य अर्हता की व्याख्या में इसका मूल आशय प्रशासनिक अनुभव से है ताकि आयोग में सम्पादित होने वाले प्रशासनिक कार्यों में किसी प्रकार की चूक ना हो ।
आयोग के सदस्यों की नियुक्ति में संवैधानिक व्यवस्था को दरकिनार होने से अब आम जनमानस की समझ में यह आ गया है कि सरकार द्वारा बबूल के पेड लगाकर आम खिलाने के जो सपने दिखाये जा रहे हैं वो कभी पूरे होने वाले नहीं हैं ।

रमेश चन्द्र पाण्डे (उत्तराखंड कार्मिक एकता मंच)

#Uttarakhand #chaukidar #chor #उत्तराखंड #चौकीदार #चोर