डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला (दून विश्वविद्यालय )
07 सितंबर 1946 को अल्मोड़ा के चितई के पास पेटशाल गांव में स्व. हरिदत्त व लक्ष्मी पेटशाली के घर जन्मे जुगल किशोर ने लोक साहित्य, लोक संगीत व लोक नृत्य पर उल्लेखनीय कार्य किया है। 1990 में पहली किताब लिखी राजुला मालूशाही। तीन साल बाद इसे संगीत नाटिका के रूप में फिल्मांकित किया, जिसे बाद में दूरदर्शन के माध्यम दुनिया तक पहुंचाया। इसके लिए उन्हें जयशंकर पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 15वीं शताब्दी की अमर प्रेम कहानी को पेटशाली ने कुमाऊंनी भाषा की 34 लोक धुनों पर तैयार किया गया। इसमें छपेली, चांचरी, झोड़ा, बैर, भगनौल, न्योली, जागर आदि प्रमुख हैं। इससे पता चलता है कि पेटशाली लोक के कितने नजदीक हैं। मैया मैं तो फेल हो आयो, चार प्रहर कैमस्ट्री रटयो फिर भी खाक न आयो, तू भोली समझेगी मैंने समय बेकार गंवायो। दोष है मैया सभी पिता को नहीं टयूशन लगवायो’।
संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार के लिए चयनित कुमाऊं के वरिष्ठ रंगकर्मी और कुमाऊंनी साहित्यकार जुगल किशोर पेटशाली ने यह पहली कविता हाईस्कूल में असफल होने पर लिखी और तब जीआईसी अल्मोड़ा की पत्रिका में उनकी यह कविता प्रकाशित हुई भी थी। उसके बाद उन्होंने निरंतर लिखना शुरू किया। नतीजा यह हुआ कि उत्तराखंड से जयशंकर प्रसाद पुरस्कार लेने वाले एकलौते साहित्यकार और रंगकर्मी हैं। पेटशाली को संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार राष्ट्रपति की ओर से विशेष अलंकरण समारोह में दिया है। रंगकर्मी पेटशाली ने 2003-04 में पेटशाल में ऐतिहासिक संग्रहालय बनाया था जिसमें वाद्ययंत्रों के अलावा पूर्वजों के दस्तावेज, पुराने बर्तन, 1800 सदी की पुस्तकें रखी गई थीं। तत्कालीन सीएम हरीश रावत, डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक और भगत सिंह कोश्यारी ने भी संग्रहालय का निरीक्षण किया था लेकिन उन्हें इस बात की टीस है कि सरकारों ने उनके संग्रहालय की कद्र नहीं की। रखरखाव के अभाव में कई दस्तावेज चोरी हो गए जिसके बाद उन्होंने पिछले दिनों संग्रहालय को दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र को भेंट स्वरूप दान में दे दिया। कमोवेश यही हालात सहस्त्रधारा रोड के एकता विहार ,देहरादून में स्थित बिशम्भर दत्त चंदोला शोध संस्थान की देखी जा सकती है । वह भी सरकारी उपेक्षा के चलते बर्बाददी की क़गार पर पहुँच चुका है ।
दून स्थित संग्रहालय में उनके संग्रह को उनके नाम से रखा दिया है कुमाऊं की लोकगाथाओं पर आधारित पुस्तक ‘मेरे नाटक‘ में सुप्रसिद्ध संस्कृतिकर्मी और लेखक जुगल किशोर पेटशाली ने चार नाटक शामिल किये हैं। ये नाटक आज से तीन सौ से लेकर पाँच सौ साल पूर्व के सामाजिक-ऐतिहासिक घटनाक्रमों को रंगमंच पर जीवंत कर सकने में पूरी तरह सक्षम हैं। लेखक ने उत्तराखण्ड में वर्षों पूर्व की राजशाही व्यवस्था के दौर में घटित महत्वपूर्ण सामाजिक प्रसंगों को इन नाटकों में उद्घाटित करने का अभीष्ट प्रयास किया है.नाटककार का प्रमुख उद्देश्य तत्कालीन राज-व्यवस्था में मौजूद सामंतवाद, निरंकुशता व राजनैतिक विद्रुपता से उपजे भ्रष्टाचार, अन्याय और बेगार की यथार्थता तथा उसके खिलाफ उठे सामाजिक प्रतिकार के स्वरों को नाटक के जरिये मुखरित करने का रहा है. कमोबेश इसी तरह की स्थितियों को आज भी हमारे समाज में देश, काल और परिस्थिति के मामूली अंतर के साथ देखा जा सकता है।
राजुला-मालूशाही गीत-नाटिका में जहां भोट प्रदेश के शौका व्यापारी सुनपति की बेटी राजुला तथा बैराठ के राजा दुलाशाई के पुत्र मालूशाई के बीच उपजे उद्दात प्रेम की शानदार झलक मिलती है तो वहीं दूसरी ओर बाला गोरिया गीत-नाटिका में गढ़ी चम्पावत के राजा हालराई की सात रानियों की ओर से रानी कालिंगा को दी गई षड़यंत्रकारी यातनाओं की मार्मिक व्यथा-कथा मिलती है। अजुवा-बफौल नाटक में बफौलीकोट के बाईस भाई बफौलों की अदम्य वीरता और उनके नगाड़े की गर्जन भेदी प्रतिध्वनि राजा भारती चंद और उसकी डोटियाली रानी को अंदर तक बैचेन कर देती है। नौ-लखा दीवान नाटक में राजा दीपचंद का दीवान सकराम पांडे स्थानीय ग्रामीणों के बीच एक अत्याचारी पुरुष तथा कल्याण सिंह का चरित्र एक देवतुल्य पुरुष के तौर पर उभर कर आया है। कुमाउनी बोली-भाषा की ठसक और परम्परागत लोक धुनों ने हिंदी में रचे गीत-नाटकों को विशिष्ट बना दिया है। निश्चित तौर पर पहाड़ी लोक संगीत की सौंधी महक इन नाट्य कथानकों व संवादों में सहजता से महसूस की जा सकती है। कुमाऊं की लोकगाथाओं पर आधारित पुस्तक ‘मेरे नाटक‘ में सुप्रसिद्ध संस्कृतिकर्मी और लेखक जुगल किशोर पेटशाली ने चार नाटक शामिल किये हैं। ये नाटक आज से तीन सौ से लेकर पाँच सौ साल पूर्व के सामाजिक-ऐतिहासिक घटनाक्रमों को रंगमंच पर जीवंत कर सकने में पूरी तरह सक्षम हैं। लेखक ने उत्तराखण्ड में वर्षों पूर्व की राजशाही व्यवस्था के दौर में घटित महत्वपूर्ण सामाजिक प्रसंगों को इन नाटकों में उद्घाटित करने का अभीष्ट प्रयास किया है.नाटककार का प्रमुख उद्देश्य तत्कालीन राज-व्यवस्था में मौजूद सामंतवाद, निरंकुशता व राजनैतिक विद्रुपता से उपजे भ्रष्टाचार, अन्याय और बेगार की यथार्थता तथा उसके खिलाफ उठे सामाजिक प्रतिकार के स्वरों को नाटक के जरिये मुखरित करने का रहा है। कमोबेश इसी तरह की स्थितियों को आज भी हमारे समाज में देश, काल और परिस्थिति के मामूली अंतर के साथ देखा जा सकता है।
राजुला-मालूशाही गीत-नाटिका में जहां भोट प्रदेश के शौका व्यापारी सुनपति की बेटी राजुला तथा बैराठ के राजा दुलाशाई के पुत्र मालूशाई के बीच उपजे उद्दात प्रेम की शानदार झलक मिलती है तो वहीं दूसरी ओर बाला गोरिया गीत-नाटिका में गढ़ी चम्पावत के राजा हालराई की सात रानियों की ओर से रानी कालिंगा को दी गई षड़यंत्रकारी यातनाओं की मार्मिक व्यथा-कथा मिलती है। अजुवा-बफौल नाटक में बफौलीकोट के बाईस भाई बफौलों की अदम्य वीरता और उनके नगाड़े की गर्जन भेदी प्रतिध्वनि राजा भारती चंद और उसकी डोटियाली रानी को अंदर तक बैचेन कर देती है। नौ-लखा दीवान नाटक में राजा दीपचंद का दीवान सकराम पांडे स्थानीय ग्रामीणों के बीच एक अत्याचारी पुरुष तथा कल्याण सिंह का चरित्र एक देवतुल्य पुरुष के तौर पर उभर कर आया है. कुमाउनी बोली-भाषा की ठसक और परम्परागत लोक धुनों ने हिंदी में रचे गीत-नाटकों को विशिष्ट बना दिया है. निश्चित तौर पर पहाड़ी लोक संगीत की सौंधी महक इन नाट्य कथानकों व संवादों में सहजता से महसूस की जा सकती है।