जन्म- 13 अगस्त सन् 1927
ग्राम- अणु, खत देवघार, जिला देहरादून
पिता- स्व0 श्री कुम्भ दास
माता- स्व0 श्रीमती धूड़ी देवी
पत्नी- स्व0 श्रीमती जुवान देई
मृत्यु- 19 अगस्त, 2008
प्रारम्भिक शिक्षा राजकीय प्राथमिक विद्यालय, कोटी-बावर विकास खण्ड चकराता, देहरादून।
माध्यमिक शिक्षा कालसी।
उच्चत्तर माध्यमिक शिक्षा ए0पी0 मिशन ब्याॅइज स्कूल देहरादून।
जौनसार-बावर शिरोमणि पं0 शिवराम का जन्म ग्राम- अणु, खत-देवघार, जिला- देहरादून में एक ब्राह्मण परिवार में 13 अगस्त सन् 1927 ई0 को हुआ था। उनके पिता श्री कुम्भदास ग्राम स्याणा थे, जो अपने क्षेत्र के एक बडे़ काश्तकार एवं धनवान व्यक्ति थे। शिवराम बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि और हाजिरजबाव थे। पिता कुम्भदास के पास धन की कमी न थी, इसलिए पिता ने उन्हें प्राथमिक शिक्षा के लिए कोटी बावर, माध्यमिक शिक्षा के लिए कालसी और बाद में उच्चतर माध्यमिक शिक्षा के लिए के ए0पी0 मिशन ब्याॅइज इण्टर काॅलेज देहरादून भेज दिया। उन्होंने बेहतर तालीम के लिए इस आशय के साथ देहरादून भेजा कि वह पढ़-लिखकर आई0सी0एस0 अधिकारी बन जाये। देहरादून में बैठे अंग्रेज हाकिम की ताकत और रूतबे को देखकर अपने पुत्र को अच्छी शिक्षा दिलवानी चाही। ताकि ब्रिटिश सिविल सेवा के उच्च पद पर बैठकर भारतीय जनता की सेवा कर सके।
विपरित परिस्थितियों में समाज में योगदान –
पूरा विश्व द्वितीय महायुद्ध की आग में झुलस रहा था। चारों तरफ अशान्ति एवं उपद्रव की स्थिति थी। भारत में भी राष्ट्रीय आन्दोलन तूल पकड़ते जा रहे थे। ठीक उसी समय तत्कालीन भारत सरकार (ब्रिटिश सरकार) ने बिना भारतीयों की अनुमति और सलाह के ऐलान कर दिया कि भारत भी इस युद्ध में ब्रिटेन के साथ ली। पूरे देश में कई स्थानों पर आन्दोलन और दंगे होने लगे। पंडित जी ने भी इन राष्ट्रीय आन्दोलन से प्रभावित होकर अपने क्षेत्र के लोगों को जागरूक करने का बीड़ा उठा लिया, ताकि इन आन्दोलन को और मजबूती प्रदान की जा सके। आन्दोलनों में कूद जाने से उनकी पढ़ाई में बाधा उत्पन्न हुई और अन्ततः दसवीं कक्षा पास करने के बाद पंडित जी ने पढ़ाई छोडकर अपना सारा समय देश सेवा और समाज को जागरूक करने के लिए समर्पित कर दिया। लोग उनके पास न्याय, तलाक एवं अन्य अनेक प्रकार की समस्याओं को लेकर आते थे। क्षेत्र में सुप्रीम कोर्ट की भूमिका निभातें थे। वे न्याय और सुरक्षा के संरक्षक थे। नाभा स्टेट पंजाब के स्वामी, जो अणु में प्रतिवर्ष 10-15 दिन के लिए आते थे, ने उन्हें अवैतनिक न्यायधीश (ऑनरेरी मजिस्ट्रेट) की उपाधि दी।
युवा अवस्था के दौरान पं0 शिवराम को रूढ़ियों एवं अंधविश्वास से लबरेज जौनसार-बावर जनजातिय क्षेत्र के पारम्परिक मुखियाओं और क्षेत्र देवता के वजीरों के सामन्तवादी रवैयों ने एक ऐसे प्रगतिशील विद्रोह के रूप में तबदील कर दिया जो पूरे क्षेत्र में एक चुनौती के रूप में उभर रहा था। उन्होंने इस विद्रोह की शुरूवात अपने घर से की थी। उनके द्वारा एक दलित को इसलिए दण्डित किये जाने पर कि उसने उनके जैसे कपडे़ पहन रखे थे, वे उस दलित के पक्ष में खड़े हो गये। अंधविश्वास, आडंबर, हक-हकूकों और नागरिक अधिकारों को लेकर मुखर रहने के चलते पं0 शिवराम क्षेत्र के लोगों के बीच बड़ी तेजी के साथ लोकप्रिय होने लगे, लेकिन इसी दौरान उनके विरोधियों की भी अच्छी खासी तादात खड़ी हो गयी। पण्डित जी सामाजिक मामलों में ताउम्र संघर्षशील रहे। राधा रमण शास्त्री ने पंडित जी की तुलना महान समाजसेवी राजा राममोहन राय से की। क्षेत्र में उनकी छवि उक समर्पित समाजसेवी की भी।
राजनीतिक उतार-चढ़ाव में संघर्षरत-
क्षेत्र में राजनीति का प्रमुख नाम व चेहरा थे। वे भले ही राजनीति में अपनी सत्ता तक नहीं बना पाये, लेकिन उन्होंने जौनसार बावर को आजादी के बाद से एक ऐसा प्रतिपक्ष दिया जिसके चलते जौनसार बावर में आज भी लोकतांत्रिक मूल्य जीवित बचे हुए है। 25 जून 1975 से 23 मार्च 1977 के मध्य 21 माह के आपातकाल के दौरान मीसा कानून के तहत् जून 1976 से सितम्बर के मध्य चार माह जिला कारागार देहरादून में बंद रहे। स्थानीय लोगों के साथ किसी भी कार्य को लेकर किसी भी मंत्री एवं अधिकारी से भीड़ जाते थे, परन्तु स्वयं की मांगे पूरी हुये बिना नहीं मानते थे। पंडित जी की लोकप्रियता के चलते, सन् 1993 एवं 1996 में दो बार उत्तर प्रदेश की चकराता विधानसभा सीट से भारतीय जनता पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ा परन्तु सफलता नहीं मिली। यद्यपि उन्होंने एक बार उपाध्यक्ष जिला परिषद्, देहरादून का पदभार सम्भाला, सदस्य जिला परिषद् और ग्राम प्रधान भी रहे। उनके राजनीतिक मुकामों में इस बात को मील के पत्थर की तरह याद किया जाएगा कि जो भाजपा आज देश भर में अपना परचम लहरा रही है। उस भाजपा के नीव के पत्थरों में से वे भी एक थे।
समाज सेवा एवं राजनीति के साथ कवि एवं साहित्यिक जीवन में दक्षता-
समाज सेवा व कवि जीवन को समय दिया। इस बीच उन्होने अनेक कवितायें लिखी, जो स्वछंदता, समाज को प्रेरणा, समाज की पीड़ा, क्षेत्र के प्रति नेताओं व प्रशासन की अनदेखी, सामाजिक बुराईयों पर कुठाराघात करने वाली रचनायें है। उन्होंने अपनी कविताओं में सम्पूर्ण जौनसार-बावर को चित्रित किया है। वे जौनसार बावर के पहले ऐसे कवि थे जिन्होने हिन्दी भाषा को अपनी अभिव्यक्ति का जरिया बनाया और उन्हें लिपिबद्ध किया। उनकी कविताओं में छंद, यति, गति, विराम, लय व तुकबन्दी होने के साथ-साथ एक गहरा अर्थ भी छुपा होता है। इनकी कवितायें नतली उच्च कोटी की है कि स्वयं, कवि श्री रतन सिंह जौनसारी ने स्पष्ट रूप से कहा कि यदि पंडित जी राजनीति और समाजसेवा को छोड़कर अपना सम्पूर्ण समय अपने कवित्व जीवन को देते तो देश और दुनिया के श्रेष्ठ कवियों में उनका नाम अग्रणी होता।
जब वे कक्षा 9 में पढ़ते थे तो उन्ही दिनों सुभाष चन्द्र बोस की आजाद हिन्द फौज में जौनसार के केसरी चन्द भी शामिल हुये। ब्रिटिश सरकार ने 03 मई 1945 को उन्हें फांसी की सजा दी तब पंडित जी ने उनका वर्णन एक कविता ‘हिन्द सिपाही केसरी चन्द’ नामक शीर्षक में किया। पंडित जी की असंख्य रचनाओं को हम उनकी आयु व अनुभवों के साथ जोड़ सकते है। उनकी प्रसिद्ध रचनाओं में……
जन्म लिया है जिसने उसको मरना पड़ता यहां जरूर, चलता आया और चलेगा दुनिया में ऐसा दस्तूर , वह जीवन ही क्या जो किसी के काम न आये, मेरे थे प्यारे मित्र एक पर था हक में इत्तेफाक नहीं, थे तो वे धनवान बड़े पर दौलत थी उनपे खाक नहीं…, हाथ में हुकुम थमाया तो मैने पूछा क्या है पता चला वो मिसा है, जिसमें न अपील न दलिल न वकील है…, राजनीति चक्कर बुरा राजनीति एक दांव राजनीति से फिर रहा मानवता का भाव…, है पावन इस संसार में ये कारागार जहां जन्म लिया हमारे नटखट कृष्ण मुरारे..
यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं है कि पंडित जी मूलतः एक कवि थे। अर्थपूर्ण रचना होने के साथ-साथ उनकी कविताओं में समाज और लोगों को निर्देशित करने के लिए अनेक प्रकार के दिशा-निर्देश भी लिखे है। उन्होंने साहित्य और राजनीति की दोनों नावों में यात्रा का आनन्द लिया और अपने विलक्षण प्रभाव की दोनों ही क्षेत्रों में अमिट छाप छोड़ी। जौनसार-बावर क्षेत्र की जनता उनके अथक प्रयासों, कार्यों के लिए सदैव याद रखेगी।
साभार : गवर्नमेंट डिग्री कॉलेज त्युनी, देहरादून उत्तराखंड