डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

पर्यावरणीय दृष्टि से संवेदनशील उत्तराखंड में चौकसी के दावों के बावजूद वन विभाग अपनी वन संपदा की सुरक्षा ठीक से नहीं कर पा रहा है। ऐसे में वन तस्करों के हौसले बुलंद हैं और वे जंगलों में हरे पेड़ों पर लगातार आरीयां चला रहे हैं। वनों में अवैध कटान के मामले बयां करें तो पिछले 13 वर्षों की कहानी यह कि हर साल औसतन 1134 अवैध कटान के मामले सामने आ रहे हैं। उस पर कटे पेड़ों की लकड़ी का आधा हिस्सा भी जब्त नहीं हो पा रहा। ऐसे में वनों की सुरक्षा को लेकर विभाग की कार्यशैली पर भी प्रश्न उठना स्वाभाविक है।

71.05 प्रतिशत वन भूभाग वाले उत्तराखंड की सच्तचाई यह है कि आरक्षित व संरक्षित क्षेत्रों में वन तस्कर बेखौफ घुसकर अपनी करतूतों को अंजाम दे रहे हैं। कई बार वन सीमा से सटी नापखेत की भूमि में स्वीकृत पेड़ों की आड़ में जंगल में भी बड़ी संख्या में पेड़ों पर आरी चला दी जा रही है। विभाग को इसका तब पता चलता है, जब कटे पेड़ों की लकड़ी ठिकानों तक पहुंच चुकी होती है और वह लकीर पीट कर सो जाता है।अवैध कटान के आंकड़ों को देखें तो वर्ष 2008-09 से वर्ष 2020-21 तक अवैध कटान के 14743 मामले दर्ज किए गए। वन विभाग की ओर से जारी वन-अपराध के मामलों में लकड़ी जब्त भी की जाती है, उनके मुताबिक उपरोक्त वर्षो में कुल कटे पेड़ों की अनुमानित लकड़ी 17379.4445 घन मीटर आंकी गई है, इसमें से 5879.0602 घन मीटर ही जब्त करने की बात कह कर विभाग भले ही अपनी पीठ थपथपा ले , लेकिन जंगल में कटे उन पेड़ों से पर्यावरण को जो क्षति पहुंची, क्या उसकी भरपाई संभव हो सकती है। इसके अलावा ऐसे प्रकरणों की संख्या भी कम नही है, जिनमे केस दर्ज ही नहीं हो पाते। इन सब कवायदों के चलते भले हीअवैध कटान के कुछ गिरावट दिखाई दे रही हो, लेकिन खतरा पूरी तरह से ख़त्म हो गया हो , यह नहीं कहा जा सकता। ऐसे में आवश्यक है कि पेड़ों को बचाने के लिए सशक्त खुफिया तंत्र को बनाने के साथ ही वन क्षेत्रों में प्रभावी गश्त की व्यवस्था अमल में लाई जाए।

वैसे विभाग ने अवैध कटान को रोकने के लिए नई रणनीति को लेकर मंथन शुरु कर दिया है। इसके अंतर्गत क्या-क्या कदम उठाए जाते हैं, अब सभी की इस पर नजर है। वनों में अवैध कटान रोकने के लिए नए सिरे से रणनीति तैयार की जा रही है। इसके लिए जवाबदेही सुनिश्चित करने के साथ ही सूचना तंत्र को अधिक सशक्त किया जाएगा। साथ ही वनों में निरंतर निगरानी के लिए ड्रोन समेत आधुनिक तकनीकी का उपयोग भी किया जायेगा ।

इस मामले का सबसे चिंताजनक पहलू यह है कि 22 साल बाद भी इस प्रदेश में वनों की सुरक्षा के लिए कोई भी ठोस कार्य संस्कृति ही विकसित नहीं हो पाई है | अलबत्ता, वनाग्नि जैसी प्राकृतिक आपदा से अपनी वन संपदा की सुरक्षा की ठोस कार्ययोजना भी राज्य में अब तक जमीन पर नहीं उतर सकी है। यहाँ तक की रोपे गए पौधों की, तीन साल तक देखभाल करने के नियम का पालन भी वन विभाग द्वारा ठीक से नहीं कर पा रहा है। वर्ष 2005 में लागू हुई प्रदेश की वृक्षारोपण नीति में मुख्य रूप से रोजगार एवं आय-परक वृक्षों के रोपण, जल व मृदा संरक्षण व तीनों कैनापी के वृक्षारोपण पर बल दिया गया। जंगल को आग से बचाने और जंगल की गुणवत्ता बेहतर बनाने का एक उदाहरण उत्तराखंड में वन पंचायतों के तौर पर भी मौजूद है।

वन पंचायतें ब्रिटिशकाल (वर्ष 1931) में भारतीय वन अधिनियम-1927 के तहत बनाई गई थीं। ये वनों का बेहतर प्रबंधन करने के लिए जानी जाती हैं। 71.05% वन क्षेत्र का 13.41% (12,167 वर्ग किलोमीटर) वन पंचायतों के हिस्से में आता है। उत्तराखंड में कागजों पर 11,522 वन पंचायतें मौजूद हैं। हालांकि करीब 5500 वन पंचायतें ही सक्रिय तौर पर कार्य कर रही हैं। इन्हें वन और वन उपज पर हक़ हासिल है। आखिरकार वन विभाग को अहसास हो गया कि पर्यावरणीय दृष्टि से संवेदनशील उत्तराखंड में हर साल वनों में आग से होने वाली क्षति के आकलन के मानक अनुकूल नहीं हैं। अब इनमें बदलाव की तैयारी है। इसके लिए भारतीय वानिकी अनुसंधान एवं शिक्षा परिषद (आइसीएफआरई) के शोध अध्ययन को आधार बनाया जाए।

उत्तराखंड राज्य, प्रकृति के अत्यधिक दोहन के कारण पहले से प्राकृतिक आपदाओं की मार झेल रहा है। ऐसे में विकास के नाम पर हिमालय के अधिक संवेदनशील इलाकों में जरूरत से अधिक निर्माण होना राज्य में आपदाओं को खुला न्योता देता है।

यह लेखक के निजी विचार हैं।

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