डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
कबूतरी देवी का जन्म 1945 में चम्पावत के लेटी गांव के मिरासी परिवार में हुआ। इनके पिता का नामश्री देवी राम और माता का नाम श्रीमती देवकी था। पिता देवीराम को गाने-बजाने में महारत हासिल थी।वे हुड़का और सारंगी के साथ ही तबला व हारमोनियम बहुत अच्छा बजाते थे। कबूतरी देवी की मां भी लोक गायन में निपुण थीं। स्थानीय इलाके में उस समय इनका खूब नाम था। परिवार में नौ बहिनें औरएक भाई था।घर की गुजर-बसर छुटपुट खेती बाड़ी और अन्य कामों से किसी तरह चल ही जाती थी।स्कूल दूर होने के कारण गांव के लड़के बमुश्किल पांचवी तक ही पढ़ पाते थे। उस समय लड़कियों कीपढ़ाई बहुत दूर की बात समझी जाती थी सो अन्य लड़कियों की तरह कबूतरी देवी की भी स्कूली पढ़ाई नहीं हो सकी। परिवार में गीत-संगीत का भरपूर माहौल था। इसका फायदा कबूतरी देवी को अवश्य मिला और वे बालपन से ही वे गाने-बजाने में पारंगत हो गयी। माता-पिता द्वारा मात्र चैदह साल की उम्र में उनकी शादी कर दी गयी और वे पिथौरागढ़ जिले में मूनाकोट के नजदीक क्वीतड़ गांव के दीवानी राम के साथ वैवाहिक जीवन व्यतीत करने लगीं।
ससुराल के आर्थिक हालात बहुत अच्छे नहीं थे। पति दीवानी राम अपने फक्कड़ मिजाजी के चलते घर की जिम्मेदारियों की तरफ बहुत अधिक ध्यान नहीं दे पाते थे। गुजर-बसर के लिए परिवार के पास खेती की जमीन थी नहीं सो कबूतरी देवी दूसरों के खेतों में काम-धाम करके और किसी तरह मेहनत-मजदूरी करके घर-परिवार का खर्च चलाती रहीं।
कबूतरी देवी को गीत संगीत की आधारिक शिक्षा-दीक्षा उनके माता-पिता से ही प्राप्त हुई। विवाह के पश्चात पति दीवानी राम और सुपरिचित गायक भानुरामसुकोटी (जो कबूतरी देवी के ककिया ससुर भी थे) द्वारा संगीत के क्षेत्र में सही तरीके से मार्गदर्शन किया गया। हांलाकि कबूतरी देवी को ससुराल में गीत संगीत का मायके जैसा माहौल तो नहीं मिल पाया परउनके गायन की कदर परिवार के लोग अवश्य करते थे। पति दीवानी राम ने उनके इस शौक को पूरा करने में भरपूर मदद की। दीवानी राम भले ही खुद गाना नहीं गाते थे पर जब-तब कबूतरी देवी के गायन को बढ़ावा दिया करते थे। कबूतरी देवी के साथ बैठकर वे बहुत शौक से नये गीतों को बनाने और उसको संवारने में अपना योगदान दिया करते। उनके पति को घूमने-फिरने का भी बहुत शौक था। कई बार वे कबूतरी देवी को भी अपने साथ ले जाया करते थे जिस वजह से गांव-शहर के समाज में दूर-दूर तक उनका परिचय होने के साथ ही अन्य नयी जानकारियां भी मिलती रहती थीं।
इन्हीं दिनों एक बार पति दीवानी राम को आकाशवाणी से प्रसारित होने वाले लोक गीतों के गायन प्रक्रिया की जानकारी मिली तो वे कबूतरी देवी को लखनऊ के आकाशवाणी केन्द्र में ले गये। इस तरह 28 मई, 1979 को उन्होंने आकाशवाणी की स्वर परीक्षा उत्तीर्ण कर अपना पहला गीत लखनऊ के आकाशवाणी केन्द्र में रिकार्ड करवाया। इस तरह आकाशवाणी के माध्यम से उनके गाये गीत लोगों के बीच लोकप्रिय होते चले गये। 70 के दशक में उन्होंने रेडियो जगत में अपने लोक गीतों को नई पहचान दिलाई थी। उनके आवाज का जादू ही ऐसा था कि 70 से 80 के दशक में उनके लोकगीत उत्तराखंड के लोगों के सिर चढ़कर बोलता था। कबूतरी देवी ने पर्वतीय लोक संगीत को अंतरराष्ट्रीय मंचों तक पहुंचाया था। उनका ये योगदान अतुलनीय है। कबूतरी देवी के गीत में पलायन, चिड़िया, पहाड़, नदी नाले, जंगल, घास के मैदान और प्रदेश के प्रसिद्ध मंदिरों का जिक्र हुआ करता था. जिसका लोग जमकर लुत्फ उठाते थे। बाद में आकाशवाणी के नजीबाबाद, रामपुर समेत अन्य कई केन्द्रों में भी इनके गीतो की रिकार्डिंग हुई और उनके गीत वहां से प्रसारित भी हुए। परिवार की आर्थिक तंगी के कारण उन दिनों पिथौरागढ़ से आकाशवाणी केन्द्रों तक आना-जाना भी मुश्किल भरा काम होता था। कबूतरी देवी को तब उस समय एक गीत को गाने का पारिश्रमिक केवल 50 रुपया ही मिलता था जो उनके आने-जाने के खर्च के हिसाब से कम हुआ करता था, फलतः उन्हें कई बार मेहनत-मजदूरी से अतिरिक्त पैसा जुटाना पड़ता था।
पारिवारिक जीवन का सिलसिला कुछ इसी तरह चल ही रहा था कि 1984 में अचानक पति दीवानी राम की भी मृत्यु हो गयी। पति की असमय मौत के बाद अब घर की पूरी जिम्मेदारी कबूतरी देवी सिर पर आ गयी।पारिवारिक जीवन पहले से कहीं अधिक कष्टप्रद तरीके से बीतने लगा। जैसे-तैसे अपनी दो लड़कियों और एक लड़के की परवरिश की। बाद में लड़कियों की भी शादी कर दी। गुजर-बसर के सिलसिले में जबउनका लड़का मुम्बई चला गया तो कबूतरी देवी के गायन और संगीत का क्रम भी कुछ सालों तक छूटसा गया। आर्थिक अभाव के चलते मानसिक तौर पर परेशान रहने के कारण वे तकरीबन 10-12 सालों से अधिक समय तक गुमनामी के अधंरे में जीती रहीं। बाद में पिथौरागढ़ के संस्कृति कर्मी हेमराज बिष्ट ने अपने खुद के प्रयासों से उनको फिर से गीत-संगीत के प्रति प्रोत्साहित किया तथा साथ ही आर्थिक सम्बल प्रदान करने के लिए संस्कृति विभाग से आर्थिक सहायता और पेंशन दिलाने के लिए समय-समय पर दौड़-धूप की।
पिथौरागढ़ के सांस्कृतिक मेले में जब कबूतरी देवी के कार्यक्रमों की प्रस्तुति हुई तो लोग उनके गीतों के फिर से मुरीद बनने लग गये। इस तरह गीत-संगीत की दुनिया में उनका एक तरह से दुबारा जन्म सम्भव हुआ। कबूतरी देवी के गाये तमाम गीतों का यदि हम सांस्कृतिक व सामाजिक नजरिये से विश्लेषण करें तो हमें उनके गीतों और गायन शैली में पहाडी़ लोक की मूल सुगन्ध का समूचा संसार समाहित हुआ दिखायी पड़ता है। उनके गीतों में पहाड़ के ऊंचे-नीचे डाने-काने हैं , परदेश के एकाकीपन की टीस है, शिव के हिमालय में मन्द-मन्द झूलती हुई सन्ध्या है, विरहिणी नारी की प्रतीक्षा है और तो और साथ में सोतों का मीठा पानी व लोगों की मीठी वाणी भी है। उनके गाये एक ऋतुरैण गीत में चैत की भिटौली और ईजू की नराई का बहुत ही मार्मिक व सजीव चित्रण मिलता है-पहाड़ की विशिष्ट गायन शैली की परम्परा को जीवित रखने में लोक गायिका कबूतरी देवी का योगदान सच में बहुत बडा़ योगदान रहा है। उन्हें अपने पुरखों से गीतों की एक लम्बी-चौड़ी विरासत मिली हुई थी। दरअसल कबूतरी देवी उस परिवार से ताल्लुक रखती थीं जिन्होंने अपने गायन-वादन से यहां के लोक गीतों को बचाये रखा है। किसी समय अपने गायन-वादन और नृत्य के जरिये आजिविका चलाने वाले कबूतरी देवी जैसे कई परिवार आज अपनी रोजी-रोटी सहित तमाम अन्य समस्याओं से जूझ रहे हैं।
कबूतरी देवी का स्वयं अपने बारे में कहना था कि ‘एक कलाकार के लिए इससे बड़ा कष्ट और क्या हो सकता है कि उसको मंच न मिल सके । उनकी यह पीड़ा बहुत मुखर रही कि गरीबी और खराब स्वास्थ्य के चलते कहि उनकी आवाज गुम होकर रह न जाय। इलाज कराने को उनके पास पैसा नहीं, कानों से सुनायी नहीं देता..कान की मशीनें खराब हो चुकी हैं,खरीदने के लिए पैसा नहीं है आदि-आदि । उनका यह भी कहना था कि जीवन में दुःख-तकलीफ तो खैर हमेशा से ही लगे रहे हैं। लोक संवाहक के रुप में महति भूमिका होने के बावजूद भी कलाकारों की विपन्नता से कबूतरी देवी बहुत खिन्न नजर आती थीं। उनका साफ तौर पर कहना था कि सरकार अपने पहाड़ और राज्य के कलाकारों की अच्छी तरह सुध ले और उनके सम्मान-जनक जीवन जीने की व्यवस्था करे। हमारे पास मौजूद लोकसंगीत आने वाली पीढ़ी को अनवरत रुप से मिलता रहे।
वर्ष 2002 में पिथौरागढ़ लोक कला मंच एक बार फिर सामने लेकर आई, कबूतरी देवी ने कभी गायन को अपना व्यवसाय नहीं बनाया, शायद इसी वजह से कबूतरी देवी को कभी वो सम्मान नहीं मिल पाया जिसकी वो हकदार थी। जीवन के संघर्षों से थक हार कर कबूतरी देवी का 7 जुलाई 2018 को इस दुनिया को अलविदा कहने के साथ ही लोकगीतों का एक युग समाप्त हो गया। आज भले ही कबूतरी देवी हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनके गीत आज भी देवभूमि के आभामंडल में गूंजते रहते हैं और उन्हें हमारे बीच जीवन्त करते हैं। लोकगीत में उनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। जहां आज देवभूमि की लोकगीत आधुनिकता की चकाचौंध में मुंबइया फिल्मों की संस्कृति को ढो रही है, वहीं पारंपरिक गीत आज अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं।
लेखक के निजी विचार हैं !
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