(वट सावित्री व्रत 30 मई 2022, सोमवार को है )
वैश्वीकरण और बाजारीकरण की आंधी में लोकोत्सवों, स्थानीय त्यौहारों का वजूद व् उनका मूल स्वरुप लुप्त होता जा रहा है। इस त्यौहार को उत्तराखण्ड समेत कुछ राज्यों में पारंपरिक रूप से मनाया जाता था। यह कहना भी गलत न होगा कि अब यह त्यौहार विलुप्त होने की कगार पर पर है और इसका नाम है वट सावित्री व्रत ।
करवा चौथ एक ऐसा त्यौहार है जिसे उत्तराखण्ड में कुछ साल पहले तक नहीं मनाया जाता था। सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी इसका कोई वजूद नहीं है। तिलिस्मी टेलीविजन धारावाहिकों और 90 के दशक में शाहरुख़ खान की फिल्म “दिल वाले दुल्हनिया ….” इस त्यौहार को परोसे जाने के बाद के बाद इस देश के विभिन्न शहरों, कस्बों के साथ-साथ उत्तराखण्ड की महिलाओं के बीच भी लोकप्रिय बना दिया। अब यह त्यौहार उत्तराखण्ड के कई शहरों-कस्बों को अपनी गिरफ्त में ले चुका है।
करवा चौथ से ही मिलता-जुलता त्यौहार हैं वट सावित्री व्रत। वट वृक्ष को अध्यात्मिक और पौराणिक वृक्ष माना गया है। जिसके साथ ही वट सावित्री व्रत का भी जुड़ाव होता है। हमारे देश में वट व् सावित्री दोनों का ही विशिष्ट महत्व है। यह व्रत सनातन धर्म के वैज्ञानिक दृष्टिकोण को पूरी तरह प्रस्तुत करता है, इसकी छाया सीधे मन पर असर डालती है और मन को शांत बनाए रखती है। इसकी छाल और पत्तों से औषधियां भी बनाई जाती है। आदि काल से ही वट वृक्ष को बचने की सनातनी मुहीम आज लगभग हाशिये में पहुँच चुकी है।
अखंड सुहाग का प्रतीक है वट सावित्री व्रत
ज्येष्ठ मास के कृष्णपक्ष के आमावास्या के दिन रखे जाने वाला वट सावित्री व्रत अखंड सुहाग का प्रतीक है। महिलाएं अपने अखंड सौभाग्य के लिए इस व्रत को रखती हैं। पुराणों के अनुसार वट देववृक्ष माना जाता है। वट वृक्ष के मूल में और अग्रभाग में देवाधिदेव शिव विद्यमान हैं। इसके अलावा वट वृक्ष में देवी शक्तियां भी विद्यमान है। इसी वट वृक्ष के नीचे सावित्री ने अपने पतिव्रत से मृत पति को जीवित किया था, तब से यह व्रत वट सावित्री के नाम से किया जाता है। व्रत करने वाली महिलाएं इस दिन वट वृक्ष की पूजा करती हैं। इस दिन महिलाएं अपने अखंड सौभाग्य एवं कल्याण के लिए व्रत रखती हैं। पंडित कहते हैं कि अखंड सुहाग के लिए वट सावित्री व्रत किया जाता है। एक चौकोर लकड़ी पर लाल वस्तु बिछाकर इसकी पूजा की जाती है। वट वृक्ष में कुमकुम, रोली, अक्षत, पुष्प, फल, दीप व सौभाग्य आभूषण वस्त्र अर्पण कर वृक्ष को कच्चे सूत्र से लपेटते हुए कम से कम सात बार अथवा एक सौ आठ बार परिक्रमा कर सावित्री व्रत की कथा पढ़े जाने का विधान है। इसके अलावा ऊं सती सावित्राय नम: ऊं धर्मराजाय नम: मंत्र का जाप करना होता है।
वट सावित्री व्रत के दिन पूरे उत्तर भारत में सुहागिनें 16 श्रृंगार करके बरगद के पेड़ के चारों ओर फेरे लगाकर अपने पति के दीर्घायु होने की प्रार्थना करती हैं। प्यार, श्रद्धा और समर्पण का यह व्रत सच्चे और पवित्र प्रेम की कहानी कहता है, हालांकि देश में शहरों-कस्बों /क्षेत्रों मे सबसे अधिक समस्या वट वृक्ष की रहती है। ऐसे में लोग आसपास के क्षेत्रों से वट की टहनी लाकर घर में ही पूजा कर लेते है। दून में वट वृक्ष गिने-चुने हैं। ऐसे में अधिकाश परिवार वट की टहनी घर लाकर पूजा कर लेते हैं। टहनी में पत्तों की विषम संख्या शुभ मानी जाती है। वट की टहनियों को पेड़ स्वरूप मानकर उसकी परिक्रमा कर पूजा जाता है।
क्या है कथा वट सावित्री व्रत
सावित्री को वेद माता, गायत्री और सरस्वती भी माना जाता है। वट सावित्री व्रत के बारे में जो कथा प्रचलित है वह कुछ इस तरह है कि भद्रदेश के राजा अश्वपति के कोई संतान न थी। संतान प्राप्ति के लिए उन्होंने अठारह वर्षों तक मंत्रोच्चारण के साथ प्रतिदिन एक लाख आहुतियाँ दीं। इससे प्रसन्न होकर सावित्री देवी ने प्रकट होकर उन्हें एक तेजस्वी कन्या के पैदा होने का वर दिया। सावित्री की कृपा से जन्म लेने वाली कन्या नाम भी सावित्री रखा गया। इस रूपवती कन्या के बड़े हो जाने पर भी कोई योग्य वर न मिलने की वजह से सावित्री के पिता दुःखी थे। उन्होंने सावित्री को स्वयं वर तलाशने भेजा दिया ।
वर की तलाश में सावित्री तपोवन से होते हुए साल्व देश पहुँच गई जहाँ के राजा द्युमत्सेन जिनका कि राज्य किसी ने छीन लिया था। उनके पुत्र सत्यवान को देखकर सावित्री ने पति के रूप में उनका वरण करना चाहा। सावित्री के पिता को भी सत्यवादी, सर्वगुण संपन्न सत्यवान अपनी पुत्री के वर के रूप में पसंद आये। वेदों के ज्ञाता सत्यवान “अल्पायु” थे इसी वजह से नारद मुनि ने सावित्री को सत्यवान से विवाह न करने की सलाह भी दी थी, इसके बावजूद सावित्री ने सत्यवान से ही विवाह रचाया।
एक वर्ष बीत जाने के बाद पिता की आज्ञानुसार सत्यवान लकडियां और फल लेने वन में गए, उनके साथ सावित्री भी थीं। यहाँ नियतिनुसार सत्यवान की वृक्ष से गिरकर मौत हो गयी। यमराज ने उनके सूक्ष्म शरीर को लेकर यमपुरी को प्रस्थान किया तो सावित्री भी उनके उनके साथ चल पड़ी। यमराज ने सावित्री को समझाया कि मृत्युलोक के शरीर के साथ कोई यमलोक नहीं आ सकता, अतः अपने पति के साथ आने के लिए तुम्हें अपना शरीर त्यागना होगा। सावित्री की दृढ निष्ठा और पति-व्रत धर्म से प्रसन्न होकर यम ने एक-एक करके वरदान के रूप में सावित्री के अन्धे सास-ससुर को आँखें दीं, खोया हुआ राज्य दिया, उसके पिता को सौ पुत्र दिये और सावित्री को लौट जाने को कहा। परन्तु सावित्री अपने प्राण-प्रिय को छोड़कर नहीं लौटी। विवश होकर यमराज ने कहा कि सत्यवान को छोडकर चाहे जो माँग लो, सावित्री ने यमराज से सत्यवान से सौ पुत्र प्रदान होने का वरदान मांग लिया। यम ने बिना सोचे प्रसन्न मन से तथास्तु भी कह दिया।
यमराज के आगे बढ़ने पर सावित्री ने कहा- मेरे पति को आप साथ अपने लेकर जा रहे हैं और मुझे सौ पुत्रों का वर दिये जा रहे हैं। यह कैसे सम्भव है ? मैं पति के बिना सुख, स्वर्ग और लक्ष्मी, किसी की भी कामना नहीं करती. बिना पति के मैं जीना भी नहीं चाहती। अब यमराज अपने ही वरदान में फंस चुके थे जिस कारण उन्हें सत्यवान के प्राणों को छोड़ना पड़ा । इस तरह सावित्री ने यमराज से अपने पति के प्राण वापस लिए ।
इस व्रत के दो महत्वपूर्ण पहलुओं पर गौर करें तो पहला यह कि हमें अपने अध्यात्मिक और पौराणिक वृक्षों की सदैव रक्षा करनी चाहिए क्योंकि अगर वह बचे रहेंगे तब ही यह पृथ्वी (जिसे हम माता का दर्जा देते हैं) और उसमे रहने वाले प्राणी बच पायेंगे । इस अर्थ में यह व्रत पृथ्वी को बचाने की सनातनी परंपरा का बेमिसाल त्यौहार है।
धर्मो रक्षति रक्षितः
आज की तारीख में जब चारो ओर इस देश में मुग़ल आक्रान्ताओं के द्वारा ध्वस्त किये गए हमारे मंदिरों पर चर्चा चल रही है तो ऐसे में ये सवाल भी बेहद महत्वपूर्ण हो जाता है कि उन्होंने तो सिर्फ संरचना को छेड़ा था मगर हमने तो अपने व्रत/त्यौहार जो कि इस देश की प्राण वायु थे को ही दफ़न कर दिया। किसी दुसरे को गलियाने से बेहतर है कि अब अपनी लकीर को लम्बा किया जाये। आज जरुरत है इस देश की प्राण वायु को फिर से खड़ा करने की, अब ये कैसे होगा ? आइये हम सब मिल कर प्रण लें कि अपने इन अध्यात्मिक और पौराणिक महत्व के व्रतों /त्योहारों की जानकारी अपने अन्य साथियों के साथ साझा करेंगे ताकि सनातन से जुड़े ये मुद्दे चर्चा का विषय तो बन सकें ।
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला दून विश्वविद्यालय, उत्तराखंड
लेखक उत्तराखण्ड सरकार के अधीन उद्यान विभाग में वैज्ञानिक के पद पर रह चुके हैं !
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