भौगोलिक और भाषा संस्कृति के धरातल पर द्वाराहाट अल्मोड़ा जिले के परगना पाली पछाऊं के अंतर्गत आता है. अल्मोड़ा-बद्रीनाथ मोटर मार्ग पर स्थित होने और आदि शक्तिपीठ दूनागिरी के चरणों में बसा होने के चलते यह रमणीय स्थल चार धाम यात्रा करने वाले यात्रियों और सैलानियों की आज भी एक पौराणिक और धार्मिक नगरी की मान्यता लिए हुए है.
द्वापर युग में भगवान श्री कृष्ण ने मथुरा पर होने वाले आक्रमण से तंग आकर सुदूर हिमालय में द्वारका बनाने की योजना बनाई थी. लेकिन किन कारणों से यह योजना सफल नहीं हो पाई. द्वाराहाट नगरी भले ही द्वारिका ना बनी हो परंतु यहां विद्यमान 360 मंदिरों और 365 नोलों का मूर्ति शिल्प विधान और स्थापत्य कला काशी या मथुरा के सांस्कृतिक मंदिरों से कम नहीं है.
संस्कृतिक नगरी द्वाराहाट में 8 वीं सदी के बीच निर्मित महामृत्युंजय मंदिर, गुजर देव मंदिर, मनिया रतनदेव मंदिर, केदारनाथ मंदिर प्राचीन और ऐतिहासिक मंदिरों के स्थापत्य कला के कारण शोधकर्ताओं के लिए विशेष आकर्षण का केंद्र बने हुए हैं.वहीं हिमालय संस्कृति के प्रसिद्ध इतिहासकार और पुरातत्व वेता राहुल सांक्रत्यान ने अपने ग्रंथ कुमाऊं में द्वाराहाट की सांस्कृतिक महत्व को रेखांकित करते हुए लिखा है कि अपनी कुमांऊ यात्रा के दौरान जब वो द्वाराहाट की यात्रा कर रहे थे, तो उन्होंने बिहार, उत्तर प्रदेश, बंगाल के अनेक तीर्थ यात्रियों को रास्ते में देखा जो बद्रीनाथ से कोटद्वार या रामनगर न जा कर वाया द्वाराहाट काठगोदाम जाते थे। प्राचीन काल से ही कैलाश मानसरोवर तीर्थ और बदरीनाथ की यात्रा करने वाले तीर्थ यात्रियों के लिए भी द्वाराहाट मुख्य दर्शनीय स्थल बना हुआ था।
द्वाराहाट ‘द्वारा और हाट’ शब्दों के द्वारा अपनी इतिहास की स्वयं पुष्टि करता है। उत्तराखंड की राजनीतिक इतिहास में यह नगर हाटक नगर के रूप में अपनी संस्कृति पहचान बनाए हुए हैं। द्वाराहाट के प्राचीन इतिहास पर नजर डालें तो महाभारत काल में जब उत्तराखंड की पर्वतीय राज्यों में हाटक गढ़ राज्यों की गणतंत्र पद्धति चलती थी। तब महाभारत की सभा पर्व में अर्जुन की दिग्विजय यात्रा के दौरान हाटक राज्यों का भी विशेष वर्णन आया है। महाभारत कालीन इन 5 हाट नगरों को इस प्रकार जाना जाता है जो हैं, विरहहाट(बैराठ), गंगावलीहाट (गंगोली हाट), गरूडाहाट, डीडीहाट तथा द्वाराहाट हालांकि द्वाराहाट नगरी भले ही द्वारिका ना बन पाई हो लेकिन 8 वीं सदी के बीच निर्मित महामृत्युंजय मंदिर, गुजर देव मंदिर, मनिया रतनदेव मंदिर, केदारनाथ मंदिर प्राचीन और ऐतिहासिक मंदिरों के स्थापत्य कला के कारण शोधकर्ताओं और श्रद्धालुओं के लिए विशेष आकर्षण का केंद्र बने हुए हैं।
उत्तराखंड देव संस्कृति का उद्गम स्थल है और वहां के मन्दिरों के स्थापत्य और अद्भुत मूर्तिकला ने भारत के ही नहीं विश्व के कला प्रेमियों को भी अपनी ओर आकर्षित किया है. किंतु पुरातत्त्वविदों और स्थापत्यकला के विशेषज्ञों द्वारा द्वाराहाट,जागेश्वर, बैजनाथ के मन्दिरों के स्थापत्य और मूर्तिकला का सतही तौर से ही आधा अधूरा मूल्यांकन किया गया है. स्थानीय लोक संस्कृति के धरातल पर तो मूल्यांकन बिल्कुल ही नहीं हुआ है। इनके अलावा दूर दराज के गांवों और नौलों के मन्दिरों का स्थापत्य और मूर्तियों का कलात्मक मूल्यांकन आज भी उपेक्षित और अनलोचित ही पड़ा है. उत्तराखंड की अधिकांश मूर्तियां धर्म द्वेषियों द्वारा खंडित कर दी गई हैं। किंतु इन खंडित मूर्तियों में भी उत्तराखंड का आदिकालीन इतिहास और देव संस्कृति की झलक आज भी इतनी शक्तिशाली है कि वह न केवल मूर्तिकला के इतिहास को वरन उत्तराखंड के आद्य इतिहास की टूटी हुई कड़ियों को भी जोड़ने का महत्त्वपूर्ण साक्ष्य प्रस्तुत करती हैं।
प्रागैतिहासिक व पौराणिक धरोहरों और साक्ष्यों के भंडार मंदिरों की नगरी द्वाराहाट अब शिव के 28वें अवतार लकुलीश की दुर्लभ मूर्ति मिलने से सुर्खियों में आ गई है। नगर से करीब 12 किमी दूर तकुल्टी में कत्यूरकालीन जिस मंदिर में श्रद्धालु शिव के महायोगी स्वरूप का पूजन करते आए हैं। एक हाथ में लकुट (छड़ी या डंडा) व उध्र्वलिंग की स्थापना इसके लकुलिशी स्वरूप को साफ परिभाषित कर रहा। वहीं मुख्य द्वार के ललाट बिंब (लिंटल) पर वृहद उदर लकुलीश की आकृति उकेरी गई है। संरक्षण के अभाव में खंडित होती जा रही मूर्ति विशालकाय पेड़ों व झाडिय़ों से ढकी पड़ी थी।बीते रोज जालली घाटी के जोयूं तथा तकुल्टी के ग्रामीणों ने सामूहिक पूजापाठ के लिए सफाई अभियान चलाया तो यह दुर्लभ मूर्ति मिली। शोधकर्ता ने इसकी पहचान लकुलीश के रूप में की है।
कभी राजस्थान व बाबा जागनाथ की नगरी यानि जागेश्वर धाम (अल्मोड़ा) लकुलीश संप्रदाय की मौजूदगी के लिए प्रसिद्ध था। कई कत्यूरी शासक शिव के इसी स्वरूप के अनुयायी रहे। इन्ही शासकों ने जागेश्वर में लकुलीश मंदिर बनवाया था। पर करीब सात दशक पूर्व वहां से मूर्ति चोरी होने से लकुलीशीय रूप की पूजा की मान्यता कम होती गई।
90 के दशक में सांस्कृतिक विरासतों व दुर्लभ मूर्तियों के संबंध में यूनेस्को संधि के बाद 1999 में अमेरिका ने जागेश्वरधाम स्थित लकुलीश मूर्ति भारत को सौंपी थी। जो जागेश्वरधाम के संग्रहालय में है। द्वाराहाट के तकुल्टी में मिली दुर्लभ मूर्ति 12वीं सदी की मानी जा रही। साफ है कि देवभूमि में लकुलिशी संप्रदाय की जड़ें अतीत में बेहद गहरी रही। शोधकर्ता कहते हैं लकुलीश की इस चतुर्भुजी मूर्ति के ऊपरी दाए हाथ में शंख व सर्प तथा नीचे का हाथ अभय मुद्रा में है। ऊपरी बाया व निचला हाथ खंडित हो चुका। पालीपछाऊं परगना के तकुल्टी, सूरे, जालली क्षेत्रों में पहले भी कई मूर्तियां व प्रागैतिहासिक सयंत्र यानि ओखलियां मिल चुकी हैं। कत्यूरी राजाओं की राजधानी रहा द्वाराहाट नगर अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत ,उन्नत नागर शैली और सौन्दर्यमयी भौगोलिकी के लिए पुरे विश्व में प्रसिद्ध है।
द्वाराहाट को मंदिरो का नगर भी कहा जाता है। यह क्षेत्र पुरातत्व की दृष्टि से पुराने और मूल्यवान मंदिरों का क्षेत्र रहा है। मंदिर समूहों में द्वाराहाट में तीन प्रकार के मंदिर समूह है कचहरी ,मनिया रत्नदेव तथा इसके अतिरिक्त वैष्णवी शक्तिपीठ दुनागिरि ,विमाण्डेश्वर मंदिर तथा अन्य कई ऐतिहासिक और पौराणिक मंदिर यहाँ अव्यस्थित हैं। द्वाराहाट नगर को इतिहास में वैराट ,लखनपुर आदि नामों से भी जाना जाता है। यहाँ स्थित 360 मंदिरों ,365 नौलों (बावड़ियां ) की स्थापत्य कला ,काशी, मथुरा के सांस्कृतिक मंदिरों व् धरोहरों से कम नहीं है। यहाँ के कई ऐतिहासिक मंदिर आज भी लोगो के लिए शोध का विषय बने हुए हैं। 2019 में सुरेग्वेल में एक ही प्रस्तरखंड में विष्णु के वराह व नरसिंह अवतार की मूर्तियां मिली थीं। पूरे क्षेत्र में कई ऐतिहासिक तथ्य छिपे हैं जिनके उजागर होने से कई महत्वपूर्ण खुलासे होंगे। कत्यूरकालीन मंदिर के संरक्षण व मूर्तियों की पहचान को पूर्व में आवाज उठी थी। पुरात्व विभाग की टीम क्षेत्र में पहुंची भी। आम के विशालकाय वृक्ष, झाडिय़ों का घुप जंगल होने पर पेड़ कटवाने की बात कह बैरंग लौट गई थी।
ये लेखक के निजी विचार हैं ।
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला ( दून विश्वविद्यालय )