रुद्रप्रयाग की एक महिला सपना देवी और उसके अजन्मे बच्चे की श्रीनगर(गढ़वाल) स्थित मेडिकल कॉलेज के बेस अस्पताल में मृत्यु हो गयी.यह संस्थान मेडिकल कॉलेज और चिकित्सा सेवा के नाम पर धब्बा है, जहां से मरीज को या तो रेफर होना होता है या दुनिया से रुखसत.
अभी पत्रकार मित्र मोहित डिमरी की वॉल पर लिखा दिख रहा है- उत्तरकाशी के पुरोला जिले में भी एक प्रसूता महिला और नवजात शिशु की मौत हो गयी.
पहाड़ के पहाड़ जैसे जीवन की बीच मामूली रोग और उपचार भी ठीक से हासिल कर पाना,अपने आप में पहाड़ के शिखर पर पहुंचने से भी ज्यादा दुष्कर है.
दुनिया चाँद और मंगल की सैर और वहां बसने का मंसूबा बांध रही है, वहीं हमारे यहाँ मामूली रोगों के इलाज के बिना लोगों के मरने का एक अनवरत, अंतहीन सिलसिला चलता रहता है.
उत्तराखंड को है तलाश तीसरे विकल्प की। जानने के लिए क्लिक करें
देश में चुनावी मौसम है लेकिन ये मौतें मुद्दा नहीं हैं.ऐसे आम लोग आए दिन मरते रहते हैं और स्वास्थ्य सुविधाओं की बदहाली का सवाल चर्चा का विषय तक नहीं बनता.ये मौतें,लापरवाही का नतीजा हैं या अक्षमता और नकारेपन का,पर इन पर चर्चा की जरूरत ही नहीं समझी जाती.
दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र में नीतियों पर चर्चा की रिवायत ही नहीं है, यहां तो सिर्फ नेताओं पर चर्चा होती है. और सत्ता के दावेदारों में जनता को सुविधाएं पहुंचाने की प्रतिस्पर्द्धा नहीं है, उनमें प्रतिस्पर्द्धा है तो बस बड़बोलेपन की,गाल बजाने की !
आखिर लोग कब तक मसीहाओं के अदा-ओ-अंदाज पर फिदा हो कर,उन्हें मजबूत करते रहेंगे और स्वास्थ्य-शिक्षा-रोज़गार जैसे तमाम मामलों में आम जन को निःशक्त होता देखते रहेंगे ?
-इन्द्रेश मैखुरी
अभी पत्रकार मित्र मोहित डिमरी की वॉल पर लिखा दिख रहा है- उत्तरकाशी के पुरोला जिले में भी एक प्रसूता महिला और नवजात शिशु की मौत हो गयी.
पहाड़ के पहाड़ जैसे जीवन की बीच मामूली रोग और उपचार भी ठीक से हासिल कर पाना,अपने आप में पहाड़ के शिखर पर पहुंचने से भी ज्यादा दुष्कर है.
दुनिया चाँद और मंगल की सैर और वहां बसने का मंसूबा बांध रही है, वहीं हमारे यहाँ मामूली रोगों के इलाज के बिना लोगों के मरने का एक अनवरत, अंतहीन सिलसिला चलता रहता है.
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देश में चुनावी मौसम है लेकिन ये मौतें मुद्दा नहीं हैं.ऐसे आम लोग आए दिन मरते रहते हैं और स्वास्थ्य सुविधाओं की बदहाली का सवाल चर्चा का विषय तक नहीं बनता.ये मौतें,लापरवाही का नतीजा हैं या अक्षमता और नकारेपन का,पर इन पर चर्चा की जरूरत ही नहीं समझी जाती.
दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र में नीतियों पर चर्चा की रिवायत ही नहीं है, यहां तो सिर्फ नेताओं पर चर्चा होती है. और सत्ता के दावेदारों में जनता को सुविधाएं पहुंचाने की प्रतिस्पर्द्धा नहीं है, उनमें प्रतिस्पर्द्धा है तो बस बड़बोलेपन की,गाल बजाने की !
आखिर लोग कब तक मसीहाओं के अदा-ओ-अंदाज पर फिदा हो कर,उन्हें मजबूत करते रहेंगे और स्वास्थ्य-शिक्षा-रोज़गार जैसे तमाम मामलों में आम जन को निःशक्त होता देखते रहेंगे ?
-इन्द्रेश मैखुरी