आज से लगभग अढ़ाई हजार वर्ष पहले जब पृथ्वी पर हिंसा बढ़ गई थी और धर्म के नाम पर निर्दोष पशुओं का वध हो रहा था। भारत में भी घोर अंधविश्वास, धार्मिक पाखंड, जाति-प्रथा व बलि प्रथा जैसी अनेक अमानवीय कुरीतियां फल-फूल रही थीं समाज की तार्किक शक्ति क्षीण हो गई थी, मानव-मानव में भेद करने वाली जाति व्यवस्था अपनी पराकाष्ठा पर थी, एकता सामंजस्य और मेल-मिलाप का नामोनिशान नहीं था, इन्हीं परिस्थितियों में नेपाल के कपिलवस्तु राज्य के लुंबनी ग्राम में राजा शुद्धोदन के यहाँ मायादेवी के गर्भ से में एक बच्चे का प्रादुर्भाव हुआ, जिसका नाम सिदार्थ रखा गया। किंतु जन्म के 7 दिन बाद ही उनकी माता का देहांत हो गया तब उनका पालन-पोषण उनकी मौसी गौतमी देवी ने किया।

सिद्धार्थ की जन्मकुंडली देखने के बाद ज्योतिषियों ने कहा था कि यह बालक या तो चक्रवर्ती सम्राट होगा या विरक्त होकर जगत का कल्याण करेंगे। ज्योतिषियों की इस बात से महाराज शुद्धोदन बेहद चिंतित रहते थे। उन्होंने राजकुमार के लिए बहुत बड़ा भवन बनवा दिया और उस भवन में दुख, रोग और मृत्यु की कोई बात न पहुंचे इसकी कड़ी व्यवस्था कर दी थी। समय आने पर राजकुमार सिदार्थ का विवाह राजकुमारी यशोधरा से हुआ जिससे उन्हें एक पुत्र रत्न की भी प्राप्ति हुई जिसका नाम राहुल रखा गया।

राजकुमार सिद्धार्थ अत्यंत दयालु व्यक्ति थे। एक बार उन्होंने पिता राजा शुद्धोदन से नगर भ्रमण की आज्ञा मांगी। राजा ने आज्ञा देने के राज्य की ऐसी व्यवस्था करवाई कि राजकुमार को नगर में कोई दुखद दृश्य न नजर आए लेकिन होनी को कौन टाल सकता है। नगर में घूमते समय सिद्धार्थ को एक बूढ़ा आदमी फिर रोगी ,एक शव यात्रा और अंत में एक सन्यासी उनकी नजरों में आ जाते हैं । इन दृश्यों को देखने के बाद उनका मन संसार के सब सुखों से हट गया। उसके बाद राजकुमार सिद्धार्थ के मन में संसार के सुखों से वैराग्य हो गया और महज़ 29 साल की उम्र में एक दिन आधी रात को वह चुपचाप अपना राज-पाट तथा पत्नी और पुत्र राहुल को सोई अवस्था में छोड़ कर दुनिया के दुखों का कारण ढूंढने निकल गए।

विषम परिस्थितियों को झेलते हुए कठोर आत्मचिंतन के बाद अंत में 35 वर्ष की आयु में सिद्धार्थ को बिहार के बोधगया में पीपल के वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ जिसके बाद वह सिदार्थ से महत्मा बुद्ध हो गए। यह वृक्ष आज भी वहां मौजूद है जिसे बोधि वृक्ष’ कहा जाता है। (बोधि’ का अर्थ होता है ‘ज्ञान’, ‘बोधि वृक्ष’ का अर्थ है ज्ञान का वृक्ष. ‘बोधि वृक्ष’ चौथी पीढ़ी का वृक्ष है।)

अपनी इस बोधित्व यात्रा में उन्होंने पाया कि दुनिया में दुखों का कारण मनुष्य की तीव्र इच्छा और मानसिक लगाव है जिससे छुटकारा पाने के लिए इच्छाओं को वश में करना पड़ेगा। उन्होंने अष्टांग मार्ग पर चलने को कहा। उन्होंने कहा कि संसार अनित्य है। जिसकी उत्पत्ति हुई है उसका अंत भी निश्चित है। यही संसार का नियम है।
बोधित्व को प्राप्त होने के बाद महात्मा बुद्ध ने अपना पहला उपदेश सारनाथ में देते हुए तत्कालीन प्रचलित मान्यताओं को तर्कों से काटते हुए से काटा और दुख निवारण के सारे व्यावहारिक उपाय बताए। उन्होंने अपने शिष्यों को निर्देश दिया कि दुनिया में अज्ञान के अंधकार को ज्ञान के प्रकाश से दूर करें। घृणा को प्रेम से, शत्रुता को मैत्री से, हिंसा को करुणा से दूर करें। उन्होंने बताया कि सारे मानव और जीव-जंतु प्रकृति प्रदत्त हैं और सभी समान हैं। कोई भी मनुष्य जन्म से न ऊंच हैं, न नीच। सभी बराबर हैं। उन्होंने मानव मात्र में भेद करने वाली सारी मान्यताओं को समाप्त करने को कहा।
उन्होंने कहा कि कोई भी बात इसलिए मत मानो कि मैंने कहा है या पुराने धर्मशास्त्रों में लिखी गई है या परंपरा से चली आ रही है बल्कि उसे अपने तर्क की कसौटी पर कस कर देखो कि वह सही है तथा साथ ही मानव हित में है तब उसे मानो, अन्यथा छोड़ दो।


बौद्ध धर्म का व्यापक प्रसार सम्राट अशोक के समय में हुआ। जब कलिंग युद्ध जितने के बाद लाखों सैनिकों की मौत के दर्दनाक दृश्य ने उन्हें द्रवित कर दिया जिसके बाद उन्होंने भी बौद्ध धर्म की दीक्षा ले ली और समानता, भ्रातृत्व और करुणा पर आधारित इस धर्म को अपना राजधर्म बनाया। अशोक से लेकर उनके परपौत्र बृहद्रथ के शासनकाल तक बौद्ध धर्म का देश-विदेश में खूब प्रचार-प्रसार हुआ।
भारतीय संविधान का आधार बौद्ध धर्म के सिद्धांत समानता, करुणा व भ्रातृत्व पर है जो जाति, धर्म, क्षेत्र व वर्ग के भेद खत्म कर सबको समान न्याय और सत्ता में हिस्सेदारी का अवसर सुनिश्चित करता है। राष्ट्रध्वज में बौद्ध धर्म चक्र और अशोक स्तंभ इसी बौद्ध दर्शन को इंगित करते हैं। इसमें मनुष्य से लेकर जीव-जंतु, पशु-पक्षी के भी स्वतंत्र रूप से जीने की व्यवस्था की गई है।बुद्ध जयंती भारत के साथ साथ चीन, नेपाल, जापान, मलेशिया, श्रीलंका, म्यांमार, सिंगापुर, वियतनाम, थाइलैंड, इंडोनेशिया, पाकिस्तान, कंबोडिया, जैसे दुनिया के कई देशों में बुद्ध पूर्णिमा के दिन बुद्ध जयंती मनाई जाती है। बौद्ध अनुयायी इस दिन अपने घरों में दिये जलाते हैं और फूलों से घर सजाते हैं। इस दिन बौद्ध धर्म ग्रंथों का पाठ किया जाता है।

सनातन धर्म में बुद्ध पूर्णिमा का विशेष महत्व है। इस दिन बौद्ध धर्म के संस्थापक ज्योति पुंज गौतम बुद्ध का जन्म हुआ था तथा कठोर साधना के बाद बौद्धत्व की प्राप्ति हुई थी। मान्यता है कि इस दिन श्रीहरि भगवान विष्णु और धन की देवी मां लक्ष्मी की पूजा अर्चना करने से सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं और घर में सुख समृद्धि का वास होता है तथा भगवान विष्णु और मां लक्ष्मी का आशीर्वाद अपने भक्तों पर सदैव बना रहता है। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार महात्मा बुद्ध भगवान विष्णु का नौवां अवतार हैं। इस बार बुद्ध पूर्णिमा 16 मई 2022, सोमवार को है। बौद्ध धर्म के अनुयायी इस दिन गौतम बुद्ध की जयंती भी मनाते हैं। कहा जाता है कि भगवान बुद्ध ने वर्षों तक वन में भटकने और कठोर तपस्या के बाद इस दिन सत्य का ज्ञान प्राप्त किया था। इसके बाद भगवान बुद्ध ने अपने ज्ञान के प्रकाश से संपूर्ण जगत को प्रकाशमयी कर दिया था। इस पर्व की धूम कुशीनगर में अधिक देखने को मिलती है,यहां पूर्णिमा तिथि से 10 दिन पहले भव्य मेले का आयोजन किया जाता है। बुद्ध पूर्णिमा स्नान पर्व पर श्रद्धालुओं की भारी भीड़ की संभावना को देखते हुए पुलिस ने सुरक्षा व यातायात व्यवस्था की पुख्ता तैयारियां की हैं। वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक ने शनिवार को अतिरक्त पुलिस बल की तैनाती करते हुए मेला सेल का गठन कर दिया। एसपी सिटी को स्नान पर्व व्यवस्था का नोडल अधिकारी बनाया गया है। सोमवार को बुद्ध पूर्णिमा स्नान पर्व पर दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश आदि स्थानों से भारी संख्या में श्रद्धालु हरिद्वार पहुंचकर हरकी पौड़ी पर गंगा स्नान करेंगे। भारी संख्या में श्रद्धालुओं के आगमन को देखते हुए सुरक्षा व शांति और यातायात व्यवस्था बनाए रखने के लिए पुलिस ने तैयारियां पूरी कर ली हैं। निर्देशित किया कि स्नान से पूर्व बस अड्डा, रेलवे स्टेशन एवं भीड़-भाड़ वाले स्थानों पर चेकिंग की जाए।

ये लेखक के निजी विचार हैं।

डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला (दून विश्वविद्यालय )

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