उत्तराखंड पहाड़ का हरा सोना यानी बांज अब विलुप्ति के कगार पर है। वर्षा के पानी को अवशोषित कर भूमिगत करने वाले इन पेड़ों की कमी की वजह से धरती की कोख भी बांझ होती जा रही है। परिणाम यह है कि गैर हिमालयी नदियों से लेकर अधिकांश नौले व धारों में उम्मीद से कम पानी रह गया है। वैसे तो बांज की सभी छह तरह की प्रजातियां खतरे में हैं, लेकिन सबसे अधिक तीन प्रजातियां रयांस, फ्यांठ और मोरू का अस्तित्व नष्ट होने को है। खुद वन विभाग इस तरह के संकट से परिचित है। इसके बावजूद बड़े स्त्र पर पहल नहीं नजर आ रही है। पर्यावरणविदों ने इसके लिए चिंता जाहिर की है और लगातार आवाज भी उठा रहे हैं। उनका कहना है, बांज की कुछ प्रजातियां रयांस, फ्यांठ व मोरू के बीज नहीं उग रहे हैं। बांज के जंगलों का अस्तित्व पहाड़ में बहुत पहले से विद्यमान रहा है। पहाड़ी इलाकों में चीड़ के जंगलों का फैलाव बाद में हुआ माना जाता है। ब्रिटिश काल में चीड़ का पेड़ लीसा, बिरोजा व स्ती प्राप्ति का मुख्य स्रोत था जिस कारण उस समय इसके व्यावसायिक महत्ता को अधिक तरजीह दी गयी और चीड़ के वनों का विस्ता किया गया। बांज (ओक) को पहाड़ का हरा सोना कहा जाता है। पहाड़ के पर्यावरण, खेती-बाड़ी, समाज व संस्कृति से गहरा ताल्लुक रखने वाले बांज मध्य हिमालयी क्षेत्र में 1200 मी. से लेकर 3500मी. की ऊंचाई के मध्य स्थानीय जलवायु, मिट्टी व ढाल दिशा के अनुरुप उगता है।उत्तराखण्ड के पर्वतीय इलाकों की कृषि व्यवस्था को समृद्ध रखने में बांज की अहम भूमिका दिखाई देती है। इसकी हरी पत्तियां पशुओं के लिये पौष्टिक चारा प्रदान करती हैं। मुख्य बात यह भी है कि इसकी सूखी पत्तियां पशुओं के बिछावन लिये उपयोग में लायी जाती हैं। जब यह पत्तियां पशुओं के मल मूत्र में अच्छी तरह सन जाती हैं तब यह अच्छी प्राकृतिक खाद बनकर खेती की पैदावार बढ़ाने में अपना योगदान देती हैं।
स्थानीय ग्राम्य जीवन के लिए ईंधन के रुप में बांज की लकडी सर्वोतम समझी जाती है क्योंकि अन्य काष्ठ ईंधन की तुलना में बांज की लकड़ी से कहीं अधिक मात्रा में ताप और ऊर्जा मिलती है। ग्रामीण काश्तकारों द्वारा बांज की लकडी का उपयोग खेती के काम में आने वाले विविध औजारों यथा कुदाल,दरातीं के बीन (मूंठ या सुंयाठ), हल के नसूड़े,पाटा व दयाली के निर्माण में किया जाता है।सबसे महत्म्पूर्ण बात यह है कि पर्यावरण को समृद्ध रखने में बांज के जंगल कई तरह से कारगर सिद्ध होते हैं। बांज की जड़े वर्षा जल को अवशोषित करने व भूमिगत करने में मदद करती हैं जिससे जलस्रोतों में जल का सतत प्रवाह बना रहता है। बांज की पत्तियां जमीन में गिरकर दबती व सड़ती रहती हैं, इससे मिट्टी की सबसे उपरी परत में हयूमस (प्राकृतिक खाद) का निर्माण होता रहता है। यह परत जमीन को उर्वरक बनाने के साथ ही धीरे-धीरे जल को भूमिगत करने में योगदान तो देती ही हैं साथ ही तेज बारिश की बूंदों से जमीन की ऊपरी सतह की मिट्टी को बहने से रोकती भी हैं बांज की लम्बी व विस्तृत क्षेत्र में फैली जड़ें मिट्टी को कस कर जकडे रखती हैं। इससे भू-कटाव नहीं हो पाता है। बांज का जंगल जैव विविधता का अतुल भण्डार होता है पहाड़ के इस लोकगीत “नी काटा-नी काटा झुमराली बांजा, बजांनी धुरो ठण्हो पाणी” का आशय भी यही लगता है कि- लकदक पत्तों वाले बांज को मत काटो, शिखरों में स्थित बांज के इन जंगल के बदौलत हमें शीतल जल प्राप्त होता है।
दिल्ली विश्वविद्यालय की विधि की छात्रा मेधा पांडे 23 मार्च 2022 को मुख्य न्यायाधीश को पत्र प्रेषित किया था। जिसका कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश ने इन री ओपन बर्निंग ड्राई ओक लीव्स के नाम से जनहित याचिका के रूप में संज्ञान लिया। पत्र में कहा गया कि नैनीताल बांज के जंगल से घिरा हुआ है। जिसकी सूखी पत्तियां सड़क, गलियों, छतों में गिरती रहती है। स्थानीय लोग व सफाई कर्मचारी रोड, गलियों ,व छतों को साफ करते समय पत्तियां जलाते हैं। जिसका प्रभाव पर्यावरण व अस्वस्थ्य लोगों पर पड़ रहा है, लिहाजा इस पर रोक लगाई जाए। दुनियाभर में अलग और अपनी विशिष्ट पहचान रखने वाला हिमालय जैव विवधता का हॉट-स्पॉट है। यहां के जंगल व इन पर निर्भर जीवों ने इस ख़ास वातावरण में अपनी एक अलग जगह बनाने के लिए लाखों सालों तक संघर्ष किया है। इस दौरान जलवायु परिवर्तन भी हुआ और संसाधनों के लिए जीव जंतुओं के बीच आपसी संघर्ष की भी नौबत आई। इस प्रक्रिया में बहुत से जीव व उनकी प्रजातियों का अस्तित्व खत्म हुआ, तो कई प्रजातियां सर्वाइव कर गई। पर्यावरणीय बदलाव, जलवायु परिवर्तन और आपसी संघर्ष लाखों सालों की प्रक्रिया का हिस्सा रही है। इस दौरान जीव जुतुओं ने सर्वाइव करना भी सीखा, लेकिन इन जंगलों व जीवों के लिए लाखों सालों के जलवायु परिवर्तन ने जो मुसीबतें खड़ी नहीं की, वह मानव दखल के कारण पिछले 50-100 सालों में पैदा हो गई है।
इंसानों के जंगलों को निगलने की रफ्तार ने स्थिति को और अधिक खराब कर दिया है। जंगलों का कटान अनेकों कारणों से जारी है, जो इन जंगलों पर निर्भर जीवों को संभलने का मौका नहीं दे रहा है। इसके चलते कई जीवों के अस्तित्व मिटने की गति हज़ार गुना बढ़ गयी है। देहरादून स्थित सेंटर फॉर इकोलॉजी, डेवलपमेंट एंड रिसर्च शोध संस्थान ने अपने शोध में पाया है कि उत्तराखंड के जंगलों के भू- प्रयोग में बदलाव से जंगलों पर निर्भर पक्षियों की व उनकी अनेकों प्रजातियों की संख्या में 50 फीसदी तक की गिरावट आयी है। जंगलों को कृषि के साथ-साथ बढ़ते शहरीकरण ने बहुत ज्यादा नुकसान पहुंचाया है, जिस कारण ये नौबत आयी है। सीधे तौर पर कहा जाए तो जंगलों का भू-प्रयोग शहरीकरण व कृषि के कारण बदलने का दुष्परिणाम पक्षियों की प्रजातियों की घटती संख्या के तौर पर साफ़ दिखाई देता है। यह आम समझ है कि शहरीकरण व खेती बढ़ने से पक्षियों की संख्या घटेगी पर उनकी विविधता व प्रजातियों का इस हद तक गिरावट देखना अप्रत्याशित है। आंकड़ों से यह भी साबित होता है कि चीड़ के जंगल पक्षियों की जैवविविधता को बढ़ावा देने में असफल हैं। पूर्व में भी तमाम वैज्ञानिक बढ़ते चीड़ वन के क्षेत्र और उसके खतरों से आगाह कर चुके हैं। दूसरे वनों की कीमत पर चीड़ क्षेत्र का बढ़ना पक्षियों की संख्या व विविधता के लिए खतरनाक साबित हो रहा है। सीमित रूप में प्रयोग में लाये जा रहे (मधाम) जंगल जरूर इस सब में आशा की किरण के रूप में सामने आये हैं। इन क्षेत्रों ने तुलनात्मक रूप से काफी अधिक प्रजातियों व समूहों को संरक्षित रखा है।बांज के
जंगलों की आग से उस जंगल की जैव-विविधता के साथ ही पानी के स्रोत आने वाले समय में बुरी तरह प्रभावित होते हैं। लेकिन वन विभाग की कार्ययोजनाओं में जैव-विविधता संरक्षण के लिए कोई स्थान नहीं होता है क्योंकि ये विभाग आज तक अंग्रेजों के बनाये सिल्पी कल्चर के कुचक्र से बाहर नहीं निकल पा रहा है। वह सिल्वी कल्चर केवल व्यापारिक पेड़ों के उत्पादन और दोहन को रख कर बनाया गया था, पर्यावरण की सोच व जरूरत में भारी बदलाव हो जाने पर भी वन विभाग इसका विकल्प नहीं ढूंढ पाया है व्योंकि पर्यावरण के सरोकार इतने व्यापक हैं कि उसमें वन विभाग की जिम्मेदारी का मापना आसान नहीं है। इसलिए वह पूरी तरह ढीठ बना है। वह यही जानता है कि उसका काम जंगल क्षेत्रफल है चाहे उसमें बंजर इलाके ही शामिल क्यों न हों।। पेड़ पौधों के साथसाथ वन्यजीवों,पक्षियों तथा कीड़े-मकोड़ों का अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है। कई तो इसमें अपनी जान भी गंवा बैठते हैं। और सबसे बड़ी बात पक्षियों के धोंसलों व अण्डों को भी नुकसान पहुंचता है जिससे नई पीढ़ी की संभावनाएं ही खत्म हो जाती है। क्योंकि यही वन विभिन्न वन्यजीवों का आसरा होते हैं। उनका पूरा जीवन चक्र जैसे उनका आवास, उनका भोजन, नई पीढ़ी का जन्म, पालन-पोषण इन्हीं पर आधारित होता है।
डॉ० हरीश चन्द् अन्डोला (दून विश्वविद्यालय)
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