जंगल लगातार सुलग रहे हैं और वन महकमा बेबस है। यह ठीक है कि पहाड़ का भूगोल ऐसा है कि आग पर नियंत्रण किसी चुनौती से कम नहीं है। मगर सवाल तो खड़ा होगा ही कि जल, जंगल, जमीन के मुद्दों पर बना यह राज्य आखिर 22 साल बाद भी इन मुद्दों का हल क्यों नहीं खोज पा रहा है ?

उत्तराखंड में मार्च तकरीबन सूखा गुजरने की कगार पर है। करीब छह जिलों में एक बूंद भी बारिश नहीं हुई है। जबकि, अन्य में भी न के बराबर बारिश हुई। इस बीच तापमान में भी तेजी से बढ़ोतरी हुई है। करीब तीन सप्ताह से ज्यादातर क्षेत्रों में पारा सामान्य से चार से छह डिग्री सेल्सियस अधिक बना हुआ है। मौसम विभाग के अनुसार, आगामी 31 मार्च तक तापमान में और वृद्धि हो सकती है। साथ ही हिमालयी क्षेत्रों में ग्लेशियर पिघलने और हिमस्खलन की चेतावनी जारी की गई है।पिछले तीन सप्ताह से मैदानी क्षेत्रों में पारा सामान्य से पांच-छह, जबकि पहाड़ी इलाकों में दो से चार डिग्री सेल्सियस तक अधिक बना हुआ है। मौसम विज्ञान केंद्र के निदेशक के अनुसार, प्रदेश में फिलहाल मौसम शुष्क रहेगा।

पर्यावरणीय दृष्टि से संवेदनशील 71.05 फीसद वन भू-भाग वाले उत्तराखंड में वनों की आग धीरे-धीरे भयावह रूप धारण करती जा रही है। जंगल की आग अब घरों के नजदीक तक आने लगी है। फिर चाहे वह पौड़ी जिले के पुंडेरगांव हो या फिर चमोली या दूसरे जिलों के गांव हों, तस्वीर सब जगह एक जैसी है। जंगलों की सीमा से सटे गांवों तक पहुंच चुकी है फिर भी सरकार है कि जागने को तैयार नहीं है। फरवरी मध्य में फायर सीजन शुरू होने के बाद से ही उत्तराखंड में जंगलों के धधकने का क्रम बना हुआ है। हालांकि बीते दो सप्ताह में गर्मी बढ़ने के साथ ही वनों में आग की घटनाएं भी तेजी से बढ़ने लगी हैं। 15 मार्च के बाद से अब तक प्रदेश में 45 से अधिक घटनाएं हो चुकी हैं। वनकर्मी भी मुस्तैद हैं और वे ग्रामीणों के सहयोग से जंगल बचाने में जुटे हुए हैं। मगर मौसम के मिजाज के हिसाब से रणनीतिक कमी साफ़ झलक रही है। सूरतेहाल यह है कि अगर जल्द बारिश न हुई तो दिक्कतें बढ़ सकती हैं। फिजां में भले ही फाग के रंग घुले हों, मगर आग की गिरफ्त में आए जंगल बेहाल हैं। आग से नए पौधे तिल-तिल कर दम तोड़ रहे तो दरख्त भी लगातार जख्मी हो रहे हैं। उत्तराखंड के जंगलों का यह परिदृश्य हर किसी को कचोट रहा है।

बीते छह माह के दौरान ही वनों की आग ने लगभग 41 हेक्टेयर प्लांटेशन को तबाह कर दिया, जहां पिछले तीन चार वर्षों में हजारों की संख्या में विभिन्न प्रजातियों के पौधे रोपे गए थे। विभागीय आंकड़े बताते हैं कि इन क्षेत्रों में खड़े 25 हजार से अधिक पौधे पेड़ बनने से पहले ही मर गए। यही नहीं, 8950 बड़े पेड़ों को क्षति पहुंची है। मौसम के साथ न देने के कारण वर्तमान में भी वनों के धधकने का क्रम बदस्तूर जारी है। ऐसे में आने वाले दिनों में जंगलों को ज्यादा हानि हो सकती है। यह चिंता हर किसी को सता रही है। दुनिया कहां से कहां पहुंच गई, मगर उत्तराखंड में वनों में आग पर काबू पाने के लिए आज भी कारगर हथियार है झांपा। ( पेड़ों की पत्तियोंयुक्त टहनियों को तोड़कर बनाया जाने वाला झाडू ) विषम भूगोल के कारण आग बुझाने में सहायक भारी उपकरणों को लाने ले जाने में आने वाली दिक्कतों के मद्देनजर झांपे से ही आग बुझाई जाती है। ठीक है कि यह परंपरागत तरीका कारगर है, मगर वन महकमे ने इससे आगे बढ़ने की दिशा में अब तक कारगर कदम उठाए हों, ऐसा नजर नहीं आता। हालांकि, मैदानी क्षेत्रों के जंगलों के लिहाज से विभिन्न उपकरण विभाग के पास उपलब्ध हैं, मगर पहाड़ की परिस्थितियों के अनुरूप हल्के उपकरणों को लेकर उदासीनता समझ से परे है । ये अलग बात है कि पूर्व में आग बुझाने के लिए हल्के उपकरणों को लेकर चर्चायें जरूर होती रहीं हैं , मगर किसी मुकाम तक नहीं पहुंची। अब इस कड़ी में गंभीरता से कदम उठाने की दरकार है।

जंगलों में आग की बड़ी वजह वन क्षेत्रों में नमी कम होना है। इस मर्तबा सर्दियों से जंगलों के सुलगने का क्रम शुरू होने पर वन महकमे ने प्रारंभिक पड़ताल कराई तो उसमें भी यह बात सामने आई। यही नहीं वर्ष 2016 में करीब 4500 हेक्टेयर जंगल तबाह हो गया था। तब संसदीय कमेटी ने इसके कारणों की पड़ताल की तो तब यही सुझाव दिया गया था कि जंगलों में नमी बरकरार रखने पर खास फोकस किया जाए। इन दिनों उत्तरकाशी वन प्रभाग के बाडाहाट रेंज, मुखेम रेंज और अपर यमुना वन प्रभाग के जंगलों आग धधक रही है, जिससे करोड़ों की वन संपदा राख हो रही है. अपर यमुना वन प्रभाग के अंतर्गत जंगलों में मार्च में ही वनों में आग धधक रही है. बड़कोट-उत्तरकाशी मोटर मार्ग से गुजरते हुए वनाग्नि को साफ देखा जा सकता है कि किस तरह राड़ी घाटी क्षेत्र में नंदगांव और फलाचा के जंगलों में आग ने विकराल रूप ले लिया है. आग को देखकर लोग भयभीत हैं. स्थानीय लोग वन विभाग से वनों की आग पर काबू करने की मांग कर रहे हैं.जंगलों में आग की वजह से वन्य जीवों के अस्तित्य पर भी खतरा मंडराने लगा है. इस बार भी भूमि में नमी के अभाव के कारण जंगलों में आग फैल रही है। वजह ये कि पिछले छह माह से बारिश बेहद कम है। ऐसे में जंगलों में बारिश की बूंदों को गंभीरता से कदम उठाने की जरूरत है। इससे जहां जंगलों में नमी बरकरार रहेगी, वहीं जलस्रोत रीचार्ज होंगे। इस मुहिम पर पूरी गंभीरता से धरातल पर उतारने की जरूरत है। आखिर, सवाल वनों को बचाने का है।

उत्तराखण्ड देश का पहला राज्य है जहाँ नवंबर 2005 में आपदा प्रबंधन, न्यूनीकरण एवं निवारण अधिनियम के अंतर्गत आपदा प्रबंधन विभाग बनाया गया है। इसलिए अब समय आ गया है जब राज्य सरकार को आपदा प्रबंधन विभाग का पुनर्गठन करके तात्कालिक तथा दीर्घकालिक रूप से प्रभावी नीतियाँ बनानी चाहिए। उनके सही क्रियान्व्यन के लिए कारगर रणनीति बनानी चाहिए।राज्य में पेशेवर, प्रशिक्षित तथा अत्याधुनिक साजो-सामान से लैस आपदा प्रबंधन टीम बनायी जानी बेहद जरूरी है। आपदा-प्रबंधन टीम को कई दस्तों में बाँटा जा सकता है, जो न सिर्फ लोगों को आपात स्थितियों से बचने के लिए आपदा प्रबंधन के गुर सिखाएं बल्कि पर्यावरणीय हितों के प्रति भी जागरूक करने में अपनी अहम भूमिका निभाएँ। पर्यावरणीय दृष्टि से संवेदनशील उत्तराखंड में अब स्कूल कॉलेजों में गठित ईको क्लब पूरी तन्यमता के साथ पर्यावरण संरक्षण की अलख जगाएंगे। ईको क्लब से जुड़े विद्यार्थी न सिर्फ पर्यावरण संरक्षण की बारीकियां सीखेंगे, बल्कि जन- सामान्य को इससे अवगत कराएंगे।साथ ही परिंदों के साथ ही वन्यजीवों के संरक्षण के मद्देनजर वे जनजागरण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाने जा रहे हैं। वन महकमा इस सिलसिले में रणनीति तैयार करने में जुटा है। जल्द ही सभी स्कूल कॉलेजों के ईको क्लब को इससे जोड़ा जाएगा। वन विभाग के मुखिया इस संबंध में सभी वन संरक्षकों को निर्देश जारी किए हैं। पर्यावरण को सहेजने में जंगलों के योगदान से हर कोई परिचित है। इस लिहाज से देखें तो राज्य में वनों का संरक्षण यहां की परंपरा का हिस्सा रहा है। यहां के निवासी न सिर्फ वनों को पन-पाते हैं बल्कि इनसे जरूरतें भी पूरी किया करते थे। वक्त ने करवट बदली और वर्ष 1980 में वन अधिनियम लागू होने के बाद वन और जन के इस रिश्ते में खटास भी आई। बावजूद इसके जंगलों को बचाना आज भी पहली प्राथमिकता है, मगर कहीं न कहीं वनों से मिलने वाले हक हकूक को लेकर सिस्टम के रवैये को लेकर टीस जरूर है। यही वजह भी है कि जंगलों के संरक्षण के लिए चलने वाली योजनाओं में जन-भागीदारी थोड़ी कम भी हुई है। इस सबको देखते हुए वन महकमे ने अब स्थानीय समुदाय को यह अहसास कराने का बीड़ा उठाया है कि जंगल सरकारी नहीं, बल्कि स्थानीय निवासियों के अपने हैं। इस दिशा में हुए प्रयासों के कुछ कुछ सकारात्मक नतीजे भी दिखने लगे हैं।

हाल में चमोली के नौली के जंगल में लगी आग को बुझाने में जिस तरह ग्रामीण जुटे, वह इस बात की तस्दीक करता है कि वन और जन के बीच यह रिश्ता कितन गहरा है। इसके लिए वन महकमे ने अब विद्यार्थियों का सहारा लेने का भी निश्चय किया है। पर्यावरण संरक्षण की मुहिम से ईको क्लब को जोड़ कर सकारात्मक मॉडल जरूरी है। बारिश-बर्फबारी न होने के कारण पिछले छह माह से उत्तराखंड के जंगल धधक रहे हैं। अब पारे के उछाल भरने के साथ ही जंगल की आग के गांवों के नजदीक पहुंचने की घटनाएं चिंता में डाल रही है। इस तरह से लग रही आग रोजाना ही जंगलों को क्षति पहुंच रही है। इस कठिन वक्त में जंगल बचाने को सामूहिक प्रयासों की दरकार है। हालांकि, संसाधनों की कमी से जूझ रहा वन विभाग जनसहभागिता की बात तो करता है, मगर लम्बे समय से इस मोर्चे पर वह विफल रहा है। अब वक्त आगया है कि जंगल बचाने के लिए आमजन को अग्नि प्रबंधन से जोड़ा जाए। इसके लिए ग्रामीणों को प्रशिक्षण देकर वन बचाने में उनकी भागीदारी सुनिश्चित की जा सकती है। जब सवाल वनों, वन्यजीवों और जैवविविधता को बचाने का हो, तो ऐसे में आम-जन को पीछे नहीं हटना चाहिए।

ये लेखक के निजी विचार हैं।

(डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला (वर्तमान में दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं )

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