कहते हैं कि सरकार चाहे तो क्या नहीं कर सकती? ये सवाल ऐसा है जिस पर कभी कभी सरकारी इच्छा शक्ति स्वयं में शंकित हो जाती है। कभी सरकार के कामकाज और योजनाओं से आमजन खुश हो जाते हैं और उनकी वज़ह से सरकार की अभूतपूर्व वाह-वाही भी हो जाती है तो कभी सरकार जनता की अपेक्षाएं खरी नहीं उतर पाती। वैसे भी भारत जैसे विशाल देश में किसी योजना को लागू कर उसकी सफलता के लक्ष्य प्राप्त कर लेना बेहद कठिन कार्य है। फिर कभी लोकतान्त्रिक व्यवस्था के चलते और विपक्ष से टकराव जैसे कारणों से कभी-कभी लक्ष्य प्राप्त करना असंभव सा हो जाता है। हालांकि असफलता के लिए कोई बहाना नहीं बनाना चाहिए। सवाल यह भी है कि दुहाई देकर हम कब तक अपने बचने के रस्ते खोजते रहेंगे। जबकि आज हम 130 करोड़ लोगों अपनी शक्ति खुद बना सकते काईन। ऐसे में सरकारी प्रयासों को परिणामदायक और कसौटी पर खरा साबित करने के लिए सख्त् निर्णय लेने होंगे और जनता को आगे आना होगा। अगर जनता चाहेगी तो सरकारों की इच्छाशक्ति बुलंद और परिणामदायक हो सकती है।

ताजा मामला भारत में पक्षियों की आबादी से जुड़ा हुआ है जिसमें उनकी संख्या बहुत तेजी से गिर रही है। पक्षियों की गिरावट के मामले में भारत दुनिया के देशों में से एक है। यहाँ कई प्रकार की प्रजातियों पर तो विलुप्त होने का संकट खड़ा हो चुका है। इसी श्रृंखला में बात करें तो हिमालयन ग्रिफन गिद्ध भी विलुप्ति की कगार पर पहुंच चुके हैं। गिद्धों की कुछ प्रजातियों में यहाँ 90 से 99 फीसदी तक गिरावट देखने को मिल रही है। ऐसा नहीं है कि सरकार इस पर ध्यान नहीं दे रही है या फिर उन्होंने कोई योजना नह बनाई हो ,वह ध्यान तो दे रही है और इसके लिए बाकायदा 2006 में कदम भी उठाए गए हैं। मगर दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है कि कोई उल्लेखनीय सफलता उनके हाथ नहीं लगी। इसके विपरीत पक्षियों की तादाद बढ़ने की बजाए और कम हो गई। ऐसा क्यों हो रहा है ? इसके लिए कौन दोषी है और क्यों दोषी है ? इस पर गहन विचार मंथन जरूरी है ताकि परिणाम अपेक्षित मिल सकें। यदि हम पक्षियों को उनके अनुकूलित प्राकृतिक वातावरण नहीं दे पा रहें हैं तो पर्यावरण के नाम पर अगली पीढ़ी को क्या सौपेंगे ?

वर्तमान में भी भारत सरकार ने एक बार और कोशिश करते हुए 2025 तक का एक प्लान बनाया है जिसके तहत वह देश के कुछ में हिस्सों में सरकारी संरक्षण केंद्र खोलकर गिद्धों को बचाने की मुहिम में लगातार प्रयासरत है । इसी मुहीम के चलते हिलायन ग्रिफन गिद्ध के झुंड का दिखाई देना विचित्र घटना माना जा रहा है। असल में गिद्धों की इस प्रजाति इंटरनेशल यूनियन फार कंजनर्वेशन आफ नेचर की रेड लिस्ट में सूचीबद्ध किया जा रहा था। ऐसे में इन गिद्धों के झुंड का दिखना जैव विविधता के लिहाज से बेहतर माना जा रहा है। हिमायलन ग्रिफन बायोलाजिकल नाम जीप्स हिमालयन सीस गिद्ध अब कम ही दिखाई देते है। खाद्य श्रृंखला में सबसे ऊपर गिद्धों की यह प्रजाति लगातार विलुप्ति के कगार पर थी । पिछले दिनों द्वाराहाट क्षेत्र में गिद्धों की इसी प्रजाति का झुंड दिखाई दिया। यह करीब 25 से 30 गिद्ध थे। गिद्धों के इस प्रकार दिखाई देने को पर्यावरणीय दृष्टि से अच्छा बताया जा रहा है। हिमालयन ग्रिफन बड़े आकार का फीके पीले रंग का होता है।

यह पूरे हिमालयी क्षेत्र में पाया जाता है। इसके पंख काफी बड़े होते है और पूंछ छोटी होती है। गर्दन सफेद पीले रंग की होती है। यह हिमालयी क्षेत्र में 1200 से 5000 मीटर तक ऊंचाई पर देखे जा सकते हैं। ये एक समूह में पेड़ों पर या जमीन या चट्टान पर बैठे दिखाई देते हैं। इन पक्षियों की दृष्टि काफी तेज होती है। यह कभी भी स्वयं शिकार नहीं करते हमेशा मरे हुए जानवरों को खाते हैं। ये दिन के समय सक्रिय होते हैं। इस दौरान ये आसमान मे काफी ऊंचाई पर उड़ते हुए मरे हुए जानवर को देख कर, समूह में उसे खाने के लिए आते हैं और मरे हुए पशु को चट कर जाते हैं। यह पक्षी संकट ग्रस्म श्रेणी में आते हैं। इनकी प्रजाति धीरे-धीरे कम हो रही हैं। 90 के दशक में इनकी संख्या में एकदम से काफी गिरावट आई थी। जिसका मुख्य कारण पशुओं को दी जानेवाली दर्द नाशक दवा डाइक्लोफिन्क है। जब ये गिद्ध किसी ऐसे मरे हुए जानवर को खा लेते थे, जिसको डाइक्लोफिन्क दवा दी होती थी, तो यह गिद्ध के शरीर में जाकर इसकी किडनी को खराब कर देती व गिद्ध मर जाते हैं। 90 के दशक में भारत के मैदानी हिस्सों में जहां पशुपालन होता था और पशुओं को यह दवा दी जाती थी, वहां से गिद्धों की तीन प्रजातियां लगभग समाप्त हो चुकी हैं।

राष्ट्रीय वन्य जीव बोर्ड द्वारा दी गई कार्ययोजना को मंजूरी के तहत ही इन गिद्धों का संरक्षण हो पाया है । जिसके तहत भारत के ड्रग कंट्रोलर जनरल के माध्यम से गिद्धों के लिए जहर बन रही मवेशियों के इलाज में प्रयोग की जाने वाली डाइक्लोफिन्क पर प्रतिबंद लगने से इन पक्षियों की तादाद बढ़ने में सफलता मिल पायी है। इसके तहत उत्तर प्रदेश, त्रिपुरा, महाराष्ट्र, कर्नाटक और तमिलनाडू में गिद्ध संरक्षण और प्रजनन केन्द्रों की स्थापना का भी प्रावधान किया गया है। इसके अलावा इनके अवैध शिकार, व्यापार को रोकने के लिए उठाए गए कड़े कदम जिसके बाद इस प्रजाति का आकाश में दिखाई देना सम्भंव हो पाया है। जो कि पर्यावरणीय दृष्टि से भी शुभ संकेत हैं ।

हिमालय में खासतौर पर तिब्बत में लोग इस गिद्ध का संरक्षण करते है। तिब्बत के ऊपरी हिस्सों में जब किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाती थी तो उस शव को दफन करने की बजाय उसे किसी ऊंची चट्टान पर रख दिया जाता था। जहां पर ये गिद्ध उसे साफ कर देते थे। इन लोगों में यह मान्यता थी कि ये गिद्ध मनुष्य की आत्मा को स्वर्ग में ले जाते हैं। यदि किसी मृत शरीर को खाने कोई गिद्ध नहीं आते तो ऐसा माना जाता है कि उस व्यक्ति द्वारा कोई पाप किया गया था। जब ज्यादा सर्दी होती है तो ये पक्षी मैदानी भागों में भी आ जाते है। इस पक्षी के प्रजनन का समय दिसंबर से मार्च तक होता है। ये एक ही जोड़ा बनाते है। यह जोड़ा साल दर साल एक ही घोंसले वाली जगह पर बार-बार आते है। दोनों मिल कर नया घोंसला बनाते हैं या फिर पुराने घोंसले को पुनः ठीक करके प्रयोग में लेते हैं। नर व मादा मिल कर चूजों को पालते हैं। मादा एक ही अंडा देती है।इसकी औसतन आयु 25 से 35 वर्ष तक होती है। गिद्धों को विलुप्त होने से बचाने के पीछे सिर्फ भावनात्मक कारण नहीं हैं। इनका पारिस्थितिकी संतुलन स्थापित करने में भी अहम योगदान है जिससे इनका महत्त्व और भी बढ़ जाता है।

मृत पशुओं का मांस गिद्धों का भोजन है। अकेले भारत में ही लगभग बीस करोड़ गाय, बैल, भैंस और भैंसा जैसे मवेशी हैं। भारतीय, विशेषकर हिंदू समुदाय के लोग स्वाभाविक रूप से गोमांस नहीं खाते। ऐसे में किसानों द्वारा मृत गाय-भैंस आदि पशुओं को भूमि में दबा दिया जाता है। कुछ स्थानों पर मृत पशुओं के लिए स्थानीय क्षेपण भूमि का भी इस्सेमाल किया जाता है। कभी-कभार ऐसा भी देखा गया है कि पशुओं को मृतावस्था में वहीं छोड़ दिया जाता है जहां गिरने से उनकी मौत हुई होती है। भूमि में दबाए गए, स्थानीय क्षेपण भूमि में पड़े और जहां-तहां गिरकर मरने वाले पशुओं को गिद्ध कुछ ही घंटों में साफ कर जाते हैं। गिद्धों के लगातार घटने से अब किसान मृत पशुओं को सड़ने के लिए छोड़ने लगे हैं जिससे कई तरह की बीमारियों के खतरे बढ़ गए हैं। गिद्धों के कम होने से जंगली कुत्तों की संख्या भी तेजी से बढ़ रही है। यह बात भारत जैसे देश के लिए अच्छी नहीं है जहां पहले ही दुनिया के अस्सी प्रतिशत जलातंक या अलर्करोग रैबीज) के मामले सामने आते हैं। गिद्धों की एक अन्य भूमिका भी है। भारत दुनिया के ज्यादातर पारसियों का भी घर है। यहां विशेषकर मुंबई में बहुत-से पारसी रहते हैं। पारसी जरतुश्शी (जोरोऐस्ट्रियन) होते हैं जो प्राचीन फारसी अग्नि-पूजकों के धार्मिक वंशज कहे जाते हैं। जरतुश्म-धर्म (जोरोऐसिट्रयनिज्म) में मूल तत्त्व (ऐलीमैंट्स) को पवित्र और शरीर को अपवित्र माना जाता है। इसीलिए पारसी लोग शवों का न तो दाह संस्कार करते हैं और न दफनाते हैं। पारसियों द्वारा शवों को बुों (टॉवज) पर जिन्हें ‘डोखमा कहा जाता है, गिद्ध जैसे पक्षियों के खाने लिए खुला छोड़ दिया जाता है। उनकी मान्यता है कि ऐसा करके वे न तो भूमि और न ही आग को दूषित करते हैं। अब गिद्ध कम होने से वे बुओं पर शवों को समाप्त करने के लिए सौर-परावर्तक स्थापित करने लगे हैं। गिद्धौं की इतनी ज्यादा उपयोगिता के बावजूद समाज में उनके संरक्षण के प्रति गंभीरता नहीं दिखाई देती। हमें दरअसल गिद्धों को प्रकृति की एक सुंदर रचना के रूप में देखना चाहिए जो जरा-सी लापरवाही से समाप्त हो सकती है। इस पर गंभीरता से विचार कर गिद्धों के संरक्षण के प्रयास किए जाने चाहिए। गिद्धों के संरक्षण को अंतरराष्ट्रीय स्त्र की मुहिम बनाया जाना चाहिए। कैलिफोर्निया में गिद्धों को बचाने के लिए पहले ही एक बहुत महंगा कार्यक्रम चलाया जा रहा है। भारत में भी इस तरह के प्रयास किए जा सकते हैं। इस दिशा में भारत, पाकिस्तान और नेपाल मिल कर भी काम कर सकते हैं। डिक्लोफेनेक दवा का इस्तेमाल पूरी तरह बंद कर गिद्धों की संख्या बढ़ाने के लिए सुरक्षित प्रजनन और आहार केंद्रों की स्थापना की जानी चाहिए ताकि इन्हें भोजन के अभाव जैसी समस्या का सामना न करना पड़े। केंद्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने अब योजना बनाई है कि गिद्धों के लिए जहर साबित होने वाली दवाओं का परीक्षण कराया जाए और ऐसी दवा विकसित हो जिसका असर गिद्धों पर न हो। देश में मौजूद गिद्ध संरक्षण केंद्रों के साथ-साथ अतिरिक्त संरक्षण प्रजनन केंद्रों की स्थापना की भी योजना प्रस्तावित किए गए हैं। (यह लेखक के निजी विचार हैं !)

डॉ० हरीश चन्द् अन्डोला (वर्तमान में दून विश्वविद्यालय कार्यरतहैं।)

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