प्रचलन में यह है कि दशहरे के दिन अस्त्र-शस्त्रों की पूजा होती है। मगर जैसा कि विश्वामित्र कह गए हैं : “कलियुग में सब उलटा पुलटा हो जाता है।” वही हो रहा है। इस दशहरे पर मोदी जी – हिन्दू धर्म के स्वयंभू संरक्षक मोदी जी, राष्ट्रवाद की होलसेल डीलरशिप लिए बैठे संघ के प्रचारक मोदी जी – भारत के लिए हथियारों को बनाने वाली सरकारी फैक्ट्रियां बेच रहे हैं। बेच ही नहीं रहे, इस पर गर्व का गरबा भी कर रहे हैं।
धूर्तता की हद यह है कि तोप, बन्दूक, बम, टैंक, युद्धक गाड़ियाँ और जंग में काम आने वाले सारे हथियार, औजार बनाने वाली सरकारी फैक्ट्रियों को निजीकरण की फिसलन भरी खाई में धकेलने को वे “राष्ट्र के नाम समर्पण” बता रहे हैं।
मोदी और आरएसएस के लिए राष्ट्र का मतलब कुछ लाख चितपावन बामन और अडानी-अम्बानी हैं। वे फैक्ट्रियां बेची और खुर्दबुर्द की जा रही हैं, जिन्होंने हर युद्ध में भारत की सेना को हर जरूरी चीज, मांग से कहीं ज्यादा तादाद में, समय से पहले मुहैया कराई। लड़ाईयां जुमलों से, भाषणों से नहीं जीती जाती, निहत्थे सैनिक – भले वे कितने ही बहादुर क्यों न हों – केवल निहथ्थी बहादुरी से नहीं जीती जातीं। वैसे युद्ध कोई बहुत अच्छी चीज नहीं है। लेकिन जब भी युद्ध होता है, तो उसे सिर्फ सीमा पर हुए संग्राम में नहीं जीता जाता – उसकी असली ताकत सीमा से पीछे, अक्सर बहुत पीछे होती है। लड़ाई में वही सेना जीतती है, जिसके देश के असैनिक नागरिक अपनी मेहनत से खाद्यान्नों के गोदाम भरते हैं, कारखानों में खपते और खटते हैं, लड़ाई के लिए जरूरी असला तैयार करके रखते हैं, अपने देश की जनता और संस्थानों को साधन संपन्न बनाते हैं। मैकियावली ने कहा है कि “लड़ाई सीमा पर लड़ी जरूर जाती है, लेकिन जीती खेतों-खलिहानो और कारखानों में जाती है।” यह भी कि “जो घरेलू सामर्थ्य में कमजोर है, उसकी सेना कभी मजबूत नहीं हो सकती। “
अमरीकी जनरल एच. नॉर्मन श्वार्जकोफ जूनियर के मुताबिक़ “शांतिकाल में जो देश जितना पसीना बहाता है, युद्ध में वह उतना ही कम खून बहाता है।” चाणक्य से लेकर फील्ड मार्शल मानेक शॉ तक दुनिया भर के सैन्य विचारकों के अनगिनत उद्धरण दिए जा सकते हैं, जिनमे से अनेक आजीवन युद्ध के खिलाफ रहे, कामना करते रहे कि एक दिन धरा पर एक ऐसा बच्चा पैदा हो, जो अपनी माँ से पूछे कि ये युद्ध – वॉर क्या होता है ; मगर जब तक जंग है, तब तक के लिए रास्ते भी सुझाते रहे। युद्ध शास्त्र के एक अनूठे विचारक हुए हैं जर्मनी (तब प्रशिया) के सेनानायक तथा सैन्य-सिद्धान्तकार कार्ल फॉन क्लाउज़विट्स (1780-1831)। उन्होंने युद्ध के मनोवैज्ञानिक तथा राजनैतिक पक्ष को अधिक महत्व दिया था। वे किलेबन्दी (फोर्टिफिकेशन) के मामले में युद्ध शास्त्र में पढ़ाये भी जाते हैं। अपनी प्रसिद्द किताब “ऑन वार” में वे लिखते हैं कि “असली किलेबन्दी सैनिक व्यूह रचना नहीं है, वास्तविक किलेबन्दी असैनिक जनता की मेहनत है, जिसके बिना किसी भी सेना के लिए हथियार, वर्दी और खाने की कल्पना नहीं की जा सकती।” ” यही किलेबन्दी या पूर्व तैयारी है, जिसे तोड़ने और छिन्नभिन्न करने में दुश्मन सेना पूरी ताकत लगा देती है। मगर भारत में यह काम खुद उसकी सरकार ही कर रही है। लगता है, मिर्ज़ा ग़ालिब ने नरेंद्र मोदी के लिए ही कहा था कि : “हुए तुम दोस्त जिसके दुश्मन उसका आसमां क्यूँ हो।”
भारत में हथियार बनाने वाले कारखानों का आधुनिक अस्तित्व 220 साल पुराना है। अंग्रेजों ने अपनी जरूरत के हिसाब से इन्हे खड़ा किया — आजाद भारत में हथियारों की आत्मनिर्भरता सबसे जरूरी चीज थी। भारत का जन्म ही लड़ाई और युद्ध के बीच हुआ था।
इतिहास अज्ञानी संघी गिरोह को नहीं पता कि सार्वजनिक क्षेत्र, मिश्रित अर्थव्यवस्था और समाजवादी देशों की मदद लेकर औद्योगिक सामरिक शक्ति का विकास पंडित जवाहरलाल नेहरू की पहली पसंद नहीं थी। वे आजादी के तुरंत बाद अमरीका, ब्रिटेन सहित दुनिया के सारे बड़े पूंजीवादी देशों की यात्रा पर गए थे – उनकी पूँजी को न्यौता देने कि आइये हमारे देश में उद्योग धंधे लगाइये। अमरीका और उसके गुट के देशों ने ठोंक कर मना कर दिया था, तबके अमरीकी राष्ट्रपति ने कहा था कि “स्टील, कोयला, हथियार, टैंक, गोलाबारूद बनाने के चक्कर में काहे पड़ते हैं ; हमसे खरीद लीजिये ना। हम दे देंगे आपको।” यह हालात थे, जिनमें खुद अपनी रीढ़ मजबूत करने का रास्ता और पंचवर्षीय योजनाओं का सिलसिला शुरू हुआ। देश में डिफेंस कारखानों का जाल बिछा – पहले से मौजूद कारखानों की क्षमताएं बढ़ीं और भारत हथियार उत्पादन में पांचवे नंबर पर आ गया। मोदी इन 220 साल के निर्माण और 70 साल की सारी मेहनत पर पानी फेर देना चाहते हैं। भारत की रीढ़ तोड़ देना चाहते हैं।
भारत की अब तक की आख़िरी लड़ाई कारगिल युद्ध था। जिसमें शून्य डिग्री से कम तापमान में तैनात सैनिकों के लिए जिन वर्दियों और जूतों को खरीदने यहां तक कि युद्ध में खेत रहे सैनकों के शवों को उनके घर तक पहुँचाने के लिए जरूरी ताबूत खरीदने में अटल सरकार घोटाला और भ्र्ष्टाचार कर रही थी, तब ये आयुध निर्माणी ही बिना वर्दी वाले वे सैनिक थे, जिन्होंने पलक झपकते भारतीय सेना की सारी जरूरतें पूरी कर दी थी। तब के जनरल और तब की राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद ने इन्ही डिफेंस आर्मामेंट्स की फैक्ट्रियों की प्रशस्ति में कसीदे काढ़े थे।
आज वे इतनी बुरी हो गयी हैं कि मोदी सरकार उन्हें दूध में से मक्खी की तरह निकाल कर फेंक देना चाहती है! नहीं – मोदी सरकार दूध की चौकीदारी से सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्र को हटाकर उसकी सारी मलाई और पूरा दूध ही अपने पालनहारों अडानी-अम्बानी और अमेरिकी कारपोरेट कंपनियों के हवाले कर देना चाहती है। इसे कहते हैं नकली राष्ट्रवाद – जिसके झंडाधारी है, भाजपा-आरएसएस के चहेते नरेंद्र मोदी।
जब सरकारें बिक जाती हैं, तब जनता का दायित्व बनता है कि वह देश को बचाये। आयुध निर्माणियों के कर्मचारी के रूप में काम करने वाले भारतीय अपने संघर्ष से यही कर रहे हैं। जो बाकी हैं, वे अगर खामोश रहे, तो मुश्किल हो जाएगी।
आलेख : बादल सरोज (संयुक्त सचिव) अखिल भारतीय किसान सभा