यूँ तो सन् 1887 में गोरखा राइफल्स की एक टुकड़ी रानीखेत से पैदल चलकर लैंसडाउन पहुंची थी और इसी सन में यहाँ गढ़वाल राइफल्स की स्थापना हुई थी। जिसका श्रेय जितना लार्ड लैंसडाउन को जाता है जिसके नाम से कालौं-डांडा का नाम लैंसडाउन पडा है उतना ही श्रेय कल्जीखाल विकास खंड के हैडाखोली गाँव के बलभद्र सिंह नेगी जी को भी जाना चाहिए जो उस समय में एडीसी टू वायसराय इन इंडिया एंड इन ब्रिटेन रहे। ये उन्हीं के प्रयास रहे कि सन् 1905 में दुगड्डा तक मोटर सडक निर्माण किसी निजी ठेकेदार ने नहीं बल्कि गढ़वाल राइफल्स रेजिमेंट ग्रुप द्वारा निर्मित है और दुर्गादेवी की स्थापना भी उन्हीं के द्वारा की गयी है।


 इस सड़क निर्माण के लिए कोटद्वार के एक बेहद अमीर व्यवसायी सूरजमल ने उस समय बहुत मदद की थी ।इस सडक पर पहला वाहन दुगड्डा के व्यवसाई मोतीराम का आया था जिस में  कई बोरे गुड, चना, भेली व नमक पहली बार लाया गया था और इस गाडी को देखने के लिए उस दौर में लगभग 15 हजार लोग दुगड्डा में मौजूद थे।


 सन् 1909 तक यही सडक मार्ग  पूरा होता हुआ लैंसडाउन जा पहुंचा और पहाड़ की उंचाई पर पहली बार सडक सन् 1909 में पहुंची जिससे ढाकरी मार्ग कई जगह से टूटा और बदलपुर तल्ला और मल्ला से लेकर राठ यानि बीरोंखाल तक जाने वाले ढाकरी मार्ग में ढाकरी के लोगों को आने जाने में सरलता होने लगी। भले ही बीरोंखाल इलाके के बहुत कम लोग दुगड्डा सामान लेने आते थे क्योंकि उन्हें मर्चुला सराईखेत होकर रामनगर मंडी नजदीक पडती थी।

 बुजुर्गों का मानना है कि यूँ तो सडक 1925-26 तक सतपुली पहुँच गयी थी लेकिन इसमें आम आदमी को गाड़ी में सवार होने की अनुमति नहीं थी, सिर्फ गढ़वाल राइफल्स के ब्रिटिशअधिकारी व पौड़ी कमिश्नरी के आला अधिकारी ही सतपुली तक ट्रोला या लौरी गाडी में सवार होकर यहाँ तक पहुँचते थे जिनके लिए एक अलग सी घोड़ा खच्चर सडक बांघाट -बिल्खेत, ढाडूखाल, कांसखेत, अदवाणी होकर पौड़ी के लिए बनाई गयी थी, इस पर सिर्फ अंग्रेज अधिकारी ही चल सकते थे या फिर उनके साथ कुछ सेवक व राजस्वकर्मी रहते थे ।जबकि आम भारतीय के लिए इसी रूट से होती हुई ढाकरी सडक थी जिस से तिब्बत तक व्यापार होता था ।

 कठिन मेहनत से इसके लगभग 12 साल बाद यानि सन् 1932 तक नयार में एक लकड़ी पुल बनाकर बौंशाल, अमोठा पाटीसैण से होती हुई सडक पर ज्वाल्पा नयार पर एक पुल बनाया गया फिर ज्वाल्पा, जखेटी, अगरोड़ा, पैडूल, परसुंडाखाल होकर सडक घोड़ीखाल पहुंची ।

  जहाँ एक समय घोड़ों का अस्तबल होता था और आखिरकार बुबाखाल होती हुई यह सडक पौड़ी जा पहुंची  जिसमें गढ़वाल कमिश्नर काम्बेट ने पहली यात्रा मोटर लौरी से की जो गढ़वाल राइफल्स का उस काल की गाडी मानी जाती थी । 

  लेकिन गढ़वालियों को तब भी पैदल ही चलना होता था। क्योंकि इस सडक निर्माण के बाबजूद भी इसपर मोटर वाहन बर्षों तक संचालित नहीं हो पाए, अंग्रेज अफसर या फिर राय बहादुर राय साहब की उपाधि से सम्मानित माल गुजार, थोकदार व अंग्रेज अफसरों के सरकारी दफ्तरों के पटवारी तहसीलदार ही इन सड़कों पर घोड़े में सवार होकर जा सकते थे। इसे सौभाग्य ही समझिये कि सन् 1942 तक आखिर यह तय हुआ कि जो कोई भी गढ़वाली उद्यमी या फिर आम व्यवसायी अपने निजी वाहन लेकर इस मार्ग में चल सकता है उसे इजाजत है।

बर्ष 1943 में वाहन स्वामी दुगड्डा मोतीराम व सूरजमल कोटद्वार वालों ने साझा वाहन खरीदा जिसे कफोलस्यूं के पयासु ग्राम निवासी राजाराम मोलासी (मलासी) द्वारा पहली बार कोटद्वार-सतपुली- पौड़ी मोटरमार्ग पर चलाया गया।

जिनकी हर स्टेशन पर हजारों लोगों ने फूल माला पहनाकर स्वागत किया था।बुजुर्गों का कहना है कि यह गाडी दो दिन में सफर कर जब अगरोड़ा पहुंची तो वहां किसी महिला द्वारा गाडी के आगे घास व पानी रखा गया कि बेचारी भूखी होगी। कितने भोले लोग रहे होंगे वो, कितना सरल मन था उनका। उनको मेरा शत् शत् नमन।

 आपको बता  दूँ कि 30 दिसम्बर सन् 1815 में राजा गढ़वाल सुदर्शन शाह द्वारा जहाँ टिहरी को अपनी राजधानी बनाया गया वहीँ इस से पहले ब्रिटिश गढ़वाल वह अंग्रेजों को हस्तगत कर चुके थे व अंग्रेजों द्वारा अक्टूबर सन् 1815 में ही पौड़ी कमिश्नरी की स्थापना कर पहले डिप्टी कमिश्नर के रूप में डब्ल्यू जी ट्रेल को नामित किया जो बाद में यहाँ कमिश्नर बने। तत्पश्चात बैटन बैफेट कमिश्नर हुए उसके बाद सबसे अधिक कार्यकाल हैनरे रैमजे का हुआ जो 1856 से लेकर 1884 तक गढ़वाल-कुँमाऊ के कमिशनर रहे और इन्हें नैनीताल में रामजी के नाम से जाना जाना था,तत्प्श्चात्त कर्नल फिशर, काम्बेट व अंतिम गढ़वाल कमिश्नर पॉल हुए । सन् 1941 में कमिश्नर काम्बेट या पॉल ने 30 मोटर गाडियों के जखीरे को परमिशन देते हुए वाहन स्वामियों के लिए आदेश निकाले की वे गढ़वाल मोटर्स यूनियन का गठन करें ।आखिर मोटरयान अधिनियम 1940 की धारा 87 (अब संशोधित 1988 की धारा 87) के अंतर्गत यूनियन का गठन हुआ और वाहन स्वामियों ने राहत की साँस ली। फिर वह दिन भी आया जब 14 सितम्बर 1951 में सतपुली बाढ़ में  22 मोटर बसें, ट्रक व लगभग 30 मोटर ड्राईवर कंडक्टर इस नयार की भेंट चढ़े। इनमें उस मोटर या लौरी का ड्राईवर भी शामिल था जो पहली बार पौड़ी पहुंची थी। उनका नाम कुंदन सिंह बिष्ट ग्राम- चिन्डालू , पट्टी-कफोलस्यूं पौड़ी गढ़वाल था। 

साभार : धीरज सिंह नेगी अ.ग.स.-देहरादून

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