मृत्यु महोत्सव के बाद टीका उत्सव : देश के साथ छल, छद्म और कपट की राजनीति
महामारी की #तीसरी लहर के आने की आशंकाओं, जिसकी अब डेल्टा वैरिएंट के नाम पर पहचान तथा अधिकृत पुष्टि भी हो गयी है, के बीच जनता को किसी भी तरह की राहत देने से मोदी सरकार ने सीना ठोंक के मना कर दिया है। जो खुद किसी राष्ट्रीय आपदा से कम नहीं है, वह मोदी सरकार राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन क़ानून के बाध्यकारी प्रावधानों से भी मुकर गयी है। कोरोना को बाहर से आयी और लगातार आने वाली विपदा बताकर एक तरह से उसने इसे महामारी या राष्ट्रीय आपदा तक मानने से भी इंकार कर दिया है। जिस देश में इस महामारी के कालखण्ड में करीब 50 लाख से ज्यादा मौतें हुयी हों, (गुजरात से मध्यप्रदेश तक मौतों की असली संख्या को छुपाने के आपराधिक धतकरम हर रोज उजागर हो रहे हैं, किन्तु इसके बाद भी सरकारी आंकड़ा अभी 4 लाख तक भी नहीं पहुंचा है।) घर के कमाने वालों की मौतों के चलते लाखों परिवारों को दो जून के खाने और जिंदगी बचाने के लाले पड़े हों, दसियों हजार बच्चे-बच्चियां अनाथ और बेसहारा हो गए हों, जिस देश में मात्र एक साल की महामारी में गरीबी रेखा के नीचे जीवन काटने को अभिशप्त नागरिकों की संख्या दोगुनी से भी ज्यादा बढ़ गयी हो, उस देश की सरकार का नकद राहत और मुआवजा देने को लेकर अपनाया गया यह बेशर्म और निर्मम रवैया सभ्य समाज को हतप्रभ करने वाला है। खासतौर से उसका यह दावा कि प्रत्येक मौत पर 4-5 लाख रुपयों का मुआवजा देने की वित्तीय क्षमता उसकी नहीं है, कि राजकोष में इतना पैसा ही नहीं है ; खुद उसके हालिया बर्ताव और कुछ चुनिंदा कामों, लोगों के लिए खैरात बांटने के जाहिर-उजागर कारनामो से मेल नहीं खाता है।
राजधानी दिल्ली की प्रतीक पहचान रही मजबूत इमारतों को तोड़कर मोदी-महल सहित सेन्ट्रल विस्टा बनाने के लिए 20 हजार करोड़ रुपये फूंकने की बात पुरानी हो चुकी है। हर रोज इसी तरह के अपव्यय और अमानत में खयानत के नए हादसे सामने आते रहते हैं। गुजरे सप्ताह आई बैंक ऋणों के “समझौतों” की खबरों में दर्ज आँकड़े चौंकाने वाले हैं। पूरी सूची की माफ़ की गयी रकम के विस्तार में न जाएँ और सिर्फ 12 बड़े-बड़ों की ही बात करें, तो उनकी कर्ज माफी ने बैंकों को (मतलब जनता और सरकार को) 2 लाख 79 हजार 971 करोड़ रुपयों का चूना लगा दिया। इन 12 कंपनियों पर कुल बकाया था 4 लाख 42 हजार 827 करोड़ रुपया — जिसमें से कुल जमा 1 लाख 62 हजार 856 करोड़ रुपये देने पर बाकी को माफ़ करने का समझौता कर लिया गया। ध्यान रहे कि यह रकम 2019 में कारपोरेट कंपनियों के माफ़ किये गए कर्जों की करीब दो लाख करोड़ रुपयों की राशि से अलग है। यह घपला कितना विराट है, इसे एक कम्पनी – शिवा इंडस्ट्रीज – के उदाहरण से समझा जा सकता है। इस कंपनी पर बैंकों का बकाया था 4,863 करोड़ – “समझौते” में निर्णय हुआ कि कम्पनी सिर्फ 323 करोड़ चुकायेगी, बाकी माफ़ कर दिए जाएंगे। ये 323 करोड़ रुपये बकाया रकम का मात्र 6.5% हैं, जो एक साल के ब्याज से भी कम हैं। यह समझौता या बाकी ऐसे सभी समझौते ‘भागते भूत की लंगोटी भली’ जैसी कहावतों को भी पीछे छोड़ उन्हें ‘चोर को तिजोरी थमाने’ और उसे भी खुद अपने कंधों पर लादकर उसके घर तक पहुँचाने वाले हैं। स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया के विरोध के बावजूद इन बड़ी कारपोरेट कंपनियों को इतनी विराट राशि की “छूट” बिना राजनीतिक नेतृत्व ; मोदी-शाह और निर्मला के अनिर्मल अनुमोदन के बिना संभव नहीं है। अचरज की बात नहीं है कि किसानो की कर्जामुक्ति और सब्सिडी की इनकी तुलना में ज़रा सी राशि पर पर रो-रोकर आकाश गुँजाने वाले इस तरह की लूट पर सुबकते भी नहीं हैं। आखिर उन्हें राजा का बाजा बजाने के लिए ही तो छोड़ा गया है। इसकी कीमत छोटे और मंझोले उद्योग धंधों को भी चुकानी पड़ रही हैं। इन रोजगार सघन उद्यमों को मिलने वाला बैंक ऋण लगातार घटता जा रहा है।
जिस देश की सरकार के पास आपदा के शिकार भारतीयों को राहत और मुआवजे के रूप में देने के लिए अठन्नी तक नहीं है उस देश में लुटेरी कमाई की बाढ़ आयी हुयी है। यह अम्बानी की दौलत का 90 करोड़ और अडानी की सम्पदा का 120 करोड़ रुपया प्रति घंटा तक पहुँच जाने तक ही नहीं रुकी है। इसकी रिसन ने अब स्विस बैंक की तिजोरियों को भी लबालब भर दिया है। अवैध कमाई को छुपाने का स्वर्ग मानी जाने वाली स्विस बैंक में भारतीय व्यक्तियों और फर्मों की जमा राशि में जबरदस्त उछाल आया है और सारी मदों को जोड़ लिया जाए तो यह पिछले 13 वर्ष की सबसे बड़ी रकम बन गया है। काले धन को वापस लाने की घनगरज — ज्यों-ज्यों दिन की बात की गयी त्यों-त्यों रात हुई — की गत में पहुँच कर काले धन का भंडार बढ़ाने की स्थिति तक आ गयी है।
ठीक इस बीच कोरोना की तीसरी लहर के आने की आशंका क्या कहर ढाएगी, यह समझा जा सकता है। पहली लहर में ताली-थाली बजाने और दूसरी के वक़्त आँखें चुराकर मौतें बुलाने वाले तीसरी की आशंका के समय खाली जेब और सूना खजाना दिखा रहे हैं। यह शुद्ध आदमखोरी जनसंहारी मानसिकता है।
गोयबल्सी गुरुकुल में शिक्षित-दीक्षित गिरोह ने इस सबके खिलाफ उठने वाले जन-रोष की जो काट ढूंढ़ निकाली है, वह दोमुँही है। पहली हेल हिटलर की तर्ज पर उसकी खराब कार्बन कॉपी “वाह मोदी जी वाह” से आकाश गुंजाने की है। फ़ौरन वैक्सीन दिए जाने की अनेक राज्य सरकारों की माँगों और वैक्सीनेशन के लिए बजट में रखे गए 35 हजार करोड़ रुपयों के इस्तेमाल को लेकर सुप्रीम कोर्ट द्वारा किये गए जवाबतलब के दबाब में मोदी सरकार मुफ्त टीकाकरण की घोषणा करने के लिए मजबूर हुयी। इसका एलान करने के लिए टेलीविज़न पर अवतरित हुए प्रधानमंत्री ने “फ्री-फ्री-फ्री” शब्दों को इतनी बार दोहराया, जैसे वाकई सब कुछ फ्री होने वाला है। उत्सवी मानसिकता का विद्रूप प्रदर्शन करते हुए होर्डिंगों-विज्ञापनों से सारा देश पाट दिया और अब तक की नाकामियों को भुलाने के लिए लोगों को मंत्रबिद्ध करने के सारे उपाय आजमा लिए। लेकिन अपराध इतने बड़े और जघन्य तथा महामारी इतनी निरंतर और अनन्य हैं कि उन्हें सहज ही नहीं भुलाया जा सकता। दूसरी साम्प्रदायिक और अन्य आधारों पर अपने ही देश के लोगों को बाँटने और ध्रुवीकरण करने की अनेकों बार आजमायी हुयी कुटिलता है। इसे उत्तर प्रदेश से हरियाणा तक प्रायोजित हत्याओं और उपद्रवों में देखा जा सकता है।
मगर इस बार लोग झांसे में आते नहीं दिख रहे। जिस तरह दर्द जब हद से गुजरता है, तो दवा हो जाता है, जिस तरह काठ की हांड़ी बार बार नहीं चढ़ती, उसी तरह अब भारत के अधिकाँश नागरिक चाल-चरित्र-चेहरे की बात करने वाली भाजपा-आरएसएस के छल-छद्म और कपट को समझ चुके हैं। कुछ महीनों बाद होने वाले कई राज्यों के विधानसभा चुनावों के मद्देनजर शासक गिरोह की फूंक सरकी हुयी है। यह समय है, जब जनता के आंदोलनों ने अपनी रफ़्तार तेज की है। किसान आंदोलन नए आव्हानों के साथ आया है, मजदूर कर्मचारियों ने उनका साथ देते हुए नए-नए मोर्चे खोले हैं। रक्षा उत्पादक उद्योगों से लेकर प्रोजेक्ट कर्मियों तक संघर्ष नयी ऊंचाई पर पहुंचा है। रोजगार के सवाल पर बिहार और उत्तरप्रदेश से युवाओं की स्वतःस्फूर्त हलचल लगातार तेज से तेजतर हो रही है। ईंधन वाले और खाने वाले तेलों की आपस में होड़ करती दौड़ से आसमान छूती महंगाई के विरुद्ध जगह-जगह विरोध कार्यवाहियां लोगों के बीच दिखाई दे रहे इन्ही जागरणों के उदाहरण हैं।
दीवार पर साफ़ साफ़ लिक्खा है कि आने वाले दिन हुक्मरानों के नहीं, जनता के अच्छे दिन होने जा रहे हैं।
आलेख : बादल सरोज संयुक्त सचिव (अखिल भारतीय किसान सभा)