फिल्म देखने के लिए दो-ढाई घंटे का समय निकालना बड़ी बात नहीं है। मैंने साहस के बारे में इसलिए लिखा कि इस तरह की फिल्में आजकल लोग झेल नहीं पाते। फिल्म देखते वक्त यूट्यूब के कमेंट सेक्शन पर एक निगाह डालेंगे तो पाएंगे कि लोग इस फिल्म को कितना बुरा-बुरा कह रहे हैं।

माना कि फिल्म उदास करनेवाली है, थोड़ी बोझिल-सी भी है… तो देखने का क्या प्रेशर है! कैसी जबरदस्ती है!? मत देखो! लेकिन किसी अच्छी चीज़ को गालियां तो मत दो!

मैं अमिताभ को सदी के महानायक के तमगे जितना बड़ा कलाकार नहीं मानता। उन्होंने कुछ बहुत अच्छे किरदार निभाए हैं तो कुछ बहुत बेकार के रोल भी किए हैं। गंभीर अदाकारी में उनकी आवाज़ उनका सबसे बड़ा हथियार है, और उनकी कॉमेडी की टाइमिंग बहुत अच्छी है। कुल मिलाकर अमिताभ बहुत अच्छे कलाकार हैं लेकिन सर्वकालिक महानतम कलाकार नहीं हैं। वो उम्दा इंटरटेनर भर हैं।

लेकिन “आलाप” उनकी सबसे अच्छी टॉप 10 फिल्मों में शुमार होने लायक है। उनकी कुछ कम प्रसिद्ध फिल्में जैसे “बेमिसाल” और “जुर्माना” भी उन्हें रिप्रेजेंट करने के लिए बेहतरीन हैं।

तो… इस फिल्म में अमिताभ का नाम आलोक है।

आलोक मेरी तरह कलाकार की प्रकृति का व्यक्ति है। संगीत में उसकी जान बसती है। मेरी तरह ही वह जब-तब गाने के मूड में आ जाता है, और क्या खूब गाता है! वह जन्मा ही था सरस्वती की उपासना करने के लिए, वह तो परिवार और समाज के बनाए दायरे थे जिनके तहत उसे धारा के साथ बहना बड़ा।

वह मेरी तरह ही थोड़ा अड़ियल और बिगड़ैल है। लेकिन दिल का सीधा-साधा। बहुत हंसमुख। जिस महफिल में जाए वहां छा जाए।

वह समाज के तथाकथित निचले तबके के लोगों के साथ मेलजोल रखता है। उसके पिता को यह पसंद नहीं। किशोरावस्था और जवानी की शुरुआत में मैंने भी कुछ ऐसे ही लोगों की संगत की। यह बात और है कि मेरे घर में किसी को इसका पता न था। पता होता भी तो वे इसकी कुछ खास परवाह नहीं करते।

आलोक दूसरों के दुःख से सहज द्रवित हो जाता है। वह उनसे सहानुभूति नहीं बल्कि समानुभूति रखता है। वह अन्याय को बर्दाश्त नहीं करता। यदि वह अन्याय घटित होने से रोक नहीं सकता तो भी ऐसा काम करता है कि उसकी अंतरात्मा उसे धिक्कारे नहीं।

फिल्म में आलोक के तेजतर्रार वकील पिता ओमप्रकाश से आलोक की हमेशा ठनी रहती है। किस्सा वही जेनरेशन गैप और पुरखों की इज्जत के सवाल का। अपने पिता इतने कठोर नहीं लेकिन उनसे भी कई बार विचारों का मेल न होने पर खूब ठनी। एक-दो बातें तो यहीं क्वोरा पर शेयर की हैं।

फिर भी आप फिल्म में अपने कठोर पिता के प्रति आलोक के मन में अतीव सम्मान देखकर भावुक हुए बिना नहीं रहेंगे।

मैं अपनी बात कहता हूं। मेरे पिता तीन कहावतें अक्सर कहते हैंः

  • लाठी मारने से पानी अलग नहीं होता।
  • घुटना हमेशा पेट की ओर मुड़ता है।
  • खून पानी से ज्यादा गाढ़ा होता है।

कहने का तात्पर्य यह कि ये तीनों कहावतें फिल्म में आलोक और उसके पिता पर तथा मेरी ज़िंदगी में मुझपर और मेरे पिता के ऊपर खरी उतरती हैं। हमारी असल फिल्म के किरदार – मैं और मेरे पिता एक दूसरे से बहुत प्रेम करते हैं।

आलोक के बारे में अभी कुछ बातें और भी हैं जो मुझपर फिट बैठती हैं। अपने उसूलों के लिए हम दोनों ही समझौते नहीं करते। आलोक अपने जीवनसाथी के लिए पूरी तरह समर्पित है। नियति ने उसे अनचाहे ही रेखा के साथ खूंटी से बांध दिया लेकिन उसने शिकायत नहीं की। अपने साथ ऐसा नहीं हुआ लेकिन अपन भी शायद वही करते। जीवन जिस दिशा में ले जाए उस दिशा में जाना चाहिए।

और अंतिम संयोग यह कि फिल्म से जुड़े सारे लोग अपना बेहतरीन काम करके भी इसे सुपरफ्लॉप होने से नहीं बचा सके। अपने साथ भी कमोबेश ऐसा ही होगा। अपनी सारी क्रिएटिविटी और प्रोडक्टिविटी यहीं क्वोरा पर धरी रह जानी है। इसे भी कोई आखिर कब तक और क्यों सहेज कर रखेगा!? इतनी मेहनत के बाद अपनी ज़िंदगी का कलेक्शन निल बटे सन्नाटा!

अब जब आलोक और अपने बीच हम इतने कनेक्शन दिखा चुके हैं तो बड़े भाई होने के नाते आलोक को कुछ सलाह देना चाहेंगे। बड़े भाई ऐसे कि हम असली हैं और आलोक महज़ एक किरदार है! तो हम आलोक से इतना ही कहेंगे कि आलोक भाई, कभी-कभी ना चाहते हुए भी दबना और झुकना पड़ता है क्योंकि जो झुकते नहीं वो टूट जाते हैं ठाकुर! फिल्म के अंत तक तुम्हारी जो दुर्दशा हुई वह अपन से भी झेली नहीं गई। हम तुम्हारी ज़िंदगी संवरते देखना चाहते थे क्योंकि फिल्म में तुमने ही कहा थाः

ज़िंदगी धूप नहीं साया-ए-दीवार भी है
ज़िंदगी ज़ार नहीं, ज़िंदगी दिलदार भी है
ज़िंदगी प्यार है, प्यार का इक़रार भी है
ज़िंदगी को उभारना होगा, ज़िंदगी को
संवारना होगा
दिल में सूरज उतारना होगा