उधर जम्बूद्वीपे भारतखण्डे की जनता “शेर पालने की कीमत” चुकाने के मजे लेते हए कराह रही है। इधर टाइगर अपने जिन्दा होने का शोर मचाते हुए मध्यप्रदेश के जंगल राज में शिकार करता छुट्टा घूम रहा है।
शेर पालने वाला जुमला बढ़ती महँगाई, बेलगाम बेरोजगारी और सरकारी सम्पत्तियों की धुँआधार बिक्री, सौ दिन से ज्यादा के किसान आंदोलन और आठों दिशाओं में खड़े केन्द्र सरकार की विफलताओं के पहाड़ों से उपजी बेचैनी का जवाब देने के लिए आरएसएस-मोदी और भाजपा की आईटी सैल तथा उनके मातहत मीडिया ने गढ़ा है। इस जुमले का आशय यह है कि यदि नरेन्द्र मोदी जैसा शेर प्रधानमंत्री चाहिए, तो ये सब पेट्रोल, डीजल, खाने के तेल की महंगी कीमतों जैसी “छोटी-मोटी” सांसारिक आफ़तें तो झेलनी ही पड़ेंगी। हालांकि इस जुमले में शेर को “पालने” वाली बात कुछ ज्यादा त्रासद और विडम्बनात्मक है, क्योंकि यह दुनिया जानती है कि इस शेर को पालने का काम जनता नहीं, अडानी-अम्बानी जैसे कारपोरेट कर रहे हैं।
‘टाइगर जिन्दा है’ की दम्भोक्ति करने वाले भाजपा के मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान हैं। उन्हें 2014 में भी यह गलतफहमी हो गयी थी कि वे संघ सर्कस में पले और कारपोरेट के मरकज में पोसे गए शेर मोदी की जगह ले सकते हैं। अब ऐसा ना तो होना था, ना ही हुआ। वो तो भला हुआ कि वे बाद में शरणागत होते भये और अडवाणीत्व को प्राप्त होने से बचते भये। मगर जैसा कि फ्रायड कह गए हैं : दमित इच्छाएं बाद में कुंठा बनकर व्यक्तित्व का अंग बन जाती है। वही हुआ, और कोई बोले न बोले, खुद उन्होंने ही अपने आपको टाइगर कहना शुरू कर दिया। समसामयिक राजनीतिक विमर्श में कार्पोरेटी हिंदुत्व का एक बड़ा योगदान हिंसा और बर्बरता को भाषा और वर्तनी में मान-प्रतिष्ठा दिलाने का है। उनकी उपमाएं, सर्वनाम और संज्ञाएं ही नहीं, क्रियाएं भी शेर, चीतों, भेड़ियों से होती हुयी शिकार और संधान तक जाती हैं। शिवराज भी इसी लीक पर चले।
शेर क्या-क्या हजम कर रहा है – कितना कुछ अनिष्ट और नष्ट-विनष्ट कर रहा है – इसे गिनाना शुरू करेंगे, तो शाम हो जाएगी। इसलिए फिलहाल यहां इन टाइगर साहब के किये-धरे का ही थोड़ा सा जायजा ले लेते हैं।
शिवराज के पहले पंद्रह साला अध्याय का टैग मार्क था – व्यापमं। इस शब्द को उनका ऋणी होना चाहिये, क्योंकि उन्होंने देश-दुनिया में उसे मशहूर कर दिया। घपले, बेईमानी, रिश्वतखोरी, चार सौ बीसी और धांधली आदि-आदि के शब्द समुच्चय का पर्याय बना दिया। इसके पहले ऐसा चमत्कारिक भाषायी योगदान बोफोर्स का था। मगर कहाँ 64 करोड़ रुपयों की चिल्लर वाला बोफोर्स और कहाँ भरापूरा व्यापमं! जो आज तक इतना मशहूर है कि महकमे का नाम बदलने के बाद भी असली पहचान व्यापमं ही बनी हुयी है। हालांकि शिवराज का पहला कार्यकाल सिर्फ व्यापमं यानि हर तरह के भर्ती घोटाले की सीमा में कैद ही नहीं रहा, उन्होंने व्यापमी व्यापकता को अब तक के सबसे ऊंचे और नए आयाम और नीचाईयाँ बख्शी। सिंहस्थ में घोटाले करने में महाकाल को भी नहीं बख्शा, इंदौर में बेसहारा और विधवाओं की पेंशन तक नहीं छोड़ी, कॉपी-कागज-साइकिल-पेन्सिल से लेकर निर्माणों के घोटालों में इमारतों से ज्यादा ऊंचे भ्रष्टाचार की मिसालें कायम कीं। मजदूरों की कल्याण योजनाओं में करोड़ों की सेंध लगाई। साइकिल खरीद से दवाइयों की खरीद तक में घोटालों के रिकॉर्ड कायम किये। ऐसा कोई काम बचा नहीं, जिसमें इनने ठगा नहीं, से कही आगे जाकर “जहाँ न सोचे कोई – वहां भी भ्रष्टाचार होई” के नए मुहावरे जोड़े। लूट और ठगी के ऐसे-ऐसे जरिये खोजे कि नटवरलाल यदि होते, तो अपनी नाकाबलियत पर शर्म से पानी-पानी हो जाते।
अब टाइगर लौट आया है। उसकी वापसी ही जनादेश को जिबह करके – कांग्रेस के विधायकों की आहुति देकर लोकतंत्र का भोग लगाने से हुयी है, इसलिए उसके शाकाहारी होने का मुगालता पालना ही गलत होता । फिर भी जिन्हे थोड़ा-बहुत था, उसे भी दूर करने शपथ लेते ही टाइगर सदलबल शिकार पर निकल पड़ा।
कृषि विस्तार अधिकारियों की भर्ती इसका ताजातरीन उदाहरण है। इसमें मुन्नाभाई एमबीबीएस से भी आगे वाला चमत्कार हुआ। जो अपनी तीन साल की डिग्री छह साल में पास कर पाए थे, वे एक ही जाति, एक ही इलाके के गबरू जवान एकदम एक बराबर पूरे में से पूरे अंक लेकर सबसे ऊपर जा बैठे और सेलेक्ट हो गए। हालांकि ग्वालियर के कृषि विश्वविद्यालय के छात्रों के आंदोलन और कुछ ज्यादा ही शोरशराबा मचने के चलते, बिना किसी की जिम्मेदारी तय किये फिलहाल यह परीक्षा निरस्त कर दी गई है। मगर ज़रा से समय में ही दर्जन भर से ज्यादा घोटाले सामने आ चुके हैं। विज्ञापनों को रोककर, बाँह मरोड़ कर मीडिया को साधे जाने के बाद भी इस तरह की खबरों को दबाना छुपाना मुश्किल हो रहा है।
सुप्रीम कोर्ट ने मप्र में जंगल राज ही नही बताया, बल्कि सरकार को संविधान के मुताबिक शासन चलाने के लायक न होना भी कहा।
अब इन अपराधों और अकर्मण्यताओं पर पर्दा डालना हो, तो दो ही तरीके बचते हैं : एक, भेड़िया आया की गुहार लगाना और दूसरा बड़कू को बचाने के लिए छुट्टन का कान उमेठना। इन अदाओं में बिलाशक शिवराज सब पर भारी हैं – इतने भारी हैं कि कई मामलों में खुद मोदी इनके आभारी हैं। पिछले पखवाड़े इसी तरह की अदाएं शिवराज और उनकी सरकार ने दिखाई हैं।
समस्याओं और पीड़ाओं के बोझ से दोहरे हुए पड़े मध्यप्रदेश में उन्हें सबसे ज्यादा खतरे में लगा हिन्दू धर्म और हर वर्ष में मुश्किल से दो-चार की संख्या में होने वाली अंतर्धार्मिक शादियां!! सो विधानसभा में कथित धर्म स्वातन्त्र्य विधेयक लाया और पारित कराया गया और सप्ताह भर तक उस पर उछलकूद और बयानबाजी कर ध्रुवीकरण की हरचंद कोशिशें की गयीं। जब इससे भी काम नहीं चला, तो शरीकेजुर्म नौकरशाही, उसकी मंत्री मेहरबान तो कलेक्टर तो कलेक्टर एसडीएम और तहसीलदार तक पहलवान मार्का तानाशाही और झूरकर की जा रही बदतमीजियों और भ्रष्टाचार को लेकर जनता में व्याप्त आक्रोश और झुंझलाहट पर पानी डालने के लिए “टाइगर” वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग में दहाड़ने और एक-दो छुटभैय्ये अफसरों पर अपनी हैंकड़ी दिखाने के लाइव शो में जुट गया।
मगर दिखावों की उम्र अधिक नहीं होती। रंगे सियार का रंग उतारने के लिए तेज बारिश की एक फुहार काफी होती है। प्रदेश भर में हो रही किसान पंचायतों, मजदूरों की पहलकदमी पर हो रही जुम्बिशों के बादल उमड़-घुमड़ रहे हैं – जिनका बरसना तय है।
बादल सरोज (संयुक्त सचिव) अखिल भारतीय किसान सभा