न उन्होंने विश्वसनीय छत्तीसगढ़ बनाया, न बनाएंगे सोनार बांग्ला
वर्ष 2003 में छत्तीसगढ़ में भाजपा सत्ता में आई और पूरे 15 साल तक काबिज रही। इस दौरान उसने विश्वसनीय छत्तीसगढ़ बनाने का नारा दिया था। उसने वादा किया था कि आदिवासियों के नाम पर बने छत्तीसगढ़ को एक ऐसा राज्य बनाएंगे, जो सुख, शांति और समृद्धि का प्रतीक होगा : एक ऐसा राज्य, जहां नागरिक सामाजिक-आर्थिक समानता के साथ सुख से रहेंगे, जहां विभिन्न धार्मिक तबके साम्प्रदायिक सौहार्द्र के साथ शांति से रहेंगे और जहां की प्राकृतिक संपदा का दोहन नागरिकों के जीवन-स्तर को बढ़ाने और उसकी समृद्धि के लिए किया जाएगा।
लेकिन ये भाजपा के वादे थे, हकीकत नहीं। वास्तव में भाजपा ने अपनी कार्पोरेटपरस्ती के साथ उदारीकरण की जिन नीतियों को छत्तीसगढ़ में लागू किया, जनता ने उसका प्रतिसाद यह दिया कि उसे 15 सीटर मिनी बस के लायक भी नहीं छोड़ा।
पश्चिम बंगाल की मेहनतकश जनता को आज भाजपा *सोनार बांग्ला* के सपने दिखा रही है। इस सपने की हकीकत को छत्तीसगढ़ के उस भाजपा राज से समझा जा सकता है, जहां 75% परिवारों की औसत मासिक आय 5000 रुपयों से भी कम है और जहां औसतन 65 रुपये दैनिक मजदूरी के साथ सबसे सस्ते मजदूर मिलते है। सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़े आदिवासी समुदाय की आर्थिक स्थिति और इस पर टिके मानव विकास सूचकांक की स्थिति का सहज अंदाजा केवल इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि पूरे प्रदेश के लिए कुपोषण की दर 38% होने के बावजूद आदिवासी समुदायों की दो-तिहाई महिलाएं और बच्चे गंभीर रूप से कुपोषित है। भाजपा राज में ही राज्य में स्वास्थ्य बीमा योजना पूरी तरह फ्लॉप हुई है और स्वास्थ्य क्षेत्र के निजीकरण के कारण होने वाली लूट से हर साल 10 लाख लोग गरीबी रेखा के नीचे चले जाते हैं और इनमें अधिकांश आदिवासी होते हैं। आदिवासी इलाकों में स्वास्थ्य सुविधाओं की जो हालत है, उसमें सामान्य बीमारी भी महामारी का रूप ले लेती है और महामारी से होने वाली मौतों को भी सामान्य मौतों में गिना जाता है।
छत्तीसगढ़ और पूरे देश में आदिवासियों का अस्तित्व बचाने के लिए कॉर्पोरेट लूट के खिलाफ लड़ना जरूरी है। कॉर्पोरेट युग का बर्बर और आदमखोर पूंजीवादी शोषण वनों, जैव विविधता और वन्य जीवों का विनाश, पर्यावरण और पारिस्थितिकी तंत्र को बर्बाद और आदिवासी सभ्यता व संस्कृति की तबाह कर रहा है। वह समूचे प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा करके अपने मुनाफे को बढ़ाना चाहता है। इसके चलते आदिवासियों का जीवन अस्तित्व खतरे में है।
छत्तीसगढ़ में भाजपा राज ने जिस सलवा जुडूम अभियान को प्रायोजित किया था, उसका स्पष्ट मकसद था कि कॉरपोरेटों को यहां की प्राकृतिक संपदा को लूटने का मौका दिया जाए। इसके लिए दसियों गांवों में आग लगाकर 700 गांव खाली करवाये गए और हजारों लोगों को कथित शिविरों में कैद कर लिया गया। नक्सलियों के नाम पर निर्दोष आदिवासियों की हत्याएं करने या उनको जेलों में ठूंसने की नीति भी उनके राज में ही बनाई गई थी। इसलिए आप आदिवासियों के साथ खड़े हो सकते है या फिर उनके खिलाफ कार्पोरेटों के साथ। बीच का कोई रास्ता नहीं है।
छत्तीसगढ़ में भाजपा के 15 सालों के राज में आदिवासी क्षेत्रों में विकास के नाम पर जिन परियोजनाओं को थोपा गया था, उससे आदिवासियों के हिस्से में केवल विस्थापन और विनाश ही आया है। लगभग 2 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि का अधिग्रहण किया गया और 2 लाख हेक्टेयर वन भूमि का गैर-वानिकी कार्यों के लिए। वनों पर 70% परियोजनाएं खनिज खनन की है। इस प्रकार, औसत भूमिधारिता को ध्यान में रखें, तो 4 लाख हेक्टेयर भूमि से 10 लाख आदिवासी और गरीब किसान परिवारों का विस्थापन तो हुआ है, लेकिन उनका पुनर्वास नहीं। कॉर्पोरेटों को मुनाफ़ा कमाने का मौका देने के लिए ही वनाधिकार कानून, पेसा और 5वीं अनुसूची के प्रावधानों को उसने कभी क्रियान्वित नहीं किया। इन तमाम कानूनों को दरकिनार करते हुए उसने बस्तर में टाटा के लिए 5000 एकड़ कृषि भूमि का अधिग्रहण बंदूक की नोंक पर किया था। आदिवासियों के साहसिक विरोध के कारण टाटा यहां अपना स्टील प्लांट नहीं लगा पाई, इसके बावजूद भूमि अधिग्रहण कानून के मौजूदा प्रावधानों के अनुसार उसने यहां के आदिवासियों को उनकी जमीन वापस करने से इंकार कर दिया था। आदिवासियों को उनकी जमीन भाजपा की हार और कांग्रेस के सत्ता में आने के बाद ही मिल पाई। इस संघर्ष में वामपंथ की महत्वपूर्ण भूमिका थी।
यह भाजपा राज की नीतियों का ही कमाल था कि देश के 115 सबसे पिछड़े जिलों में छत्तीसगढ़ के सात आदिवासीबहुल जिलों सहित 10 जिले शामिल हैं। उर्जाधानी कोरबा का भी सबसे पिछड़ा होना चौंकाता है। इन आदिवासी विरोधी और नव-उदारवादी नीतियों का ही दुष्परिणाम है कि वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार उनकी जनसंख्या में सवा प्रतिशत की गिरावट आई है और भील, कोरकू, परजा, सहरिया, सौर और सोंर जैसी जनजातियां विलुप्ति की कगार पर है।
इस चुनाव में भाजपा मतुआ संप्रदाय को रिझाने की कोशिश कर रही है। छत्तीसगढ़ में भी हिंदुत्व के नाम पर उसने हर बार नमः शूद्र संप्रदाय को ठगा है, जिसे हर चुनाव के समय वह आश्वासन देती है कि इस बार उन्हें अनुसूचित जाति (एस सी) की मान्यता देगी, लेकिन आज तक छत्तीसगढ़ में बसे लाखों नमः शूद्रों को इस मान्यता से वंचित करके रखा गया है और शिक्षा व रोजगार के क्षेत्र में वे पिछड़े हुए हैं। नमः शूद्र संप्रदाय भाजपा के लिए केवल वोट बटोरने की मशीन है।
आदिवासियों के पास नगद धन-दौलत नहीं है और वे पूंजीवादी बाजार के लिए किसी काम के नहीं है, क्योंकि वे उनका मुनाफा नहीं बढ़ा सकते। लेकिन उनके पास जो प्राकृतिक संपदा है, उसको लूटकर कॉर्पोरेट अपनी तिजोरियां जरूर भर सकते हैं। इसलिए उनकी सभ्यता, संस्कृति और उनके समूचे जीवन अस्तित्व को मिटाकर वे उनके प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा करना चाहते हैं। इस लूट के खिलाफ सभी शोषित-उत्पीड़ित-दमित लोगों को संगठित करके, एक शोषण विहीन – जाति विहीन समाज की स्थापना में यकीन रखने वाले लोगों की अगुआई में ही इस लड़ाई को लड़ा जा सकता है। वामपंथी आंदोलन की यही दिशा है, जो हमारे देश, संविधान और आदिवासियों के जीवन अस्तित्व की रक्षा कर सकती है और इस देश में मनुवाद के रूप में फासीवाद लादने की हिंदुत्ववादी ताकतों के कुचक्र को विफल कर सकती है।
अब यह बंगाल की मेहनतकश जनता ही तय करेगी कि इस चुनाव में बंगाल को कॉर्पोरेट लूट से बचाने के लिए वह भाजपा के दरवाजे किस तरह बंद करती है।
आलेख : संजय पराते
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