किसी की मृत्यु होने पर हमें शोक होता है। पर क्या वास्तव मे मृत्यु शोक का समय है ? वास्तव में मृत्यु शोक का समय नहीं बल्कि विचार का समय है। इस सम्बन्ध में कृषगोतमी नामक स्त्री की मार्मिक कथा इस प्रकार है।
अपने नवजात शिशु की मृत्यु होने पर शोक से व्याकुल होकर कृषगौतमी मृत शिशु के शरीर को लेकर सड़को पर घूमने लगी कि कोई तो उसे ऐसी दवा दे ताकि उसका बच्चा फिर से जी उठे। लोगों ने सोचा यह तो पागल हो गयी है। एक दयालु समझदार व्यक्ति उसे भगवान बुद्ध के पास ले गया। बुद्ध ने कृष गौतमी से कहा तुम किसी ऐसे घर से जहां परिवार में किसी की भी कभी मृत्यु नहीं हुई हो, सरसों के कुछ दाने लेकर आ जाओ तो मैं तुम्हारे बच्चे को जीवित कर दूंगा।
बुद्ध का यह वचन सुनकर कृष गोतमी के मन में आशा बंधी और वह वहां के घर-घर में प्रत्येक परिवार के पास गयी। पर सबने यही कहा कि हमारे यहां तो अनेक मृत्यु हो चुकी है। किसी के पिता की, किसी की माता की या भाई की या बहिन की या पुत्र-पुत्री की मृत्यु हो चुकी थी। एक भी परिवार उसे ऐसा नहीं मिला जहां कभी कोई भी मरा नहीं हो। धीरे-धीरे जो बात बुद्ध उसे समझना चाहते थे, वह उसको अपने आप समझ में आ गयी कि मृत्यु तो सभी की होती ही है। वह बुद्ध के पास लौट गयी और बोली – भगवन् ! मेरे शोक ने मुझे अंधा बना दिया था। अब मृत्यु के सबंध मे बुद्ध का उपदेश सुनने लायक उसकी मन स्थिति हो गयी थी। बुद्ध ने कहा – इस संसार मे जो भी उत्पन्न हुआ, होगा। निश्चित रूप से उसकी अवश्य एक दिन मृत्यु भी होगी। सारे संसार में यह एक ही नियम लागू है। कि यहां हर शरीर मरण शील है। इसका अस्तित्व सदा नहीं रहता।
गीता में भगवान ने यही बात कही है कि –
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युं, ध्रुवं जन्म मृतस्य च
तस्मादपरिहार्येऽर्थेनत्वं शोचितुमर्हसि।(2/29)
जो जन्मा है उसकी मृत्यु निश्चित है।
तो जो अपरिहार्य है, उसे टाला नहीं जा सकता। वह विषय (मृत्यु) शोक करने योग्य नहीं है।
तो हम क्या करें ?
     दुःख तो जीवन का पहला आर्य विशुद्ध सत्य है। जन्म होना दुःख है। बुढ़ापा दुःख है। मृत्यु दुःख है। व्याधि दुःख है। अप्रिय का सम्बन्ध दुःख है। प्रिय का वियोग दुःख है। इच्छा पूर्ति न होना दुःख। संक्षेप में जीवन दुःख मय है ही। यह जीवन का आर्य सत्य है। इसे स्वीकार करना चाहिये।
    गीता में भी जीवन को दुःखालय कहा गया है। अब प्रश्न यह उठता है है कि जीवन में दुःख के होते हुये भी क्या हम सहन करते हुये एक सार्थक और आनंदित जीवन जी सकते हैं। और दूसरा प्रश्न यह है कि क्या हमारा शरीर और हम एक ही वस्तु हैं ? क्या शरीर का अन्त हो जाने पर हमारा भी अंत हो जाता है ? और इस प्रकार दुखों से सदा के लिये छुटकारा हो सकता है ? बुद्ध और कृष्ण दोनों ने ही पहले प्रश्न का उतर हां में और दूसरे प्रश्न का उत्तर ना में दिया है।
     दोनों ने ही जीवन में दुःख के रहते हुये भी एक सार्थक और प्रसन्न जीवन जीने का मार्ग सुझाया है। पर साथ ही यह भी कहा है कि मृत्यु चक्र समाप्त नहीं होता। अपने कर्मों के और अपनी आसक्ति के अनुसार हमें नया शरीर मिलता है और जन्म मृत्यु का यह दुःख चक्र तब तक चलता ही रहेगा जब तक कि सारी आसक्तियों से मुक्त होकर हमारा चित्त पूर्णतया विशुद्ध न हो जाये।
    चित्त को शुद्ध रखने के लिये बुद्ध और श्रीकृष्ण दोनों ने ही एक शील सम्पन्न जीवन जीने को कहा है। मानसिक शांति के लिये ध्यान करने का उपदेश दिया है। जो व्यक्ति सम्पूर्ण कामनाओं को त्याग कर संसार में किसी भी तरह की कोई स्पृहा या लगाव न रखते हुये विचरता है, जो ममता और अहंकार से भी रहित है। वही शांति को प्राप्त होता है।
        राजर्षि जनक की भांति संसार में किसी भी तरह की आसक्ति न रखते हुये सदा ही एक आदर्श और उत्तम जीवन जीना – यही ध्येय होना चाहिये। इसी को जीवन मुक्त स्थिति में अर्थात् जीवन में रहते हुये मुक्त होकर जीना कहते हैं। गीता के अनुसार जीवन में हमारे दुःख का मूल कारण हमारी तृष्णा अर्थात् चाह है। अष्टांग मार्ग के शील समाधि प्रज्ञा को जीवन में अपनाने पर ऐसा साधक अपनी कामनाओं के आधीन न रहकर सबके प्रति प्रेममय विवेक बुद्धि युक्त और सबके हित में रत एक आनंदमयी जीवन जीने लगता है।
         जीवन में चाहे कितने भी दुःख आयें वह उनसे विहाल न होकर उन्हें सहजभाव से स्वीकार करता है और धैर्य से उनका सामना करता है और जीवन भर के अपने ऐसे अभ्यास के कारण वह मृत्यु को भी सहज भाव से और पूर्ण मानसिक शांति से स्वीकार कर पाता है। किसी प्रकार की कोई भी आषक्ति न रखने से मृत्यु के समय वह सदा के लिये जन्म मृत्यु चक्र से भी निकल जाता है। अर्थात् मृत्युंजय (मृत्यु को जीतने वाला) हो जाता है। उसका पुनः जन्म नहीं होता।
गीता के भक्ति मार्ग ने अपने प्रत्येक कार्य को ईश्वरार्पण करना सिखाकर इस साधना को और भी सहज और मधुर बना दिया है। मीरा की तरह ऐसा भक्त जीवन में प्रत्येक क्षण उस वंशीधर के ही सान्निध्य में रहता है और अंत में उसमें ही समा जाता है।